Sunday, September 30, 2007

प्रियदर्शन की ही ढोल बज गई

आज मैं प्रियदर्शन की एक और फिल्म ढोल देखकर आया। सुबह अखबारों में रिव्यू और रेटिंग देखकर गया था। तो, लगा था कि फिल्म अच्छी ही होगी। खैर, मैं इस फिल्म को कॉमेडी समझने की गलती करके देखने गया था। कुछ जगहों पर राजपाल यादव की चिरपरिचित कॉमेडी को छोड़ दें तो, कहानी ने कहीं नहीं हंसाया। लेकिन, राजपाल यादव भी अब एक जैसा ही मुंह बनाकर लोगों को हंसाने की कोशिश करते दिखे।

कुल मिलाकर पूरी फिल्म में प्रियदर्शन की ही ढोल बजती नजर आई। एक भी चरित्र ऐसा नहीं था जो, भूमिका पर खरा उतर सका हो। ओमपुरी जैसा शक्तिशाली अभिनेता भी फिल्म में किसी काम का नहीं दिखा। प्रियदर्शन की पुरानी फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी लोगों को हंसाने के लिए चरित्रों को हर दस मिनट पर बुरी तरह पिटवाया। एक-दो रहस्य भी थे। जो, दर्शकों को पहले से ही पता था कि कुछ खास नहीं निकलने वाला।
प्रियदर्शन ने अपने पुराने फॉर्मूले के तहत चरित्रों को खूब भगाया। इतना कि ढोल भी कहीं-कहीं पर भागमभाग होने का भ्रम देने लगती है। फिल्म में मासूम हीरोइनें कॉमेडी का हिस्सा नहीं थी। प्रियदर्शन की फिल्मों से दर्शक हमेशा यही उम्मीद लेकर जाते हैं कि वो कुछ हल्की-फुल्की ऐसी स्क्रिप्ट पर चरित्रों को नचाएंगे कि दर्शकों को हंसी आएगी, मन थोड़ा हल्का होगा। लेकिन, ढोल देखने के बाद दर्शक के दिमाग का भी ढोल बज गया। और, प्रियदर्शन की कॉमेडी फिल्मों की एक जो सबसे खराब बात सामने आ रही है कि हर फिल्म में बेकार-लफंगे चरित्रों को हीरो बनाया जाता है। जो, अंत में हराम की कमाई को बड़ी ईमानदारी से पाकर मस्त हो जाते हैं।
अब उम्मीद यही की जा रही है कि प्रियदर्शन अपनी अगली फिल्म भूलभुलैया में दर्शकों को कुछ नया देंगे। चरित्रों को एक दूसरे के पीछे भगाने, काली कमाई को फिल्म के हीरो के हाथ लगने से अलग हटकर कुछ कहानी लेकर आएंगे। जिससे सचमुच दर्शक प्रियदर्शन का नाम एक अच्छे फिल्म बनाने वाले के तौर पर याद रखेंगे।

1 comment:

  1. एकदम सही ढोल बजाई आपने. अन्यथा तो कुछ रीव्यू देखकर हाल ही की कुछ कॉमे़डी फ़िल्में देखीं तो फूहड़ता के अलावा उनमें कुछ नजर नहीं आया.

    अपने चिट्ठे का इंटरफेस काले में लाल के बजाय काला-सफेद या सफेद काला ही रखे तो उत्तम. यह अपठनीय सा रहता है आंखों को चुभता. वर्डवेरिफिकेशन भी समस्याएं पैदा करता है.

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