Monday, June 18, 2007

क्यों नहीं रुक रही सीपीएम की गुंडागर्दी

सीपीएम कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में पत्रकारों पर फायरिंग की। ये खबर रविवार दिन में अचानक आई और जितनी तेजी से आई, उतनी ही तेजी से गायब भी हो गई। लेफ्ट पार्टियों के इन कार्यकर्ताओं को ये पसंद नहीं आ रहा था कि कोई पत्रकार यहां से सही खबरें निकालकर लोगों तक बोलकर-लिखकर पहुंचाए। वैसे लेफ्ट का ये पुराना स्वभाव है जो, कभी-कभी ही जगजाहिर होता है लेकिन, जब जगजाहिर भी होता है तो, जल्दी ही इसे जाहिर करने वाले जगत में मौजूद लेफ्ट समर्थक मानसिकता के पत्रकार ही इसे दबा देते हैं। और, शायद इसी वजह से लेफ्ट कार्यकर्ता इतने मनबढ़ हो गए कि अब पत्रकारों पर भी गोलियां चलाने लगे हैं। वैसे इससे साफ समझमें आ जाता है कि लेफ्ट के शासनवाले पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की किसी भी बात का विरोध करना कठिन है।शायद यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के किसी भी अत्याचार की खबरें मीडिया में उस तरह से नहीं आ पाती हैं। जबकि, कांग्रेस या बीजेपी, यहां तक कि सपा-बसपा या दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के शासन वाले राज्यों में हुई छोटी सी भी घटना मीडिया के लिए घर में शादी के आयोजन जैसा हो जाता है। मेरा ये साफ मानना है कि बीजेपी-कांग्रेस के शासन वाले राज्य कुछ गलत करें तो, उनके खिलाफ मीडिया को एकदम इसी तरह से प्रतिक्रिया देनी चाहिए जैसे वो अभी देते हैं लेकिन, लेफ्ट के शासन वाले राज्यों को छूट कैसे दी जा सकती है। जिस नंदीग्राम में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों पर गोलियां चलाई हैं। ये वही नंदीग्राम है जो, करीब एक हफ्ते तक युद्ध का मैदान बन गया था।

वजह साफ थी नंदीग्राममें रहने वाले ज्यादा लोग लेफ्ट के शासन से इतने परेशानहैं कि उन्हें जमीन पर सरकारीकब्जे के विरोध के बहाने जब सरकार के विरोध का मौका मिला तो, वो इसे छोड़ना नहीं चाहते थे। और, ममता बनर्जी की तृणमूल ने इसकी अगुवाई थाम ली। बस नंदीग्राम के लोगों का दुर्भाग्य यहीं से शुरू हो गया। लेफ्ट पार्टी को लगा कि ये मेरी सत्ता में सेंध लगाने की तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है। फिर क्या था लेफ्ट के कार्यकर्ता और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता आपस में हथियार लेकर भिड़ गए औऱ राज्य की पुलिस अपने आकाओं को खुश करने के लिए लेफ्ट कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए तृणमूल कांग्रेस और नंदीग्राम के गांव वालों पर गोलियां बरसाने लगी। खैर बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है नंदीग्राम में 14 लोगों की हत्या के बाद सीबीआई की जांच रिपोर्ट में ये बात साफ हुई कि नंदीग्राम में 14 से ज्यादा लोग मारे गए और वो पुलिस की गोलियों से नहीं मरे। लेकिन, इसके बाद भी केंद्र की यूपीए सरकार इस मसले पर कोई कार्रवाई करने की बजाए इस पर चुप्पी साधकर बैठ गई। अगर किसी और राज्य में ऐसी घटना हुई होती तो, कांग्रेस अपने चरित्र के मुताबिक, अब तक वहां राष्ट्रपति शासन लगाती भले न, ऐसी बहस तो शुरू ही कर देती। दरअसल केंद्र में समर्थन देने के एवज में कांग्रेस ने बंगाल के लोगों का स्वाभिमान गिरवी रख दिया है। लेफ्ट के कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में गांववालों की हत्या कर दी। लेकिन, कहीं भी लेफ्ट की इस गुंडागर्दी पर हल्ला नहीं मचा। सारी बहस मीडिया में इस पर केंद्रित रही कि बुद्धदेब भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के विकास की भरसक कोशिश कर रहे हैं लेकिन, पुराने वामपंथी इसे बुद्धदेब का वामपंथी विचारधारा से भटकना मानकर बुद्धदेब का विरोध कर रहे हैं।

 बस फिर क्या था सारी लड़ाई पुराने वामपंथी और नए वामपंथियों के बीच की होकर रह गई। लेफ्ट कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी की कहीं चर्चा ही नहीं हुई। दबे छुपे कहीं-कहीं से ये बात बस चलते-चलते सी आई कि नंदीग्राम में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने खुलेआम गोलियां चलाईं। वैसे ये भी सोचने वाली बात है कि देश के दूसरे राज्यों में भी जमीन पर सरकारी कब्जे हो रहे हैं औऱ SEZ यानी स्पेशल इकोनॉमिक जोन भी बन रहे हैं फिर सबसे ज्यादा विरोध पश्चिम बंगाल में ही क्यों हो रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि देश भर में घूम-घूमकर केंद्र की जमीन अधिग्रहण औऱ स्पेशल इकोनॉमिक जोन की नीति का विरोध करने वाले वामपंथियों को विकास का ये रास्ता खूब पसंद आ रहा है औऱ इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में कोई भी राज्य सरकार की किसी भी नीति का विरोध करता है तो, वो लेफ्ट के कार्य़कर्ताओं को बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं होता है और वो अपने वामपंथी विचारधारा में ढल चुकी पुलिस के साथ मिलकर विरोध करने वालों को किसी भी हद तक दबाने की कोशिश करते हैं। पिछले छे महीने में अगर पश्चिम बंगाल के हालात देखें तो, सिर्फ जमीन पर सरकारी कब्जे के मामले में कम से कम पांच हजार लोग घायल हो चुके हैं जबकि, अधिकारिक तौर पर 14 की जान जा चुकी है।वैसे नंदीग्राम से गायब हुए लोगों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। ये बात थोड़ा आश्चर्यजनक लगती है कि पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में ऐसी गुंडागर्दी इतने सालों से हो रही है और वहां की जनता सत्ता बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है।

 नंदीग्राम, सिंगुर, आसनसोल जैसे हालात हर दूसरे दिन राज्य के दूसरे क्षेत्रों में बनते दिख रहे हैं। फिर भी लोग सीपीएम की गुंडागर्दी के खिलाफ क्यों एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। साहित्य, कला, मीडिया और दूसरे रचनाशील क्षेत्रों में भी पश्चिम बंगाल से निकले लोग जितने हैं। उतने किसी और राज्य से निकले शायद ही होंगे लेकिन, ये समझ से बाहर है कि दूसरों को साहित्य और दूसरे रचनात्मक तरीके से कुछ करने और सत्ता के खिलाफ खड़े होने के तरीके सिखाने वाले बंगाल के लोग अपने ही राज्य में गुंडों की सत्ता बदलने का काम क्यों नहीं कर पा रहे हैं। शायद ही इसकी वजह ये हो कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के शासन में इतना बेहतर काम हुआ है कि लोगों को दूसरा विकल्प बेहतर नहीं लग रहा। मुझे तो, पश्चिम बंगाल के मामले में फिल्म युवा की स्क्रिप्ट ही काफी हद तकसही होती दिख रही है। फिल्म में तो, थोड़े बदलाव से कुछ युवा विधानसभा में पहुंचकर लेफ्ट की बूढ़ी लेकिन, मजबूत सत्ता को चुनौती दे भी पाते हैं यहां तो, ऐसी भी उम्मीद की किरण तक दिखाई नहीं दे रही है।

Sunday, June 17, 2007

कश्मीर से सेना हटाने से किसका भला होगा

जम्मू-कश्मीर की सरकार में सहयोगी पीडीपी किसी भी कीमत पर सेना को कश्मीर से हटाना चाहती है। इसके लिए पीडीपी लगातार कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद औऱ केंद्र की यूपीए सरकार के ऊपर दबाव बना रही है। पीडीपी का तर्क ये है कि बेवजह कश्मीर घाटी में सेना लगाकर दहशत का माहौल बनाया जा रहा है। जबकि, पिछले एक दशक से घाटी में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है। और, अब सेना की जगह कश्मीर की कानून-व्यवस्था देखने का जिम्मा कश्मीर की पुलिस को ही दे देना चाहिए। लेकिन, पीडीपी की ये मांग ठीक वही मांग है जो, घाटी में काम कर रही अलगाववादी ताकतें भी लगातार चाह रही हैं। ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर पीडीपी सेना को हटाकर किसका भला करना चाहती है।

वैसे इसे केंद्र के ऊपर दबाव कहें या फिर एक बार सेना हटा देने पर कश्मीर के हाथ से निकल जाने का भय कहें, अभी तक केंद्र और राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने सेना को सीमा पर ही तैनात करने की पीडीपी की मांग नहीं मानी है। लेकिन, राज्य सरकार में सहयोगी पीडीपी की इस मांग ने राज्य में फिर से कट्टरपंथी ताकतों को मजबूत करना शुरू कर दिया है। सेना हटाने की पीडीपी की मांग तो पूरी नहीं हुई लेकिन, कट्टरपंथी ताकतों के दबाव में आकर सेना को मस्जिदों और मुस्लिमों के धार्मिक स्थलों से बाहर निकालने का फरमान सुना दिया गया। ऐसा नहीं है कि सेना को मस्जिदों या मुस्लिम धार्मिक स्थलों की सुरक्षा के काम से बाहर कर दिया गया है। सरकार ने सेना को मस्जिदों और मुस्लिम धार्मिक स्थलों के रीकंस्ट्रक्शन के काम से बाहर कर दिया है। यहां तक कि वो काम भी रोक दिए गए जो, सेना अपने फंड से मस्जिदों को ठीक करने के लिए कर रही थी। दरअसल, आतंकवादी मुठभेड़ों में कभी-कभी सेना की ओर से निर्दोष कश्मीरियों के एनकाउंटर के बाद कश्मीरियों का दिल जीतने के लिए सेना सद्भावना के तहत ये काम कर रही थी।
इसके तहत स्थानीय लोगों की मदद से सेना ऐसी मस्जिदों को ठीक करवाने का काम खुद ही कर रही थी जो, आतंकवाद के दौर में टूट गई थीं या जिनको किसी तरह का नुकसान पहुंचा था। सेना ने पिछले तीन सालों में इस काम पर 52 लाख रुपए से ज्यादा खर्च किए। कई मस्जिदें सुधारीं और आगे भी उसकी योजना कई मस्जिदों और मुस्लिम धर्मस्थलों को सुधारने की थी। सिर्फ सुरक्षा की जिम्मेदारी से आगे बढ़कर मस्जिदों को सुधारने के लिए सेना की तारीफ होनी थी लेकिन, इसकी तारीफ के बजाए कट्टरपंथी मौलवियों ने सेना को बाहर भगाने का अभियान शुरू कर दिया। ये सेना को कश्मीर घाटी से हटाकर सीमा पर तैनात करने की मांग को ही दूसरी तरह से रखा गया और सरकार इसमें फंस गई।

सरकार ऐसे समय में इसमें फंस रही है जब डेढ़ दशक के बाद फिर से एक बार कट्टर अलगाववादी ताकतें कश्मीर घाटी में सिर उठाने की कोशिश कर रही हैं। हुर्ऱियत नेता सैयद अली शाह गिलानी की अप्रैल में श्रीनगर में हुई एक रैली में लश्कर-ए-तैबा के लोग शामिल हुए थे। लश्कर-ए-तैबा के आतंकवादी न सिर्फ गिलानी की रैली में शामिल हुए थे बल्कि, चिल्ला-चिल्लाकर भारत विरोधी नारे लगा रहे थे। उन सबके हाथ में लश्कर के झंडे भी थे। लेकिन, इसके बाद भी सरकार गिलानी के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं कर सकी। अगर सरकार ये डर रही है कि गिलानी पर कार्रवाई से घाटी में अमन पर असर पड़ सकता है तो, मुझे नहीं लगता कि ये ठीक है क्योंकि, अगर गिलानी जैसी मानसिकता के लोगों से डरकर काम किया जाएगा तो, फिर से डेढ़ दशक पहले वाली डरावनी घाटी बनने में कश्मीर में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। मैं खुद इसी साल फरवरी में कश्मीर, गुलमर्ग होकर आया हूं। और, इसमें कोई शक नहीं है कि सेना की मौजूदगी की वजह से धरती की इस जन्नत का मजा लेने के लिए लोग बेखौफ होकर जा रहे हैं। यहां व्यापार बढ़ रहा है, खुशहाली बढ़ रही है। इसलिए राजनीति करने वालों से सिर्फ इतनी गुजारिश है कि एक बार फिर से धरती पर जन्नत को दोजख बनाने की किसी भी कोशिश में शामिल न हों। हां, सेना अगर कहीं आतंकवाद पर काबू के बहाने ज्यादती कर रही है तो, जिम्मेदार लोगों को कड़ी से क़ड़ी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन, सेना को घाटी से हटाकर कश्मीर को आतंकवादियों के हवाले करना कहीं से भी समझदारी का फैसला नहीं होगा।

Saturday, June 16, 2007

फिर हम क्यों बोलें हिंदी ...

बॉलीवुड कलाकारों को (आर्टिस्ट पढ़िए) अब अंग्रेजी या फिर रोमन में ही स्क्रिप्ट देनी पड़ती है। क्योंकि, उन्हें हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट समझ में नहीं आती। वैसे ये मुश्किल सिर्फ स्क्रिप्ट लिखने वालों की ही नहीं है। इन फिल्मी कलाकारों की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए जब पत्रकार (जर्नलिस्ट पढ़िए) साक्षात्कार (इंटरव्यू) लेने जाते हैं तो, उन्हें भी यही मुश्किल झेलनी पड़ती है। देश के हिंदी प्रदेशों में दीवानेपन की हद तक चाहे जाने वाले इन कलाकारों को इतनी भी हिंदी नहीं आती कि ये फिल्म के डायलॉग पढ़कर बोल सकें। फिर भी ये हिट हैं क्योंकि, ये बिकते हैं।

वैसे हिंदी की ये मुश्किल सिर्फ फिल्मी कलाकारों के मामले में नहीं है। बात यहीं से आगे बढ़ा रहा हूं जबकि, ये बात बहुत आगे बढ़कर ही यहां तक पहुंची है। देश में सभी चीजों को सुधारने का ठेका लेने वाला हिंदी मीडिया भी हिंदी से परेशान है। अब आप कहेंगे कि हिंदी चैनलों में हिंदी क्यों परेशान है। हिंदी का चैनल, देखने वाले हिंदी के लोग, बोलने-देखने-लिखने वाले हिंदी के लोग, फिर क्या मुश्किल है। दरअसल मुश्किल ये सीधे हिंदी बिक नहीं रही थी (अंग्रेजी में कहते हैं कि हेप नहीं दिख रही थी)। इसलिए हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगने लगा। शुरुआत में हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगना शुरू हुआ जब ज्यादा बिकने लगा तो, अंग्रेजी में हिंदी का मसाला भर बचा रह गया। हां, नाम हिंदी का ही था।

वैसे ये मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है कि फिल्मी कलाकार या कोई भी बड़ा होता आदमी या औरत (बिगीज) अब हिंदी बोलना नहीं चाहते। हिंदी वही बोल-पढ़ रहे हैं जो, और कुछ बोल-पढ़ नहीं सकते। लेकिन, दुखद तो ये है कि हिंदी वो भी बोल-पढ़ नहीं रहे हैं जो, हिंदी की ही खा रहे हैं। हिंदी खबरिया चैनलों का हाल तो ये है कि अगर बहुत अच्छी हिंदी आपको आती है तो, यहां नौकरी (जॉब) नहीं मिलने वाली। गलती से नौकरी मिल भी गई तो, कुछ ही दिन में ये बता-बताकर कि यहां खबर लिखो-साहित्य मत पेलो, कह-कहकर हिंदी का राम नाम सत्य करवा दिया जाएगा वो भी आपसे ही। जिस दिन पूरी तरह राम नाम सत्य हो गया और हिंदी के ही शब्दों-अक्षरों-वाक्यों पर आप गड़बड़ाने लगे तो, चार हिंदी में गड़बड़ हो चुके लोग मिलकर सही हिंदी तय करेंगे और ये तय हो जाएगा कि अब यही लिखा जाएगा भले ही गलत हो। और, जब मौका मिला थोड़ी बची-खुची सही हिंदी जानने वाले बड़े लोग आपको डांटने का मौका हाथ से जानने नहीं देंगे।

मैं फिर लौटता हूं कि हिंदी की मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है। हिंदी चैनलों में भर्ती (रिक्रूटमेंट) होती है तो, अगर उसने u know.... i hope ... so.. i think कहकर अपने को साबित (प्रूव) कर दिया तो, फिर नौकरी (जॉब) पक्की। समझाया ये जाएगा कि थोड़ी हिंदी कमजोर है लेकिन, लड़की या लड़के को समझ बहुत अच्छी है। हिंदी तो, पुराने लोग मिलकर ठीक कर देंगे। वैसे जिनके दम पर नई भर्ती को हिंदी सिखाने का दम भरा जा रहा होता है उनमें हिंदी का दम कितना बचा होता है ये समझ पाना भी मुश्किल है। वैसे हिंदी के इस दिशा में जाने के पीछे वजह जानने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जगह के रिसेप्शन को भी पार (क्रॉस) करने के लिए अंग्रेजी ही काम आती है। सिर्फ हिंदी के भरोसे अगर आप घर से बाहर निकले हैं तो, मन में ही हिंदी को संजोए हुए चुपके से ही रिसेप्शन पार कर गए तब तो ठीक है नहीं तो, हिंदी के सवाल के जवाब में अंग्रेजी में may i help u आपको फिर से बाहर कर सकता है। मेरे जैसे हिंदी जानने-बोलने-पढ़ने-समझने-लिखने वालों की मंडली तो आपस में मजाक भी कर लेती है कि किसी मॉल या किसी बड़ी-छोटी जगह के रिसेप्शन पर या किसी सेल्स गर्ल से बात करने के लिए बीवी को आगे कर ही काम निकलता होगा। क्योंकि, बड़े मॉल्स, स्टोर्स में तो कुछ खऱीदने के लिए जेब में पैसे होने ही जितना जरूरी है कि आपमें अंग्रेजी में बात करने का साहस हो। शायद ये साहस लड़कियों में कुछ ज्यादा होता है।

खैर बॉलीवुड के कलाकार हिंदी की स्क्रिप्ट पढ़ने से मना कर रहे हैं। इस खबर को पढ़ने के बाद मुझे ये लिखने की सूझी। इसी खबर में गुलजार ने कहा था कि ये तो बहुत पहले से होता आ रहा है। लेकिन, मुझे जो लगता है कि ये पहले से होता आ रहा है या इसमें कलाकारों का कितना दोष है इस पर बहस से ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि क्या हम सचमुच ये मान चुके हैं कि हिंदी छोटे लोगों की, हल्का काम करने वालों की भाषा है। जो भी हिंदी बोले उसे छोटे दर्जे का मानना और फिर उस अपने से मान लिए छोटे दर्जे की जमात के लिए हिंदी समझना-बोलना कहां तक ठीक है। यहां तक कि अपने घर में पाले जानवरों से भी ये अंग्रेजीदां लोगों की जमात अंग्रेजी में ही बात करती है क्योंकि, इनके घर के बच्चे उन जानवरों से भी बात करते हैं उनके साथ खेलते हैं। इसलिए घर के पालतू कुत्ते से हिंदी में बातकर ये अंग्रेजीदां लोग अपने बच्चों को बिगाड़ना नहीं चाहते, डर ये कि कहीं बच्चा भी हिंदी न बोलने लगे।

हिंदी की मुश्किल शब्द का कई बार में इस्तेमाल कर चुका हूं। लेकिन, इसका कतई ये आशय नहीं है कि मैं हिंदी की सिर्फ दारुण कथा लेकर बैठ गया हूं। दरअसल मैं सिर्फ इस बात की तरफ इशारा करना चाह रहा हूं कि क्या हम अपनी भाषा को छोटे लोगों की भाषा समझकर अपनी खुद की इज्जत मिट्टी में नहीं मिला रहे हैं। अंग्रेजी आना और बहुत अच्छे से आना बहुत अच्छी बात है। लेकिन, हिंदी के शब्दों में अंग्रेजी मिलाकर रोमन में लिखी हिंदी बोलने वाले हिंदी का अहसास कहां से लाएंगे क्योंकि, उसमें तो अंग्रेजी की feel आने लगती है। ये सही है कि अंग्रेजी के विद्वान बन जाने से दुनिया में हमें बहुत इज्जत भी मिली और दुनिया से हमने बहुत पैसा भी बटोर लिया। लेकिन, अब हम इतने मजबूत हो गए हैं कि दुनिया हमारी भाषा, हमारे देश का भी सम्मान करने के लिए मजबूर हो। और, ये तभी हो पाएगा जब हम खुद अपनी भाषा अपने देश का सम्मान करें। चूंकि, मीडिया का ही सबसे ज्यादा असर लोगों पर होता है और मीडिया में भी खबर देने वाले चैनल और फिल्मी कलाकार लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। इसलिए इस सम्मान को समझने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भी इन्हीं पर है। वैसे मुझे भी कभी-कभी लगता है कि जब अंग्रेजी से ही तरक्की मिल रही हो तो, हम क्यों बोलें हिंदी।

Wednesday, June 06, 2007

माया, शीला, वसुंधरा, हुड्डा को नोटिस क्यों नहीं?

सोमवार के दिल्ली बंद को सुप्रीमकोर्ट ने राष्ट्रीय शर्म कहा है। और, इसी पर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के साथ ही राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की डीजीपी से जवाब भी मांगा है कि वो लगातार बवाल होने के बाद भी मूकदर्शक कैसे बने रहे। किसी को भी परेशानी को आम जनता के लिए और परेशानी बना देने की राजनीतिज्ञों की अद्भुत कला के बीच अब जनता को अदालतें ही एकमात्र आशा की किरण दिखती हैं। इसलिए सुप्रीमकोर्ट की नोटिस से ऐसे लोग जरूर खुश हुए होंगे। लेकिन, क्या खुद को और निचली श्रेणी में आरक्षण देने की मांग को लेकर कोई एक जाति विशेष राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश यानी चार राज्यों की जनता को दहशत में डालने का हक रखती है। और, इस पर वहां की सरकारें क्या कर रही थीं। सब जानते हैं कि कानून-व्यवस्था भले ही पुलिस चलाती हो लेकिन, इसका पूरा नियंत्रण सरकारों के ही पास होता है फिर सुप्रीमकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को सीधे अदालत में क्यों नहीं बुलाया।
दरअसल यही वो रास्ता है जिसके राजनेता अपना दामन बचा लेते हैं औऱ उनकी राजनीति जनता को भारी पड़ती रहती है। जहां तक राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बात है तो, उनकी तो बात ही करना बेकार है क्योंकि, इन्हीं वसुंधरा माता ने राजस्थान को इस आग में झोंका है। और, कमाल की बेशर्मी तो ये है कि वसुंधरा ने गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला के साथ फिर से 2003 जैसे ही गंदे फॉर्मूले पर समझौता किया है। यानी गुर्जर एसटी हैं या नहीं ये जानने के लिए कमेटी बनाओ और तीन महीने बाद जो होगा देखा जाएगा। झूठा आश्वासन और मामले को तब तक टालो जब तक वो गले की हड्डी न बन जाए। ये हिम्मत वसुंधरा माता ने तब दिखाई है जब इसी चक्कर में पड़कर एक हफ्ते वो अपने राजमहल से बाहर नहीं निकल सकीं थीं। समझ में नहीं आता कि जब 1981 में कांग्रेसी के शिवचरण माथुर की अगुवाई में बनी कमेटी ने ये साफ कर दिया था कि गुर्जरों को एसटी में नहीं डाला जा सकता। संविधान में एसटी बनने के लिए तय किसी भी शर्त को गुर्जर पूरा नहीं करते फिर दुबारा ये कमेटी क्यों बनाई गई जब आरक्षण खत्म करने के लए कमेटी बनाने की शुरुआत होनी चाहिए थी। तो, फिर ऐसी गंदी राजनीति करने के लिए वसुंधरा को अदालत का सम्मन क्यों नहीं गया।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित वही हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले ही ओछा बयान दिया था कि यूपी-बिहार के लोग दिल्ली पर बोझ बन गए हैं। फिर इनके शासन में किसी दूसरे राज्य में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जरों को दिल्ली बंद की इजाजत कैसे मिल गई। मौका था कि दिल्ली बंद को पूरी तरह से विफल करके जाति के नाम पर आंदोलन करने वालों को संदेश दिया जाता कि ये अब नहीं होने वाला। यही हाल हरियाणा के मुख्यमंत्री का रहा। रिलायंस के SEZ के लिए किसानों से जबरदस्ती जमीन लेने में मुख्यमंत्री ने शासन-प्रशासन का पूरा इस्तेमाल कर डाला है। लेकिन, जब गुर्जरों ने फरीदाबाद और राज्य के दूसरे इलाकों में कानून अपने हाथ में लिया तो, मुख्यमंत्री हुड्डा को राजनीति याद आ गई और उन्होंने जनता को गुर्जरों के गुस्से के हवाले छोड़ दिया। फिर इन दोनों गुनहगारों को सुप्रीमकोर्ट ने कैसे बख्श दिय। कम से कम एक फेयर ट्रायल तो होना ही चाहिए था।

लेकिन, सबसे बड़ी गुनहगार हैं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती। मायावती को सत्ता मिली तो, एक बात जो पूरा मीडिया जोर-शोर से चिल्ला रहा था और जिस पर लोग भरोसा करना शुरू कर रहे थे, कि अब राज्य में गुंडई नहीं होने पाएगी। ऊपर के तीन मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक मजबूरियां भी थीं। और, नेता सबसे ज्यादा इसी मजबूरी से बंधा होता है। लेकिन, मायावती के साथ ऐसा भी कुछ नहीं था। न तो, राज्य में गुर्जर इतने बड़े वोट बैंक थे कि कुछ नुकसान होता और नही राज्य में एक साल बाद चुनाव की मजबूरी थी। इसके बावजूद मायावती के राज से गुजरने वाली ट्रेनों पर गुर्जरों को कब्जे की इजाजत कैसे दे दी गई। ये कब्जा भी ऐसा था कि मथुरा में ट्रेन के एसी कोच में चार घंटे तक तोड़फोड़ होती रही और प्रशासन वहां पहुंच ही नहीं पाया। ये हाल उस दिन का था जिस दिन देर शाम तक गुर्जरों ने आंदोलन (आंदोलन इसे मानें तो, वैसे ये सीधे-सीधे गुंडई ही थी)वापस ले लिया था।

इसके पहले राजस्थान से निकली आग सबसे पहले पड़ोसी राज्यों में उत्तर प्रदेश में ही पहुंची थी और इस पर मायावती का सख्त प्रशासन कुछ नहीं कर पाया। मेरठ, हापुड़, आगरा, मथुरा, दादरी में राजस्थान के गुर्जरों को एसटी बनाने के समर्थन में यहां के गुर्जरों ने हंगामा कर रखा। कहीं-कहीं तो, राजस्थान से भी ज्यादा। मायावती को एक मौका मिला था पांच साल के लिए बहुमत मिला था। वो चाहतीं तो, ये सिद्ध कर सकती थीं कि अगले पांच साल तक उत्तर प्रदेश में जाति के नाम पर किसी तरह की राजनीति नहीं होने दी जाएगी। लेकिन, शायद यही राजनीति का तकाजा है कि मौका होने पर भी चुप बैठो जिससे आग भड़के और आग भड़क जाने पर मजबूरी का हवाला देकर उस आग में लोगों को जल जाने दो। इसलिए सुप्रीमकोर्ट को चाहिए यही था कि जैसे स्वविवेक के आधार पर पुलिस प्रमुखों को नोटिस भेजा गया। वैसे ही इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अदालत में बुलाकर इनका ट्रायल किया जाता।

Monday, June 04, 2007

जनरल, ओबीसी, एससी/एसटी की फिर से पहचान हो

अब जातियां खत्म हो रही हैं। जातियों की बजाए आरक्षण की श्रेणी के आधार पर पहचान हो रही है। और, एक बात और उल्टी हो रही है। जातियां थीं तो, लोग ऊपर की जाति के बराबर होना चाहते थे। अब आरक्षण मिलने लगा तो, लोग नीचे की श्रेणी में आरक्षण चाहने लगे। नीचे जाने की लड़ाई ऐसी हो गई है कि राजस्थान में गुर्जर और मीना ने करीब 30 लोगों की शहादत दे दी। इन जातियों के नेता इसे शहादत बताकर औऱ जानें लेने-देने की तैयारी में जुटे हैं। एक दूसरे के गांव में राशन तक नहीं ले जाने दे रहे हैं। आखिर नीचे जाने की लड़ाई है तो कितना भी गिर सकते हैं। गुर्जर पहले से ही ओबीसी हैं लेकिन, उनका कहना है कि ओबीसी में जाटों के भी शामिल होने से उन्हें आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पा रहा है। और, एसटी श्रेणी में होने की वजह से मीना जाति के लोगों का सामाजिक स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है।

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा माता अब तक कुछ नहीं कर सकी हैं। या यूं कहें कि कुछ करने की उनकी मंशा ही नहीं दिख रही। गुर्जरों के हंगामा शुरू करने के दो दिनों तक माता वसुंधरा ने प्रजा की सुध ही नहीं ली। और, दो-तीन बाद जागीं तो, सबसे पहले मीना जाति को इस बात के लिए जगाया कि गुर्जर एसटी में शामिल होकर तुम्हारा हक मारना चाहते हैं, उन्हें रोको। और, जब मीना जाति के लोग पूरी तरह से तैयार हो गए तो, वसुंधरा ने गुर्जर जाति के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया। स्वाभाविक है, अब बात कहां से बन सकती है। वैसे राजस्थान में ये जो आग जल रही है इसकी आग सभी राजनीतिक दलों ने अपने चूल्हे में बचा कर रखी थी। कभी कोई हवा मारकर आग की आंच तेज कर देता है कभी दूसरा। फिलहाल इस बार इस आग कीं आच को तेज करने का काम खुद राज्य की महारानी वसुंधरा राजे ने किया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में राजे ने हर रैली में गुर्जरों को भरोसा दिलाया कि वो चुनाव जीतते ही उन्हें ओबीसी से एसटी बना देंगी। लेकिन, चुनाव जीतने के बाद साफ कह दिया कि ये केंद्र का मसला है इसमें वो कुछ नहीं कर सकतीं।

एक नजर अगर राजस्थान के जातीय समीकरण पर डालें तो, ये साफ हो जाएगा कि ये आग इतनी ज्यादा क्यों भड़की। राज्य में गुर्जर करीब 6 प्रतिशत हैं, मीना करीब 13 प्रतिशत और जाट करीब 10 प्रतिशत। यानी वोट बैंक के लिहाज से तीनों जातियां ऐसी हैं कि इन्हें नाराज करके कोई तपते रेगिस्तान में सत्ता का पानी नहीं पीसकता। और, इसी सत्ता के लिए बीजेपी ने 1999 के लोकसभा चुनाव के पहले जाटों को ओबीसी श्रेणी का लाभ दे दिया। जाट ओबीसी श्रेणी पाने के लिए काफी समय से हिंसा पर उतारू थे। और, पहले से ही शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर संपन्ना जाटों ने ओबीसी कोटे का 25 से 70 प्रतिशत तक लाभ लेना शुरू कर दिया। और, गुर्जरों को ये बात खटकने लगी। अब तक गुर्जर और मीना जातियों के लोगों में काफी सामंजस्य था। लेकिन, एसटी में शामिल मीना जाति के लोग पुलिस कॉन्सटेबल से लेकर आईपीएस/आईएएस की परीक्षा में जब बढ़ने लगे तो, बगल में अब तक मीना के साथ चाय-पानी करने वाले गुर्जरों को मीना के एसटी श्रेणी में होने से ही जलन होने लगी।

जबकि, अगर आरक्षण देने की बात की जाए तो, राजस्थान में मीना, गुर्जर या जाट तीनों में से कोई भी जाति आरक्षण की हकदार नहीं है। मीना और अब अपने लिए एसटी कोटा मांग रहे गुर्जर तो, एटी में शामिल किसी भी तरह से नहीं हो सकते। राजस्थान में ये दोनों जातियां बड़े गांवों में अच्छे घरों में संपन्न तरीके से रह रही हैं। इन जातियों में परिवार के एक-दो लोग नौकरी में हैं। राजस्थान में व्यापार में भी ये तीनों जातियां इतनी प्रभावी तो हैं ही कि इन्हें किसी भी तरह से एसटी (शेड्यूल्ड ट्राइबल) श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता। क्योंकि, इस श्रेणी में शामिल होने के लिए जरूरी शर्तों में से सबसे जरूरी ये है कि एसटी में शामिल होने वाली जाति का लोगों से संपर्क न जुड़ा हुआ हो। जीवन की सामान्य जरूरतें इनकी पूरी न हो पा रही हों। और, ऐसा कम से कम मीना और गुर्जरों के साथ तो नहीं है।

वैसे इन जातियों के आरक्षण ने राजस्थान में हमेशा से एक दूसरे विरोधी रहे ब्राह्मण और राजपूतों को भी साथ ला दिया है। लेकिन, राजनीतिक तौर पर अब न ये सुने जाते हैं और न ही ओबीसी, एससी/एसटी कोटे की असली हकदार जातियां गड़िया लोहार, बंजारा और नट। सच्चाई ये है कि राजस्थान में अगर किसी को आरक्षण अब मिलना चाहिए तो वो गड़िया लोहार, बंजारा और नट जातियां ही हैं। राजस्थान में विधानसभा के चुनाव साल भर से कुछ ज्यादा समय में ही होने वाले हैं। इसलिए राज्य में सत्ता सुख ले रही बीजेपी और केंद्र में सत्ता सुख ले रही कांग्रेस, दोनो में से कोई भी कड़े कदम नहीं उठाना चाह रहा। आज नहीं तो कल ये आंदोलन खत्म हो ही जाएगा।

लेकिन, राजस्थान में आरक्षण श्रेणी बदलने को लेकर शुरू हुए इस अनोखे आंदोलन देश में जनरल, ओबीसी, एससी/एसटी कोटे वाली जातियों के नए सिरे से वर्गीकरण की जरूरत तय कर दी है। अगर ऐसा नहीं होता है तो, अछूत से ब्राह्मण बनने की लड़ाई आजादी के साठ साल बाद अब बड़ी, पिछडी सभी जातियों के जल्दी से जल्दी अछूत बनने की लड़ाई में बदल जाएगी। और, ये सिर्फ राजस्थान में ही नहीं है। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में भी यादव, कुर्मी जातियों को कब तक अन्य पिछड़ा वर्ग में रखा जाएगा ये भी बड़ा सवाल है।

वरना किसी न किसी जाति का कोई नेता खुद के लिए आरक्षण की मांग करेगा और टीवी चैनल पर चिल्लाकर ये बयान देगा कि देश देखेगा कि कोई जाति किस तरह से देश के लिए कुरर्बान हो सकती है। इसी भ्रम में अब तक पचीस से ज्यादा गुर्जर जान गंवा चुके हैं। कुल मिलाकर जरूरत ये समझने की है कि देश की आजादी के समय दस सालों के लिए लागू हुआ आरक्षण कब तक अलग-अलग जातियों के लोगों की जान लेता रहेगा। शायद इसका एक मात्र तरीका यही है कि जातियों का आरक्षण खत्म करके सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए और वो भी दस प्रतिशत से ज्यादा नहीं।

Sunday, June 03, 2007

कोर्ट ने बताया कि अमिताभ किसान नहीं हैं!

उत्तर प्रदेश के फैजाबाद की जिला अदालत ने एक बहुत बड़ा काम कर दिया। कोर्ट ने फैसला सुना दिया है कि अमिताभ किसान नहीं, अभिनेता हैं। अब तक ये बात किसी को पता नहीं थी, सभी इस पर बहस कर रहे थे कि अमिताभ किसान हैं या नहीं। ये बहस कुछ ऐसी थी कि सात साल बाद अब इसी बिना पर महाराष्ट्र सरकार अमिताभ से पुणे की 24 एकड़ जमीन वापस ले सकती है। ये वो जमीन है जिसे खरीदने के लिए अमिताभ को किसान होने का सुबूत देना जरूरी था।

अमिताभ ने ये जमीन तो, ली 2000 मे लेकिन, चूंकि बड़े आदमी हैं इसलिए 6 साल बाद 2006 में ये दस्तावेज पेश किए कि वो किसान हैं। अमिताभ रहने वाले उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के हैं। लेकिन, उनकी किसानी वाली जमीन है बाराबंकी में। और, वो भी 1980 से। लेकिन, 2000 में पुणे में जमीन खरीदने के बाद वो इस पर अपना हक साबित कर पाए 2006 में। वजह साफ है कि 2000 में अमिताभ के बड़े भाई मुलायम सिंह यादव की सरकार उत्तर प्रदेश में नहीं थी। 2006 में मुलायम ने अमिताभ के नाम बाराबंकी की जमीन के एक छोटे से टुकड़े का मालिकाना हक अमिताभ के नाम कर दिया। लेकिन, 1970 में ये जमीन खरीदने वाले पंजाब से आए एक सरदारजी को अमिताभ की निजी हैसियत का अंदाजा नहीं रहा और सरदारजी ने साफ कह दिया कि वो जमीन नहीं छोड़ेंगे चाहे जान देनी पड़ी।

खैर, सरदारजी को जान नहीं देनी पड़ी, फैजाबाद की जिला अदालत ने कह बाराबंकी के तत्कालीन डीएम की रिपोर्ट को ही सही ठहराया है जिसमें कहा गया है कि सहस्राब्दि के महानायक अमिताभ बच्चन को गलत तरीके से बाराबंकी में जमीन दी गई। अब इसी आधार पर महाराष्ट्र सरकार अमिताभ से पुणे की जमीन भी छीन सकती है कि वो किसान नहीं हैं। लेकिन, सवाल ये है कि महाराष्ट्र सरकार को क्या इसके लिए किसी कोर्ट के आदेश की जरूरत थी कि अमिताभ किसान नहीं हैं। सबसे ज्यादा टैक्स देने वाला अभिनेता किसानी कैसे कर सकता है ये जानने के लिए किस कोर्ट के आदेश की जरूरत थी।

अमिताभ के पिता हरिवंशराय बच्चन, जिनकी मधुशाला इतनी चर्चित हुई कि हर कोई जानता है कि वो कवि थे किसान नहीं यानी, पैतृक तरीके से भी अमिताभ के किसान होने का कोई सवाल ही नहीं। पिछले तीन दशकों से अमिताभ मुंबई की मायानगरी में राज कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश वो सिर्फ 1984 में एक साथ ज्यादा समय के लिए गए थे, जब उन्हें इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ना था। फिर ये भ्रम कहां से आ गया कि अमिताभ किसान हैं। इस पर बहस की जरूरत क्यों आई।

इस बात को बहस बनाने के लिए ही अमिताभ के खिलाफ मामला दर्ज होना चाहिए कि वो अपने को किसान साबित करना चाह रहे हैं। अमिताभ के किसान न होने का कोर्ट का फैसला जो, सबसे बड़ी बात साबित करता है कि आजादी के साठ साल से ज्यादा बीतने पर भी इस देश में सत्ता में रहने वाले लोकतंत्र का इस्तेमाल किसी भी तरह से अपने हक में कर सकते हैं। किसी की भी जमीन कोई भी अपने नाम करवा सकता है। फिर चाहे वो एक जाने-माने अभिनेता को किसान बनाने की ही बात क्यों न हो।

सच्चाई तो, ये है कि अगर कोर्ट कह भी देता कि अमिताभ किसान हैं तो, भी वो कभी बाराबंकी की जमीन पर अपना मालिकाना हक साबित करने के लिए नहीं जाते। लेकिन, पुणे की जमीन का मालिकाना हक छोड़ने का उन्हें मलाल ज्यादा हो सकता है। सत्ता के इस्तेमाल से दुनिया के जाने-माने अभिनेता को किसान बनाने की ये घटना देश में अवैध तरीके से जमीन हड़पने की पूरी तस्वीर साफ कर देती है। अक्सर ये खबर आती है कि बिल्डर-डेवलपर नई बसती जगह पर लोगों से उल्टे-सीधे तरीके से जमीन हथिया लेता है और वहां आलीशान इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं। फिर, उस इमारत की बुलंदी के सामने जमीन के छोटे से टुकड़े के असली मालिक की आवाज दबकर रह जाती है।

बात यहां भी वही हुई है। फर्क सिर्फ इतना है कि बाराबंकी में जमीन के असली मालिक के हक की बजाए यहां सरकार को ही चूना लगाया गया। किसान अमिताभ को कम रेट पर जमीन दे दी गई क्योंकि, अभिनेता नहीं किसान हैं। लोकतंत्र में लोकसत्ता लोगों के ही हक मार रही है।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...