Saturday, May 02, 2015

मेक इन इंडिया का भगवान है ग्राहक!

ग्राहक भगवान है। ये ज्यादातर दुकानों पर लिखा दिख जाता है। अब थोड़ा आधुनिक भारत में मार्केटिंग के उस्तादों ने कंज्यूमर इज किंग में इसे बदल दिया है। अब कंज्यूमर इज किंग कहें या ग्राहक को भगवान। सच्चाई यही है कि ग्राहक देवता या किंग कंज्यूमर को अगर ठीक से समझ लिया जाए तो मेक इन इंडिया की प्रधानमंत्री की योजना अद्भुत तरीके से अर्थव्यवस्था के हक में असर दिखा सकती है। भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल पूरा सेक्टर है जिसकी तरक्की अगर सही तरीके से हो और इसका सही इस्तेमाल मेक इन इंडिया की महत्वाकांक्षी योजना में हो पाए तो, चमत्कार हो सकता है। देश में कंज्यूमर ड्यूरेबल्स लोगों के खर्च का चालीस प्रतिशत हिस्सा है। और सबसे बड़ी बात ये है कि कंज्यूमर ड्यूरेबल उद्योग जबर्दस्त तरीके से रोजगार के मौके बढ़ाने वाला है। कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में मिलने वाले हर एक रोजगार के मौके से तीन अप्रत्यक्ष रोजगार के मौके भी बनते हैं। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि अगर कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में 100 लोगों को रोजगार मिला दिखता है तो, ये सीधे-सीधे चार सौ लोगों को रोजगार मिलता है। देश की कुल उद्योगों की तरक्की में कंज्यूमर ड्यूरेबल की हिस्सेदारी कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर औद्योगिक तरक्की के सूचकांक में 5.5% हिस्सेदारी रखता है। CAD यानी चालू वित्तीय घाटे को कम करने में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

ग्राहक देवता को साधने की बात मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि, भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल का कारोबार 2015 आते-आते करीब एक लाख करोड़ रुपये में का हो गया है। और इसमें कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर के चार सबसे महत्वपूर्ण उत्पादों को ही मैं शामिल कर रहा हूं। टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और एयरकंडीशनर। और सबसे अच्छी बात ये है कि तेजी से शहरीकरण वाले भारत में इन चारों ही उत्पादों में चमत्कारिक वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है। भारत सरकार ने सौ से ज्यादा स्मार्ट शहर बनाने की बात कही है। उस पर काम भी शुरू हो गया है। इसके अलावा भी तेजी से बढ़ती औद्योगिक गतिविधियों की वजह से बड़े शहरों और उससे छोटे शहरों में भी तेजी से इन कंज्यूमर ड्यूरेबल्स का बाजार तेजी से बढ़ा है। और धीरे-धीरे कंज्यूरेबल्स की पहुंच गांवों तक भी बढ़ रही है। इस लिहाज से अगर ये समझना हो कि भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर की तरक्की कितनी हो सकती है तो, इसके लिए पहले दुनिया में कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री की तरक्की की औसत रफ्तार जाननी होगी। कंज्यूमर ड्यूरेबल के चार सबसे महत्वपूर्ण उत्पादों की चर्चा करें तो, एक टेलीविजन का ही बाजार है जहां, भारतीय दुनिया के मुकाबबले में कुछ नजदीक दिखते हैं। मतलब ये हुआ कि भारतीयों के घरों में टीवी की पहुंच तेजी से बढ़ी है। फिर भी दुनिया के मुकाबले ये काफी कम है। भारत में साठ प्रतिशत घरों में टेलीविजन है। जबकि, दुनिया में औसत 89 प्रतिशत घरों में टेलीविजन है। इसका मतलब इस कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में भी अभी तरक्की की काफी संभावनाएं हैं। टीवी के बाद भारतीय दूसरा कोई उत्पाद खरीद रहा है तो वो है रेफ्रिजरेटर। इक्कीस प्रतिशत भारतीयों के घर में फ्रिज है। लेकिन, इसमें तरक्की की अपार संभावनाओं को इससे समझा जा सकता है कि दुनिया में औसत 85 प्रतिशत घरों में फ्रिज है। फ्रिज के बाद भारतीयों के घर में वॉशिंग मशीन का स्थान है। लेकिन, ये इतना कम है कि तरक्की की इसमें संभावनाएं ही संभावनाएं हैं। नौ प्रतिशत से भी कम भारतीयों के घर में वॉशिंग मशीन है। यानी 91 प्रतिशत भारत कपड़े धुलने के लिए अभी भी मशीन का इस्तेमाल नहीं करता है। जबकि, दुनिया में सत्तर प्रतिशत लोग कपड़े धुलने के लिए मशीन का ही इस्तेमाल करते हैं। कंज्यूमर ड्यूरेबल में सबसे ज्यादा संभावनाओं वाला उद्योग है एयरकंडीशनर। भारत में सिर्फ तीन प्रतिशत लोगों को ही अभी एयरकंडीशनर का सुख मिल रहा है। जबकि, दुनिया में औसतन साठ प्रतिशत लोग एयरकंडीशनर की ठंडी हवा ले रहे हैं।

कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र के इन चारों महत्वपूर्ण उत्पादों में तरक्की की जबर्दस्त संभावनाएं हैं। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि पिछले तीन वर्षों में टेलीविजन को छोड़ दें तो, बाकी तीनों उत्पादों का उत्पादन घटा है। सिर्फ टेलीविजन ही है जो, 2012 में सालाना 19 लाख उत्पादन से तरक्की करते हुए 2014 में सालाना 49 लाख तक पहुंचा है। और 2012 से 2013 में तेज तरक्की हुई जो, 19 लाख टीवी सेट से 31 लाख टीवी सेट तक पहुंच गई। हालांकि, टीवी का बाजार तीनों उन्य उत्पादों के मुकाबले लगभग उच्चतम स्थिति तक पहुंच गया है। यानी ये लगभग इसी के आसपास बना रहेगा। रेफ्रिजरेटर का उत्पादन भी 2012 में 77 लाख से बढ़कर 2014 में 84 लाख हो गया लेकिन, साल 2013 के मुकाबले रेफ्रिजरेटर के उत्पादन में 2014 में  गिरावट आई है। 2012 में सालाना 30 लाख वॉशिंग मशीन का उत्पादन हुआ था। 2013 में ये बढ़कर 32 लाख और 2014 में 34 लाख तक पहुंच गया। इस मामले में सबसे कमजोर प्रदर्शन एयरकंडीशनर क्षेत्र का रहा है। 2012 में 17 लाख एयरकंडीशनर का उत्पादन हुआ था। जो, 2013 और 2014 में भी 19 लाख एयरकंडीशनर का ही रहा। यानी सबसे ज्यादा संभावना वाले क्षेत्र में लगभग स्थिरता सी आ गई है।

 मेक इन इंडिया के लिए कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र की इसी स्थिरता को गति देने की जरूरत है। लेकिन, इसके साथ ही एक और संतुलन बेहतर करने की जरूरत है। और वो है कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र के उत्पादों के आयात-निर्यात का संतुलन। क्योंकि, मेक इन इंडिया के जरिए चालू खाते का घाटा भी दूर हो इसके लिए जरूरी है कि आयात-निर्यात का असंतुलन दूर किया जाए। जबकि, सच्चाई ये है कि ये असंतुलन दूर होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। 2012 में टेलीविजन उद्योग ने तीन हजार करोड़ रुपये का सामान आयात किया। जबकि, निर्यात सिर्फ 170 करोड़ रुपये का रहा। 2014 में आयात बढ़कर 3300 करोड़ रुपये का हो गया। जबकि, निर्यात बढ़कर 220 करोड़ रुपये पर ही पहुंचा। एक रेफ्रिजरेटर के मामले ही ये संतुलन बेहतर दिखता है। 2012 में रेफ्रिजरेटर क्षेत्र ने 120 करोड़ रुपये का आयात किया तो, 340 करोड़ रुपये का निर्यात किया। 2014 में आयात बढ़कर 140 करोड़ रुपये हुआ तो, निर्यात भी तेजी से बढ़कर 720 करोड़ रुपये हो गया। वॉशिंग मशीन के मामले में भी आयात-निर्यात का असंतुलन बहुत ज्यादा है। 2012 में वॉशिंग मशीन उद्योग ने 800 करोड़ रुपये का आयात किया। जबकि, निर्यात सिर्फ 22 करोड़ रुपये का रहा। हालांकि, 2014 में आयात घटकर 700 करोड़ हुआ और निर्यात बढ़कर 146 करोड़ रुपये हो गया। लेकिन, अभी भी दोनों के बीच का अंतर तेजी से घटाने की जरूरत है। भारतीय बाजार के लिहाज से सबसे ज्यादा संभावना वाले उद्योग एयरकंडीशनर में ही सबसे ज्यादा आयात-निर्यात का भी असंतुलन है। 2012 में 3800 करोड़ रुपये का आयात 2014 में बढ़कर 4800 करोड़ रुपये सालाना हो गया। जबकि, 2012 में किया गया 351 करोड़ रुपये का निर्यात 2014 में भी 643 करोड़ रुपये तक ही पहुंचा। इसमें भी सबसे ज्यादा चिंता वाली बात ये है इन उद्योगों के लिए ज्यादातर सामान का आयात चीन से ही किया जा रहा है। अब अगर इसी आयात निर्यात के असंतुलन को मेक इन इंडिया उलटने में कामयाब हो जाए तो, हर साल सिर्फ इन्हीं चार उत्पादों से भारतीय अर्थव्यवस्था को शुद्ध दस हजार करोड़ रुपये के चालू खाते के घाटे में कमी आ सकती है। जाहिर है ये आंकड़ा सिर्फ अभी के आयात निर्यात के आंकड़े को उलटने भर से दिख रहा है। अगर भारतीय और दुनिया भर की कंपनियां भारत में सामान बनाती हैं और भारत की पूरी जरूरत के बाद दुनिया की भी जरूरत पूरी करने की वजह मेक इन इंडिया बनता है तो, ये आंकड़ा चमत्कारिक तौर पर बढ़ सकता है।

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