Friday, July 26, 2013

राहुल गुस्सा क्यों कम करना चाहते हैं?

राहुल गांधी ने अमेठी में बड़ी अच्छी अच्छी बातें बोली हैं। गुस्सा बुरी बात है। गुस्सा करना ठीक नहीं है। उन्होंने अच्छी बातें करते हुए ये भी कहा कि नौजवानों को मौका मिलना जरूरी है। राहुल ये भी बोल गए कि पंजाब में कांग्रेस और अकालियों ने नौजवानों को बड़े मौके दिए और उससे राज्य के साथ नौजवानों की भी तरक्की हुई। बड़ी अच्छी बातें कही हैं राहुल गांधी ने। लेकिन, राहुल गांधी के साथ बड़ी विडंबना है। अब सोचिए वो अमेठी में पंजाब के नौजवानों का भला याद कर रहे हैं और इसमें भी कोई एतराज नहीं लेकिन, वो पंजाब में भी कांग्रेस के साथ अकालियों के अच्छे काम को नौजवानों की तरक्की के लिए बेहतर बता रहे हैं। क्या राहुल गांधी 1984 के बाद ये कल्पना भी कर सकते हैं कि कांग्रेस और अकाली समीकरण साथ काम कर सकते हैं। खैर, इस कपोल कल्पना पर ध्यान देने की इच्छा मेरी नहीं है। मेरी इच्छा दरअसल राहुल गांधी की इस बात को समझने की है कि वो गुस्सा करने से मना क्यों कर रहे हैं और गुस्से वाले नौजवान को वो बिना गुस्से के ही भला आदमी क्यों मान रहे हैं।

सवाल ये भी है कि वो अचानक ये क्यों कह रहे हैं कि गुस्सा लोगों में भरा जा रहा है और गुस्सा ठीक नहीं है।बड़ी जायज बात कही है राहुल गांधी ने। गुस्सा ठीक नहीं होता और अगर गुस्सा सरकार के खिलाफ हो। सरकार में बैठे लोगों के खिलाफ हो तो बिल्कुल ठीक नहीं होता। सही भी है कि गुस्सा होगा और नौजवान को होगा तो मुश्किल किसे होगी। जाहिर है जिससे नौजवानों की उम्मीदें पूरी नहीं हो रही होंगी। और, वो उम्मीदें सत्ता में बैठे लोग ही बंधाते हैं। 2004 में जब यूपीए सत्ता में आया तो देश के नौजवानों को बड़ी उम्मीदें बढ़ीं थीं। वजह साफ थी 90 के दौर में पी वी नरसिंहाराव की सरकार के चमत्कारिक वित्त मंत्री मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के त्याग के बाद प्रधानमंत्री बन रहे थे। देश के नौजवानों के मन में गुस्सा नहीं तब उम्मीदें थीं। उम्मीद इस बात की थी कि दुनिया के दरवाजे उनके लिए खुल जाएंगे। हर मौके पर पहला अधिकार उन्हीं का होगा। ये उम्मीद ऐसी थी कि 2008 की मंदी के बाद भी 2009 में बीजेपी के लौह पुरुष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण आडवाणी के मनमोहन को बेहद कमजोर बताने के बाद भी लोगों का भरोसा यूपीए 2 के लिए बन गया। अब यूपीए 3 की जमीन टूटी दिख रही है। यूपीए 2 के आधे से नौजवान सड़कों पर आ गया। गुस्से में है। कभी अन्ना तो कभी अरविंद के साथ सड़कों पर सरकार के खिलाफ गुस्सा दिखाया। 
गुस्सा ऐसा हो गया कि 16 दिसंबर की बलात्कार की घटना के बाद नौजवान रायसीना हिल्स पर ऐसे चढ़ गया जैसे दुश्मन देश की चोटी फतह करने जा रहा हो। ये गुस्सा सत्ता को डराता है। और इसी गुस्से को अपनी बनाई उम्मीदें दिखाकर नौजवानों के गुस्से को साधने की कोशिश में नरेंद्र मोदी भी लग गए। उनको दिख गया कि भ्रष्टाचार एक समय के बाद तो सबको स्वीकार हो जाता है। बस नौजवान ही इसे स्वीकार नहीं करता। क्योंकि, नौजवान भ्रष्टाचार से खटता है लेकिन, उस भ्रष्टाचार के खाने में वो हिस्सेदार नहीं होता। देश के नौजवान के सामने अर्थशास्त्र का मनमोहक सिद्धांत भी बिखर चुका है। न जेब में पैसे हैं न अच्छी नौकरी से जेब में पैसे आने का कोई भविष्य दिख रहा है। नौजवान गुस्साएगा ही। लेकिन, गुस्साएगा तो सत्ता को खतरा होता है। राहुल गांधी की पार्टी सत्ता में है। राहुल सत्ता के शीर्ष पर हैं। भले प्रधानमंत्री न हों। इसलिए राहुल अब कह रहे हैं कि गुस्सा ठीक नहीं है।

अब राहुल गांधी बांह चढ़ाकर गुस्साने की बात नहीं करते। क्योंकि, राहुल समझ गए हैं कि गुस्सा बढ़ाने की उनकी नीति उनकी ही सत्ता के खिलाफ जा रही है। इसीलिए अब कह रहे हैं कि गुस्सा मत करिए। अभी किसी राज्य सरकार के खिलाफ गुस्से का मसला भी नहीं है। राहुल को पता है कि गुस्सा और वो भी नौजवानों का गुस्सा 2014 पर भारी पड़ सकता है। और, इस मुद्दे को बढ़ाने का कोई मौका नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी छोड़ने वाली नहीं है। इसीलिए नौजवान के इस गुस्से को अच्छा या खराब बताने के दोनों ही रास्ते सत्ता पाने या सत्ता गंवाने की तरफ जाते हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदी केंद्र सरकार को हर मौके पर गरियाकर ये जताना बताना चाहते हैं कि सत्ता में बैठे लोग चाहते तो नौजवानों की उम्मीद बढ़ती लेकिन, वो काम ऐसा कर रहे हैं कि गुस्सा बढ़ाने की जरूरत है। गुस्सा बढ़ाइए सत्ता में मुझे बैठाइए और फिर मैं उम्मीद बढ़ाऊंगा।

Monday, July 01, 2013

आंकड़ों का जादू चलेगा या नरेंद्र मोदी का

543 ये वो आंकड़ा है जिसके आधार पर एक बात बार-बार आसानी से स्थापित हो जाती है। वो ये कि इस देश के एक बड़े भूभाग में लगभग शून्य की स्थिति में होने की वजह से भारतीय जनता पार्टी या फिर उसके कितने भी करिश्माई नेता के लिए दिल्ली की गद्दी पर काबिज होना संभव नहीं है। आज की तारीख में बीजेपी मतलब नरेंद्र मोदी समझें तो ये 543 का आंकड़ा और भयावह दिखने लगता है। राजनीतिक जानकार शुरुआत देश के निचले इलाके से करते हैं और पूरब की तरफ बढ़त हुए केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का जिक्र करके आसानी से साबित कर पाते हैं कि यहां भारतीय जनता पार्टी किसी भी हाल में लड़ाई की स्थिति में न आ पाती है और आती दिख रही है। उसमें एक ताजा वाजिब तर्क ये जुड़ जाता है कि दक्षिण के बीजेपी के प्रवेश द्वार कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी चरमकाल से क्षरणकाल की ओर बढ़ी है जिससे अब पहले आई सीटें आधी रह जाएं तो कोई अचरज नहीं। महाराष्ट्र की बात करें तो, शिवसेना-महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का घरेलू बंटवारा रिश्ते में आए बीजेपी के लिए वोट बांटने का काम और करेगा।

मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और वहां सत्ता विरोधी समीकरण लोकसभा चुनावों पर भी काम करेगा। अभी इन दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के पास जितने सांसद हैं वो अधिकतम हैं तो जाहिर है कि इसका भी नुकसान बीजेपी को ही होगा। और, बीजेपी मतलब इस समय वैसे ही नरेंद्र मोदी हैं जैसे किसी समय अटल-आडवाणी हुआ करते थे। बिहार में नीतीश नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर छोड़ गए तो जाहिर है कि सेक्युलर नीतीश कुमार को इसका फायदा होगा और बीजेपी की सीटें पहले से घटेंगी। झारखंड में भ्रष्टाचार का मुद्दा बीजेपी के खिलाफ जाएगा। उत्तर प्रदेश की बात करें तो, नए नेता बीजेपी में बने नहीं और पुराने नेता जितना भी मिले उनको मिले के लिए लड़ रहे हैं। उस पर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती का मजबूत जातिवादी वोटबैंक नरेंद्र मोदी के करिश्मे को खाक कर देगा। यानी उत्तर प्रदेश में भी नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी गई काम से। तर्क ये भी कि अयोध्या अब किसी को अपील नहीं करता। और, अगर बीजेपी ध्रुवीकरण की कोशिश करेगी तो इसका भी नुकसान बीजेपी को होगा क्योंकि, मुसलमान एकजुट होकर बीजेपी के खिलाफ वोट करेगा।
गुजरात गौरव नरेंद्र मोदी जितना वहां हैं उससे ज्यादा अब संभव है नहीं। 26 सांसदों वाले गुजरात में पहले से ही बीजेपी के 17 सांसद हैं। अगर 2-4 और बढ़ गए या पूरी 26 भी बीजेपी को मिल गई तो भी बीजेपी 1998-99 वाला करिश्मा दोहराती नहीं दिख रही है। बीजेपी ने 1998 में 25.6% वोट के साथ 182 सीटें हासिल की थीं और इसी स्तर पर 1999 में 23.7% वोट के साथ रही। 2009 में बीजेपी 18.8% वोट के साथ सिर्फ 116 सीटों पर रह गई। अब यहीं से मेरा तर्क नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी के पक्ष में जाने लगता है। सबसे पहले तो ये तथ्य कि इस देश में मतदान का प्रतिशत लगभग 60 के आसपास ही होता है। जब कोई लहर होती है तो, वोटिंग प्रतिशत 60 के ऊपर चला जाता है नहीं तो 56 से 58 प्रतिशत के बीच रहा है। 1977, 84, 89, 91 और फिर 1998 में वोटिंग प्रतिशत 60 के ऊपर गया। यानी 2009 इस लिहाज से मतदाताओं को प्रेरित करने वाला चुनाव नहीं रहा। 2009 में ही बीजेपी का वोट प्रतिशत 98 के उच्चतम स्तर से करीब 6 प्रतिशत कम रहा। तो इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि बीजेपी अपना वोट में 6 प्रतिशत का इजाफा कर सकती है। ये इजाफा होने की दो ही मुख्य वजहें होती हैं। पहला देश में अभी की जो सरकार है उसके खिलाफ लोगों में इतना गुस्सा भर जाए कि वो इसे उखाड़ फेंकने की तैयारी कर लें। दूसरा जो विकल्प दिख रहा हो उस पार्टी और उसके नेता में लोगों का भरोसा उतना ही हो कि वो सत्ता उखाड़ फेंकें तो, विकल्प में जो नेता दिख रहा है उसे सौंपने का भी मन बना लें। मुझे नहीं लगता कि पहली वजह अच्छे से तैयार है इस पर किसी को भी संदेह होगा। अब बात दूसरी वजह की। उत्तराखंड की राष्ट्रीय आपदा- भले इसे सरकार घोषित न करे- में जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने काम किया वो, दूसरी वजह को और मजबूत बनाती है। भले ही नरेंद्र मोदी की पीआर एक्सरसाइज में लगी कंपनी या फिर उनके उत्साही समर्थकों ने पंद्रह हजार गुजरातियों को एक झटके में आपदामुक्त करने के मोदी के काम को रैंबो एक्ट बनाकर विवादित कर दिया। लेकिन, जैसे-जैसे इस मुद्दे पर विवाद बढ़ा और मामला साफ हुआ तो, कुछ बातें जो साफ होकर आईं वो मोदी के पक्ष में ही जाती दिख रही हैं। पहली बात ये कि नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड पर खुद कभी राजनीति नहीं की। छनकर जो खबरें आईं उसमें उन्होंने अपनी पार्टी के उत्तराखंड के नेताओं को इस मुद्दे पर राजनीति के लिए डांटा भी। दूसरा उन्होंने इस आपदा पर कभी खुद कोई दावा नहीं किया। तीसरा जिस तरह से वो आपदा की जानकारी के दूसरे ही दिन अपनी पूरी मशीनरी के साथ वहां पहुंचे और उत्तराखंड के सोते-जागते दिखने वाले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को साथ रखकर राहत काम की अगुवाई की वो, एक शानदार नेता की तस्वीर तैयार करती हैं। गुजरात में बड़ा बढ़िया विकास करते हैं। भुज को भूकंप के बाद तेजी में फिर से खड़ा कर दिया इसकी कहानियां नरेंद्र मोदी के लिए अच्छी बुनियाद तैयार कर चुकीं हैं लेकिन, बात आगे बढ़ने में यही रोड़ा बन रहा था। लोग विरोधी तर्क पेश कर रहे हैं कि देश गुजरात नहीं है। लेकिन, पहाड़ पर आई अब तक की सबसे भयानक आपदा में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह नेतृत्व किया और उसके बाद कांग्रेस की बौखलाहट साफ दिखाती है कि नरेंद्र मोदी अपना काम कर गए।
और इसी आधार पर मैं मानता हूं कि ऊपर जिस 543 के आंकड़े से मैंने लेख की शुरुआत की है। उसकी बजाए 272 के आंकड़े पर बात करें तो तस्वीर व्यहारिक दिखेगी। पहले उन राज्यों की बात कर लेते हैं जहां से 356 सीटें आती हैं। और, यहां बीजेपी का प्रभाव कम है ज्यादा इस पर बहस हो सकती है लेकिन, नहीं है ये कहने वाले नहीं होंगे। ये राज्य हैं गुजरात (26 सांसद), उत्तर प्रदेश (80 सांसद), उत्तराखंड (5 सांसद), मध्य प्रदेश (29 सांसद), राजस्थान (25 सांसद), पंजाब (13 सांसद), झारखंड (14 सांसद), बिहार (40 सांसद), महाराष्ट्र (48 सांसद), कर्नाटक (28 सांसद), हरियाणा (10 सांसद), दिल्ली (7 सांसद), गोवा (2 सांसद), हिमाचल प्रदेश (4 सांसद), छत्तीसगढ़ (11 सांसद), असम (14 सांसद)। गुजरात में बीजेपी का प्रभाव सब जानते हैं। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे ज्यादा संभावना है। और, मोदी के प्रचार प्रमुख बनने पर बिहार के बाद सबसे ज्यादा खुसी जाहिर करने वाला राज्य उत्तर प्रदेश ही रहा। मतलब साफ है कि एक अदद नेता यूपी में बीजेपी कैडर को फिर से 1990 वाले दशक की तरह खड़ा कर सकता है और बीजेपी कार्यकर्ताओं को नरेंद्र मोदी में वो नेता नजर आ रहा है। राजस्थान में फिर से बीजेपी मजबूत होती दिख रही है। असम में इस समय भी 14 में से 4 सांसद बीजेपी के ही हैं। और, बार-बार छिटकने वाले सहयोगियों की चर्चा हो रही है। लेकिन, नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी की एक स्वाभाविक सहयोगी तमिलनाडु के बीजेपी अछूत राज्य में शानदार स्थिति में हैं। लोकसभा में 39 में से आधी से कुछ ज्यादा भी बीजेपी के लिए जुड़ा तो मोदी का काम हो जाएगा। इसे जोड़ लें तो 395 सीटें हैं जिन पर भाजपा लड़ाई में है। अब अगर बीजेपी 200 सीटों से ज्यादा जोड़ पाती है तो, अभी के एनडीए में सिर्फ जयललिता को जोड़ते ही सवा दो सौ का आंकड़ा पार कर जाएगा। एक बड़ी पुरानी पिक्चर मैंने देखी है जिसमें सेठ की भूमिका वाला कलाकार दूसरे फटेहाल कलाकार को समझाता है कि देखो पैसा पैसे को खींचता है। ये सुनकर फटेहाल कलाकार अपने जेब से रुपय्या निकालकर सेठ की नोटों की गड्डी खींचने का प्रयास करता है। इतने में सेठ सिक्का छीनकर फटेहाल कलाकार को भगा देता है और कहता है कि पैसा पैसे को खींचता है ये सच है। लेकिन, ज्यादा पैसा कम पैसे को खींचता है। तो, सीधी सी बात है कि एनडीए तो 272 के आंकड़े तक खिंच ही जाएगा लेकिन, इसके लिए खुद बीजेपी को 200 का आंकड़ा पार करना होगा। और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा का एक बयान नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी का पक्ष मजबूत कर रहा है। संगमा ने हाल ही में कहा है कि नरेंद्र मोदी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता बस धर्मनिरपेक्ष पक्ष कमजोर है। मतलब साफ है कि अगर आडवाणी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हो सकते हैं तो 200 के पार खड़ी नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी के साथ भला कौन आने से सांप्रदायिक बनेगा। फिर चाहे वो चंद्रबाबू नायडू हों या उड़ीसा वाले नवीन पटनायक।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...