Thursday, July 30, 2015

हे टीवी मीडिया के असहाय मित्रों। अब नरक मत करो।

हे टीवी मीडिया के असहाय मित्रों। अब नरक मत करो। #YakoobMemon #YakoobHanged के बाद अब उसकी शवयात्रा मत दिखाने लगना। नरक के भागी इतना भी न बनो। देश के सर्वप्रिय सबके राष्ट्रपति और सिर्फ राष्ट्रपति ही नहीं सबके साथी, शिक्षक डॉक्टर अबुल पाकिर जैनुलआब्दीन का अंतिम संस्कार भी आज हो रहा है। टीवी के संपादक बार-बार ये बहस करते हैं कि टीवी पर हम वही दिखाते हैं। जो, जनता चाहती है। जनता के दबाव के बहाने सारी गलतियों को छिपा लेने वाले संपादकों थोड़ा तो शर्म करो। कौन सी जनता का दबाव था कि याकूब की फांसी पर इतनी बहस हो ये तो अब पूरी तरह से साफ हो गया है। हा इतना जरूर हुआ है कि इस जनता के दबाव की आड़ में आप संपादकों ने पिछले एक हफ्ते से संपूर्ण विश्राम किया है। न किसी विचार पर काम करने की जरूरत रही। न ही सुबह की मीटिंग में ये तय करने की जरूरत कि आखिर चौबीस घंटे के टीवी न्यूज चैनल पर बारह घंटे की लाइव रिपोर्टिंग में क्या दिखाएंगे। वैसे भी याकूब मेमन के भावनात्मक पक्ष पर तो बहुतायत कहानियां पहले से ही मीडिया में थी हीं। बस उन्हें नई तारीख के साथ छापना, दिखाना था। सुबह से ही सारे संपादकों ने अपने रिपोर्टरों को दिल्ली, मुंबई से लेकर नागपुर जेल तक लगा दिया है। हां, ये अभी तक नहीं पता चल पाया है कि कितने संपादकों के आदेश पर कितने टीवी चैनलों के रिपोर्टर रामेश्वरम पहुंचे हैं। शर्म करो नहीं तो जनता के दबाव की आड़ में हर कुकर्म को छिपा लेने वाली बेशर्म पर जनता की प्रतिक्रिया का दबाव आया तो, क्या करोगे। वैसे भी काले धन के प्रवाह में आई रोक ने बहुतायत बी, सी, डी ... ग्रेड चैनलों पर ताला लगा दिया है। कुछ शर्म करो।


याकूब मेमन की कहानियां किसी भी तरह से किसके हित में हैं। सिवाय मेमन परिवार के। समाज के निर्माण में कौन सी कहानियां मदद करने वाली हैं। रस्मी तौर पर सिर्फ कलाम साहब के अंतिम संस्कार की एजेंसियों से मिली तस्वीरों से काम मत चलाओ। एपीजे अब्दुल कलाम साहब का जीवन दिखाओ। टीवी बड़ा पावरफुल मीडियम है। इस ताकतवर जनता के माध्यम का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करो। जनता के दबाव की बात बहुतायत करते हो। कभी जनता की भलाई का भी सोचो। मैं खुद टीवी पत्रकार हूं। जानता हूं बड़ा दबाव होता है। सचमुच कठिन है। चौबीस घंटे की दर्शकों को बांधने वाली प्रोग्रामिंग करना। लेकिन, जब एपीजे अब्दुल कलाम जैसी शख्सियत की कहानी सुनानी हो तो, इतना कठिन मुझे तो नहीं लगता। सात दिन के राष्ट्रीय शोक का वक्त है। इस देश को प्रेरणा देने वाले सात दिन में बदलने की ताकत टीवी में ही है। लेकिन, आधा वक्त तो आप फांसी में ही खा गए। आधा वक्त फांसी के बाद की पीड़ा में मत खा जाना। प्रायश्चित इस एक घटना से तो न हो पाएगा। लेकिन, करिए शायद कुछ मन का बोझ हल्का हो जाए। कलाम साहब साहब रहने लायक धरती की बात करते दुनिया से गए। वो कहते थे कि माता-पिता और शिक्षक- ये तीनों ही मिलकर किसी देश का मन मिजाज स्वस्थ कर सकते हैं। भ्रष्टाचार मुक्त कर सकते हैं। टीवी भी बड़ा शिक्षक है। टीवी से जनता जाने-अनजाने सीखती है। सीख रही है। सीखने वाला छात्र होता है। कलाम साहब ने ये भी कहा था कि छात्र को सवाल पूछने से कभी नहीं रोकना चाहिए। सवाल पूछना ही छात्र का, सीखने वाले का मूल होता है। ये खत्म तो, सब खत्म। शिक्षक टीवी की जनता ही छात्र है। जनता को सवाल पूछने दीजिए। कलाम साहब बच्चों के सवालों का जवाब देते रहे, आखिरी क्षण तक। खुद सीखते रहे, दूसरों को सीखने के लिए प्रेरित करते रहे। इस देश में फांसी पर बहस फिर हो सकती है। ऐसे बहुतायत मौके पहले भी मिले। आगे ईश्वर न करे कि मिलें। लेकिन, ये वक्त है देश से एक शिक्षक की विदाई का। इस विदाई को सीख के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। टीवी मीडिया भी समाज का शिक्षक है। एक शिक्षक के नाते अपनी जिम्मेदारी निभानी ही होगी। इसी जिम्मेदारी से छात्रों के सवालों के जवाब मिल पाएंगे। अपनी जिम्मेदारी से भागने वाला शिक्षक जैसे छात्र को जिम्मेदार नहीं बना सकता। वैसे ही अपनी जिम्मेदारी से भागने वाले टीवी भी सही समाज नहीं बना सकता। छात्र के दबाव से शिक्षक गड़बड़ाया है। ये साबित करना कब तक हो पाएगा। अगर दुनिया के सारे शिक्षक टीवी वाली लाइन ले लें तो, क्या होगा। दुनिया के सारे छात्र शिक्षकों पर दबाव बना देंगे। बड़ा गलत उदाहरण पेश कर रहा है भारतीय टेलीविजन। इस अपार संभावना वाले माध्यम की हत्या मत करिए संपादकों। 

Wednesday, July 29, 2015

खेल सिर्फ ब्राह्मण ही करता है

ये ब्राह्मण भी अजब प्रजाति है। जाति नहीं कह रहा हूं। क्योंकि, लोगों ने इसे जाति से ऊपर उठा दिया है। कई बार तर्क सुना है कि ब्राह्मण न होते तो समझ आता कि ब्राह्मण होना कितना लाभदायक है। हालांकि, मुझे तो कभी ब्राह्मण होने का कोई लाभ नहीं मिल पाया। इसलिए अज्ञानी ही रह गया। हां, नियमित तौर पर सर्वाधिक गालियां जरूर ब्राह्मणों को पाता देखता हूं। अब मुझे समझ आ रहा है कि ये ब्राह्मण जाति वाला नहीं, प्रजाति वाला है। सारी सृष्टि की हर बुराई के लिए ब्राह्मण जिम्मेदार हो गया है। कमाल तो ये कि मायावती की चरण रज से ही कुछ हासिल करने की चाह लिए लोग भी तर्क देते-देते कह जाते हैं कि मायावती भी मनुवादी हो गई है। मुसलिम, सिख, इसाई से लेकर हिंदू में हर जाति का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लेकर सब कुछ हो चुके हैं। लेकिन, गाली खाने का संपूर्ण ठेका एकमुश्त तौर पर वही प्रजाति वाले ब्राह्मण को ही मिला हुआ है। अभी दफ्तर से लौटकर ट्विटर देखा तो, ब्राह्मण ट्रेंड कर रहा है। हमें लगा क्या हो गया। खंगाला तो समझ आया कि फिर ब्राह्मण ने एक मुसलमान को फंसाकर मार डाला है। 1993 मुंबई धमाके वाली आतंकवादी घटना के मुख्य सूत्रधार याकूब मेमन की फांसी के पीछे भी ब्राह्मण ही पाया जा रहा है। यहां तक कि पिछड़े, दलितों की लड़ाई बड़े मुकाम तक पहुंचने में भी कई लोग ब्राह्मणवादी साजिश देख लेते हैं। कभी-कभी लगता है काश मैं ऐसा वाला ब्राह्मण होता तो सबको निपटा देता। अद्भुत है ना कि यही ब्राह्मण एक ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्री होना भारत में तय करता है। यही ब्राह्मण पिछड़ी जाति के नरेंद्र मोदी को भी प्रधानमंत्री बनाने की साजिश रचता है। यही ब्राह्मण क्षत्रिय चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी प्रधानमंत्री बनवाता है। फिर निपटा भी देता है। ब्राह्मण ही तो मुलायम सिंह यादव और मायावती को मुख्यमंत्री बनवाता है। पता नहीं इस प्रजाति के ब्राह्मण जयललिता को मुख्यमंत्री बनवाने की साजिश में किस हद तक शामिल हैं। इस प्रजाति वाला ब्राह्मण अनुमानों से परे है। ये धर्म, विज्ञान से परे है। ये बस ब्राह्मण है। ये साजिश इतनी तगड़ी है कि स्मार्टफोन भी इसी के कब्जे में चलता है। यहां तक कि विदेशी ट्विटर भी इसी ब्राह्मण के कब्जे में है। कुछ लोग तो कह रहे हैं कि ट्विटर पर भारत में सौ में अस्सी ब्राह्मण ही हैं। इन नव जातिशोधकों ने बहुत खोजबीन के बाद ये पाया है कि ये ब्राह्मण प्रजाति सिर्फ जाति वाले ब्राह्मणों पर ही आश्रित नहीं है। इस प्रजाति की साजिश के आगे जातीय तौर पर गैर ब्राह्मण जातियों के लोग भी प्रजाति से ब्राह्मण हो जाते हैं। वो भी बस प्रजाति के ब्राह्मणों की साजिश भर। आज इस ब्राह्मण ने फिर खेल कर दिया। अपने जाल में फंसाकर याकूब मेनन को फांसी दे दी। गजब है ये ब्राह्मण भारत में आतंकवादी हरकतों के जिम्मेदार को जाल में फंसाने के लिए इतना खेल करता है।

Monday, July 27, 2015

नई विश्व संरचना का संगठन है ब्रिक्स

ब्रिक्स देशों के बैंक ने विधिवत काम करना शुरू कर दिया है। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के संगठन ब्रिक्स के इस बैंक की अहमियत बहुत ज्यादा हो जाती है। न्यू डेवलपमेंट बैंक में एक रूस को छोड़ दें तो सभी देश विकासशील देश हैं। ये बैंक विश्व बैंक के मुकाबले में काम करेगा या यूं कहें कि विश्व बैंक की कमियों को भरने की कोशिश करेगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया में सहयोग, संगठन, संतुलन बनाने की बात की गई तो, संयुक्त राष्ट्र संघ, अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष और विश्व बैंक की भूमिका समझ में आई। और उम्मीद यही की गई थी कि इन संस्थाओं के जरिए दुनिया समानता लाने की कोशिश की जाएगी। कहने को तो ये संस्थाएं दुनिया भर में असमानता दूर करने के लिए बनीं। लेकिन, बाद के सालों में समझ में ये आया कि दरअसल ये संस्थाएं दुनिया की असमानता को दूर करने के बजाए उनकी ताकत बढ़ाने में ही मददगार हुईं जो, पहले से ही ताकतवर थीं। जिसका सीधा सा असर भी हुआ कि दुनिया लगभग एकध्रुवीय हो गई। अमेरिका के ही इर्द गिर्द पूरी दुनिया और ये संस्थाएं घूमने लगीं। रूस के बिखरने के बाद तो ये पूरी तरह से तय हो गया। चाहे अनचाहे दुनिया को संतुलित करने के लिए बनी संस्थाओं का पूरा एजेंडा ही अमेरिका से तय होने लगा। अस्सी के दशक में जब संगठित रूस कमजोर होने लगा। तब तो अमेरिका ने खुले तौर पर पूरी तरह से ही अपना एजेंडा चलाना शुरू कर दिया था। नब्बे के दशक की शुरुआत में ही सोवियत रूस विघटित हो गया। लेकिन, इसी समय दो महत्वपूर्ण घटनाएं आकार ले रहीं थीं। प्रधानमंत्री नरसिंहाराव ने भारत में उदारीकरण की शुरुआत कर दी थी। और, पड़ोस में चीन अपने स्पेशल इकोनॉमिक जोन के बूते तेजी से तरक्की की राह पर बढ़ते हुए अमेरिका को चुनौती देने का नया केंद्र बनता जा रहा था।

यही वो समय था जब दुनिया को अपने लिहाज से चलाने के लिए तैयार की गई अमेरिकी संस्थाएं- संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष-  आधी शताब्दी की यात्रा तय कर चुकी थीं। विश्व बैंक की स्थापना उन्नीस सौ चौवालीस में माउंट वॉशिंगटन होटल, ब्रेटन वुड्स, न्यू हैंपशायर अमेरिका में हुई। कमाल की बात ये है कि विश्व बैंक की स्थापना के मुख्य उद्देश्यों में ही ये है कि विकासशील देशों को उनकी जरूरत के लिहाज से कर्ज देना। इसी समय इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की भी स्थापना हुई। इससे भी ज्यादा कमाल की बात ये है कि विकासशील देशों को उनकी जरूरत के लिहाज से कर्ज देने के कार्यक्रम का पूरा जिम्मा अमेरिकियों पर ही थी। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष दोनों ही संस्थाओं का मुख्यालय वॉशिंगटन में ही है। विश्व बैंक के अब तक के सारे ही अध्यक्ष अमेरिकी रहे हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दरअसल विश्व बैंक किसके हितों की रक्षा की कोशिश करता रहा होगा। इसीलिए ब्रिक्स देशों के संगठन न्यू डेवलपमेंट बैंक या ब्रिक्स बैंक का महत्व समझना जरूरी है। इस बैंक की स्थापना करने वाले पांचों देश इसमें बराबर के सहयोगी हैं। यानी किसी देश या सदस्य के पास किसी तरह का वीटो पावर नहीं है। जैसा कि पश्चिम या सीधे कहें कि अमेरिकी, यूरोपीय मानसिकता से चलने वाली संस्थाओं में होता है। न्यू डेवलपमेंट बैंक पूरी तरह से विकासशील देशों का बैंक है जो, विकासशील देशों की जरूरतों के लिहाज से वित्त उपलब्ध कराएगा। ये ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाता है कि यहीं ब्रिक्स के पांच देश हैं जो, दुनिया की चालीस प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या वाले देश हैं। और ये आबादी होती है तीन अरब से ज्यादा। इन देशों को अगर क्षेत्रफल के लिहाज से भी देखा जाए तो, ये देश दुनिया की एक तिहाई जमीन पर काबिज हैं। और, इन पांच देशों की जीडीपी जोड़ दी जाए तो दुनिया की जीडीपी का एक तिहाई सिर्फ ब्रिक्स देश ही हैं। फिर भी दुनिया को चलाने का काम अमेरिका और यूरोप कर रहा था। अमेरिका की अगुवाई में पश्चिम तय करता था कि पूरब के हिस्से में दुनिया के सूरज की रोशनी कितना मिलेगी। इस नए संगठन की एक सबसे बड़ी खूबसूरती मैं ये समझता हूं कि ब्रिक्स देशों का ये संगठन दुनिया में सही मायने में संतुलन लाने में मददगार होगा। भारत और चीन दोनों के बीच के तनावपूर्ण संबंध कम करने में भी ये संगठन मददगार हो रहा है। दोनों दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। चीन लगातार दस प्रतिशत तरक्की वाला देश लंबे समय तक रहा। अब जब चीन की तरक्की की रफ्तार लुढ़कती दिख रही है तो, भारत उस कमी को पूरा करता दिख रहा है। और आने वाले सालों में भारत दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार को आसानी से लंबे समय के लिए हासिल करता दिख रहा है। यानी, बाजार की ताकत का बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों देशों के इर्द गिर्द घूमता है। ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका उस बाजार की ताकत को पूरा करते हैं। और अमेरिकी अतिक्रमण का शिकार रूस नए सिरे से दुनिया की संरचना बदलने में मददगार होता दिख रहा है। भारत और चीन के बीच इस संगठन की वजह से संतुलन कितना ज्यादा है। इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि न्यू डेवलपमेंट बैंक का मुख्यालय शंघाई में है और इसका पहला अध्यक्ष एक भारतीय है। भारत में निजी बैंकों के लिए रास्ता बनाने वाले या कहें कि आधुनिक बैंकिंग सिस्टम को मजबूत करने वाले आईसीआईसीआई बैंक के पूर्व प्रमुख के वी कामत अब न्यू डेवलपमेंट बैंक के अध्यक्ष के तौर पर शंघाई में हैं।  


ऑस्ट्रेलिया के रेडियो एसबीएस हिंदी से इसी विषय पर बातचीत करते हुए मैंने इसी बात पर जोर दिया कि सारा फर्क समझ का है। के वी कीमत ने न्यू डेवलपमेंट बैंक के अध्यक्ष के तौर पर सबसे पहली जो बात कही। वही सारा फर्क पैदा कर देती है। के वी कामत ने साफ कहा कि ब्रिक्स देशों का ये बैंक कर्ज देने वाले के लिए नहीं कर्ज लेने वाले के लिए काम करेगा। मतलब ये कि वो साफ कह रहे हैं कि न्यू डेवलपमेंट बैंक की प्राथमिकता विश्व बैंक के उलट होगी। क्योंकि, विश्व बैंक काम ही कर्ज देने वालों के हितों की सुरक्षा के लिए करता था। अब न्यू डेवलपमेंट बैंक कर्ज लेने वालों के हित की सुरक्षा करेगा। ये बहुत बड़ा फर्क है। क्योंकि, अगर कर्ज देने वालों के हित की बात की जाएगी तो, जाहिर है कि कर्ज भले लंबे समय तक चले, ब्याज आता रहे। इस पर जोर होगा। जबकि, कर्ज लेने वालों के हित की बात होगी तो, कर्ज जिसको दिया गया है वो, अपने प्रोजेक्ट समय पर पूरा करने के साथ समय से कर्ज वापस कर सके। इस पर जोर होगा। इसका सीधा सा मतलब है कि न्यू डेवलपमेंट बैंक विकासशील देशों के विकसित देश बनने तक की यात्रा आसान करने में मदद करेगा। सूरज पूरब से निकलता है। ये अब कहावत भर या एक प्राकृतिक सच्चाई भर नहीं है। ये दुनिया की नई हकीकत है। 

Monday, July 20, 2015

कमजोर बुनियाद पर खड़ी भारत की उच्च शिक्षा

आईआईटी रुड़की से तिहत्तर छात्रों को निकालने की खबर आई तो लगा कि कोई संस्थान ये कैसे कर सकता है। बीटेक के पहले साल में ही तिहत्तर बच्चों को निकालने की खबर के बाद हर किसी को छात्रों के साथ सहानुभूति हो गई। सोशल मीडिया से लेकर लोगों के बीच से दबाव बनने लगा कि छात्रों को मौका देना चाहिए। इस तरह से तो उनका भविष्य खराब हो जाएगा। लेकिन, इन तिहत्तर छात्रों का भविष्य बनाने की चिंता किस तरह से पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था की चिंता को और बढ़ाएगी, इस पर शायद ही किसी का ध्यान जा रहा हो। या फिर कोई बहस हो रही है। सबसे पहले तो ये कि आखिर इन तिहत्तर छात्रों को बीटेक पहले साल की परीक्षा की नौबत क्यों आई। उसका जवाब ये है कि इन छात्रों ने पहले साल पांच सीजीपीए से भी कम नंबर हासिल किए हैं। आईआईटी रुड़की ने इसी आधार पर छात्रों को बाहर करने का नोटिस भेज दिया। ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी आईआईटी में छात्रों को खराब प्रदर्शन की वजह से निकाला नहीं गया है। लेकिन, बाद में उन्हें वापस ले लिया गया। मुझे लगता है कि यही छात्रों को वापस लेना भारतीय शिक्षा व्यवस्था की चिंता की सबसे बड़ी वजह बनते हैं। कमाल की बात तो ये है कि भारतीय शिक्षा संस्थानों के दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों की सूची में न होने पर शर्म करने वाली भी वही हैं। और छात्रों को आरक्षण के आधार पर आईआईटी, मेडिकल में दाखिला दिलाने की पैरवी करने वाले भी वही हैं। दुनिया भर में बेहतर संस्थानों की सूची जब आती है तो, उसमें गलती से एकाध संस्थान भारत के आ जाएं तो बड़ी बात होती है। हर बार उसी समय बड़ा सपना देखा जाता है। बड़े लेख भी आते हैं। बड़ा विचार होता है। फिर से स्थगित कर दिया जाता है अगले साल सूची आने और उस पर स्यापा करने के लिए। किसी भी समाज में कमजोर तबके को दूसरे तबकों के बराबर लाने के लिए आरक्षण जरूरी होता है। भारत में भी है। लेकिन, किसी भी समाज को कमजोर करने के लिए आरक्षण का इस्तेमाल बेहद खतरनाक है। और इसीलिए आरक्षित हो या अनारक्षित, अगर छात्र तय नंबर से कम पा रहा है तो, उसे देश के उन शिक्षा संस्थानों में पढ़ने का मौका नहीं मिलना चाहिए, जिससे देश निर्माण का महत्वपूर्ण जिम्मा है। सामान्य वर्ग या आरक्षित वर्ग का छात्र अगर किसी तरह से आईआईटी, पीएमटी या आईआईएम की प्रवेश परीक्षा पास करके ये समझ लेता है कि अब ये संस्थान की महती जिम्मेदारी है कि वो उसे किसी भी तरह से अगले दो-तीन-चार सालों में डिग्री देकर ससम्मान विदा करे।

जाहिर है इस तरह डिग्री हासिल कर निकलने वाले छात्र न तो शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी कर सकते हैं। और न इस शिक्षा को पाने के बाद भारत निर्माण में बेहतर योगदान कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि आईआईटी रुड़की के तिहत्तर छात्रों को निकालने के फैसले को वापस लेने का दबाव न बने। बल्कि, इस बात का दबाव बने कि आखिर क्या वजह है कि आईआईटी रुड़की में दाखिला पाने वाले छात्र पांच सीजीपीए भी हासिल नहीं कर सके। और वो भी एक साल की आईआईटी रुड़की की शिक्षा के बाद। यानी शिक्षक और छात्र दोनों की ये समस्या है। और ये समस्या और गंभीर होती दिख रही है। इस चुनौती की वजह ये है कि देश की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में गिरावट होती जा रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए मेरिट आती है तो, लगता है जैसे देश में स्कूली शिक्षा से निकलने वाले बच्चे बेहद होनहार हैं। पंचानबे प्रतिशत के नीचे तो कोई मेरिट शुरू ही नहीं होती है। कई नामी कॉलेजों में ये मेरिट अट्ठानबे-निन्यानबे प्रतिशत तक होती है। लेकिन, ये एक पहलू है। अब जरा दूसरा पहली देखिए। आईआईटी में दाखिले के लिए जो ताजा मेरिट है, वो चौंकाने वाली है। जेईई के परीक्षा में सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों की मेरिट लिस्ट इस साल चौबीस दशमलव पांच प्रतिशत रही है। यानी पांच सौ चार नंबर में से सिर्फ एक सौ चौबीस नंबर। ये सामान्य वर्ग की मेरिट है। ओबीसी की मेरिट इससे थोड़ा सा ही कम करीब बाइस प्रतिशत है। हालांकि, पिछले साल से ये दोनों मेरिट कम है। पिछले साल सामान्य वर्ग की मेरिट पैंतीस प्रतिशत तक गई थी। जबकि, ओबीसी की इकतीस प्रतिशत। ये आंकड़े ही हमें निराश करने लगते हैं। और असल स्थिति बताते हैं हमारी स्कूल शिक्षा व्यवस्था की। लेकिन, इसके बाद के आंकड़े तो निराशा में और गहरे डुबो देते हैं। अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों की मेरिट इस बार साढ़े बारह प्रतिशत रही है। जो, पिछले साल साढ़े सत्रह प्रतिशत थी। इतने तक ही गिरावट नहीं रुकती है। देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठिक आईआईटी संस्थानों को अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों को पांच सौ चार में से सिर्फ 31 नंबर लाने वाले बच्चों को भी दाखिला देना होगा। क्योंकि, सीटें खाली रह जाएंगी। ये करीब छे प्रतिशत है। पिछले साल कम से कम मेरिट भी करीब नौ प्रतिशत थी। ये वो सीटें हैं जिनमें एक साल बच्चों को तैयार किया जाएगा। उसके बाद बीटेक में दाखिला दिया जाएगा। मेरिट में ये गिरावट तब है जब आईआईटी में दाखिले के लिए ये भी जरूरी शर्त है कि जेईई एडवांस्ड की प्रवेश परीक्षा पास करने वाले छात्र के इंटरमीडिएट (बारहवीं) में कम से कम पचहत्तर प्रतिशत नंबर हों। और इस पैमाने की वजह से भी इकतीस छात्रों को प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद भी दाखिला नहीं मिल सका है।

भारतीय स्कूल शिक्षा व्यवस्था की खामी का ये अद्भुत उदाहरण है। सरकारों को इस बारे में सोचना होगा कि आखिर वो कैसे इस गुणवत्ता असंतुलन को दूर कर सकते हैं। इसका शुरुआत आईआईटी रुड़की के तिहत्तर छात्रों को एक साल की तैयारी का मौका देकर किया जा सकता है। लेकिन, उसमें शर्त कड़ी होनी चाहिए कि अगर तय पर्सेंटाइल नहीं आया तो, उसे दोबारा आईआईटी में दाखिला नहीं मिलेगा। लेकिन, लंबे समय की योजना में केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों को अपने बोर्ड की स्कूली शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता ठीक करने की जरूरत है। वैसे भी सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड के अलावा दूसरे राज्य शिक्षा बोर्ड के प्रदर्शन में बेहतरी होने की बजाए गिरावट ही देखने को मिल रही है। और इसकी सबसे बड़ी वजह राज्यों में दसवीं-बारहवीं के नतीजे के राजनीतिक नफा-नुकसान से जुड़ जाना रहा है। उत्तर प्रदेश में नकल विरोधी अध्यादेश भी बीजेपी सरकार के दोबारा न आने में काफी मददगार रहा है। सपुस्तकीय परीक्षा प्रणाली और राज्यों में कुंजी-गाइड सिस्टम से दसवीं-बारहवीं पास करने वाले बच्चे कैसे आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए आईआईटी रुड़की के तिहत्तर छात्रों के खराब प्रदर्शन और उस आधार पर इन्हें निकालने को सिर्फ तिहत्तर छात्र और आईआईटी रुड़की के बीच का समस्या समझने के बजाए पूरी भारतीय स्कूली शिक्षा व्यवस्था की समस्या के तौर पर देखना होगा। तभी शायद इस तरह की बेहद असहज स्थिति से हमारे प्रमुख शिक्षा संस्थान बच सकेंगे। 

Saturday, July 18, 2015

ये बड़े कलाकार हैं!

 बहस अच्छी होती है। और गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई का चेयरमैन बनाने के सरकार के फैसले पर हो रही बहस के बाद तो ये और भी साबित हो गया है। गजेंद्र चौहान को चेयरमैन बनाना चाहिआ या नहीं बनाना चाहिए। छात्रों के, फिल्म जगत के बड़े-बड़े लोगों के इतने विरोध के बाद गजेंद्र चौहान को पद पर बने रहना चाहिए या नहीं। ये सारी बहस होती रहे। लेकिन, इस बहस में एक बात जो निकलकर आई है। उस पर बात होनी बड़ी जरूरी है। बार-बार जब भी देश के प्रतिष्ठित संस्थानों की बात होती है। तो, साथ में ये बात जरूर होती है कि देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में मैनेजर, डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के लिए सरकार कितनी रकम खर्च करती है। और क्या जनता के टैक्स की रकम में से खर्च की गई उस रकम से तैयार छात्र देश को कितना वापस दे पाते हैं। बहस ये भी होती है कि आईआईएम से निकले मैनेजर, देश के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेजों से पढ़कर निकले डॉक्टर या फिर देश की प्रतिष्ठित आईआईटी से निकले इंजीनियर देश का कितना भला करते हैं। और वो लोगों की गाढ़ी कमाई से उनकी शिक्षा को दी गई सब्सिडी का कितना हिस्सा लोगों की सेवा करके फिर से उनको लौटाते हैं। बहस बार-बार ये होती रहती है कि आईआईएम से पढ़कर करोड़ो की सैलरी लेकर छात्र एमएनसी कंपनी की सेवा करता है या फिर विदेशों में जाकर नौकरी करते हैं। डॉक्टरों पर आरोप लगता है कि वो लोगों से महंगी फीस लेते हैं। महंगी दवाएं लिखते हैं। आखिर ये सब बहस क्यों होती। दरअसल ये सब बहस इसी आधार पर होती है कि वो जो पढ़ाई करके निकलते हैं, उस पढ़ाई के लिए सरकार जितनी बड़ी रकम खर्च करती है। वो, टैक्स की रकम का बड़ा हिस्सा होती है।
उदाहरण के लिए आईआईटी में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले एक छात्र पर सरकार सालाना करीब साढ़े तीन लाख रुपये खर्च करती है। ये उस छात्र की दी गई फीस के ऊपर खर्च होने वाली रकम है। ऐसे ही एक छात्र जब डॉक्टर बन रहा होता है तो, सरकार एक छात्र पर सालाना छे लाख रुपये से ज्यादा खर्च करती है। जबकि, देश के सबसे प्रतिष्ठित प्रबंध संस्थान आईआईएम से पढ़कर निकलने वाले एक छात्र को बढ़िया प्रबंधक बनाने के लिए सरकार सालाना पांच लाख रुपये से ज्यादा खर्च करती है। इसीलिए ये बहस होती है कि आखिर देश के इन सबसे बेहतरनी संस्थानों से निकलने वाले छात्र देश के निर्माण में किस तरह से योगदान कर रहे हैं। बहस ये भी होती है कि आखिर अगर यहां से पढ़कर निकलने के बाद ये निजी संपत्ति बढ़ाने के ही काम में लग जाते हैं तो, क्या इतनी रकम इनके ऊपर खर्च करना जायज है। लेकिन, अगर इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए ये पूछा जाए कि देश के सबसे प्रतिष्ठित कलाकार तैयार करने वाले संस्थान एफटीआईआई से निकले छात्रों का देश निर्माण में क्या योगदान है। इस सवाल पर शायद बहुतायत लोग सीना तानकर खड़े हो जाएंगे कि ये कैसी बहस है। लोकतंत्र में सरकार की जिम्मेदारी है कि कला को, कलाकार को पूरा सम्मान दिया जाए। लेकिन, यहां कलाकारों को, कला को सम्मान देने, उसे बढ़ाने पर तो कोई बहस मैं कर ही नहीं रहा। मैं तो बहस कर रहा हूं कि एफटीआईआई पुणे से निकले कलाकारों का देश के सिनेमा को आगे बढ़ाने में कितना योगदान है। अगर बड़े-बड़े कलाकारों के नाम गिनाकर इसका जवाब आ रहा है तो, किसी भी आईआईएम, आईआईटी या मेडिकल कॉलेज से निकले प्रोफेशनल के बड़े-बड़े नाम गिनाए जो सकते हैं। फिर ये बहस क्यों हो। सवाल ये भी है कि मैं आखिर एफटीआईआई पर ही ये बहस क्यों कर रहा हूं। दरअसल एफटीआईआई पर ये बहस में इसलिए कर रहा हूं कि देश प्रतिष्ठित आईआईएम, आईआईटी या फिर मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों से कहीं ज्यादा खर्च सरकार कलाकार तैयार करने में कर रही है। और ये खर्च भी जनता की गाढ़ी कमाई से ही सरकार कर पा रही है। चौंका देने वाला आंकड़ा ये है कि एफटीआईआई में पढ़ने वाले एक छात्र पर सरकार सालाना बारह लाख रुपये खर्च करती है। एफटीआईआई में साढ़े तीन सौ छात्र पढ़ते हैं। अब इस खर्च की तुलना अगर आईआईटी के छात्र से करें तो, ये करीब तीन गुना ज्यादा होता है। आईआईएम के छात्र पर सरकार के खर्च से दोगुने से भी ज्यादा और मेडिकल छात्र पर सालाना हो रहे खर्च से ठीक दोगुना है।
एफटीआईआई के छात्रों पर हो रहे खर्च की इस बहस में ये कुछ और तथ्य जोड़ने पर तो ये और भी रोचक हो जाती है। आईआईएम, आईआईटी या फिर किसी मेडिकल कॉलेज में हड़ताल की खबर कब आती है। क्योंकि, वहां के छात्र शायद ही हड़ताल करने की सोचते भी हों। लेकिन, एफटीआईआई में तैयार हो रहा हर कलाकार जैसे हड़ताल के लिए ही तैयार हो रहा होता है। गजेंद्र चौहान की काबिलियत की चर्चा इस बहस के केंद्र में नहीं है। इसलिए गजेंद्र की नियुक्ति के खिलाफ हो रही एफटीआईआई के छात्रों की इस समय की हड़ताल भी बहस में नहीं है। लेकिन, एफटीआईआई के पचास सालों में उन्तालीस से ज्यादा बार हड़ताल हो चुकी है। इसलिए ये बहस जरूरी हो जाती है कि आखिर एफटीआईआई क्या तैयार कर रहा है और किसके लिए तैयार कर रहा है।

Thursday, July 16, 2015

संघ को बदनाम करने की साजिश

@RSSorg @PMOIndia @BJP4India इस रिपोर्ट को जरूर को देखें। ये फ्रांस के न्यूज चैनल @FRANCE24 पर शनिवार को आने वाली रिपोर्ट का प्रोमो है। ये रिपोर्ट दिल्ली, बेरुत, वॉशिंगटन और लंडन में भी दिखेगी। रिपोर्ट है Forced to pray in secret - Christians in India इस प्रोमो को ही देखकर लगता है कि संघ और बीजेपी हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए इसाइयों पर इतना दमन कर रहे हैं कि वो ईसामसीह को चर्च में याद करने के बजाए घर में ही याद करते हैं। प्रोमो में जब इतना कुछ है तो, पूरी रिपोर्ट के बारे में आसानी से समझा जा सकता है। जबकि, अभी तक किसी भी चर्च पर हुए हमले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बीजेपी या किसी दक्षिणपंथी संगठन का नाम दूर-दूर तक नहीं आया है। ऐसे में भारत चर्चों पर हुए हमले, चोरी की घटनाओं को संघ, बीजेपी से जोड़कर भारत की छवि खराब करने की ये बड़ी कोशिश है। ये एक घटना मेरी नजर में आई। ऐसी जाने कितनी कोशिशें, साजिशें चल रही होंगी। 

धरातल पर उतरता मेक इन इंडिया

मेक इन इंडिया का बेहतर असर हो रहा है। मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत के बाद भारत में एफडीआई अड़तालीस प्रतिशत बढ़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल सितंबर में मेक इन इंडिया अभियान शुरू किया था। तब से अप्रैल तक के आंकड़े बता रहे हैं कि विदेशी निवेशकों को ये मेक इन इंडिया खूब लुभा रहा है। इसकी गवाही दे रहा है आजकल अखबारों और दूसरे जरिए से आ रहा बीएमडब्ल्यू का बड़ा सा विज्ञापन। ये विज्ञापन बीएमडब्ल्यू के मेक इन इंडिया अभियान में शामिल होने का खबर दे रहा है। इस खबर के साथ अच्छी खबर ये भी कि अब चेन्नई के नए प्लांट में बनेंगी बीएमडब्ल्यू कारें। कंपनी ने मेक इन इंडिया कारों की कीमत कम होने का विज्ञापन दिया है। विज्ञापन कह रहा है कि जर्मन तकनीक का नया घर भारत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेक इन इंडिया असर करता दिख रहा है। सही समय पर ये अभियान प्रधानमंत्री ने शुरू किया है। ये समय है जब दुनिया भर में बड़ी-बड़ी कंपनियां खुद का मुनाफा बचाने के लिए जूझ रही हैं। यही वजह है कि जब ऐसे मौके पर दुनिया के सबसे ज्यादा संभावना वाले देश भारत के प्रधानमंत्री ने उनके लिए और मौके मेक इन इंडिया अभियान के साथ दिखाए तो, वो खुद को रोक नहीं पा रहे हैं। और ये मौके सिर्फ विदेशी कंपनियों को भारत में बुलाने के लिए नहीं है। ये मौका उन भारतीय कंपनियों को भी बड़े मौके की तरह दिख रहा है जो, यूपीए 2 में नीतियों में स्पष्टता न होने और स्थिरता की वजह से विदेशों में मौके तलाशने लगी थीं। अच्छी बात ये है कि रक्षा, ऑटो, स्मार्टफोन, पीसी बनाने वाली कंपनियां सबसे ज्यादा इस मौके को भुनाना चाह रही हैं। और ये साफ दिख रहा है कि मेक इन इंडिया की कामयाबी का बड़ा फायदा सिर्फ सरकार को नहीं भारतीय ग्राहकों को भी जमकर मिलने वाला है।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी नए सिरे से मेड इन चाइना अभियान शुरू किया है। कहीं न कहीं इस अभियान के पीछे मेक इन इंडिया अभियान से चीन का हिस्सा घटने का डर भी है। लेकिन, मुनाफा देखने वाली कंपनी वहीं जाएगी जहां उसे मुनाफा मिलेगा। इसी सिद्धांत पर चीन दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बन गया। अब वही कोशिश भारत कर रहा है। इसका असर भी दिख रहा है। चीन की कंपनी अपने वीवो स्मार्टफोन अब भारत में ही असेंबल करके बेचेगी। अक्टूबर से कंपनी की असेंबलिंग यहां शुरू हो जाएगी। अब तक ज्यादातर मोबाइल फोन सीधे चीन से ही बनकर भारत आते रहे हैं। यहां तक कि एप्पल और सैमसंग मोबाइल भी ज्यादातर मेड इन चाइना होते हैं। देसी कंपनियां माइक्रोमैक्स और कार्बन के स्मार्टफोन भी मेड इन चाइना ही होते हैं। लेकिन, अब आप जल्द ही मेड इन इंडिया स्मार्टफोन इस्तेमाल कर सकेंगे। स्मार्टफोन बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी फॉक्सकॉन भारत में दस से बारह मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने वाली है। ये सभी इकाइयां 2020 तक काम करने लगेंगी। भारत की आयात नीति में बदलाव के बाद फॉक्सकॉन ने एलान किया है कि वो भारत में 2 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी। फॉक्सकॉन एप्पल आईफोन और आईपैड बनाने के लिए दुनिया भर में मशहूर है। स्मार्टफोन बनाने के मामले में भारत में मेक इन इंडिया के जोर पकड़ने के एक और संकेत हैं। पिछले साल जून महीने से इस साल जून महीने में सेमी नॉक्ड डिवाइसेज का आयात चौंसठ प्रतिशत बढ़ गया है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि अब पहले से इतना ही ज्यादा मोबाइल फोन भारत में असेंबल किए जा रहे हैं। सैमसंग और माइक्रोमैक्स ने जून महीने में 69 लाख सेमी नॉक्ड डिवाइसेज आयात किए हैं। इंटेक्स, लावा और कार्बन मोबाइल कंपनियां भी अब धीरे-धीरे भारत में ही स्मार्टफोन असेंबलिंग कर रही हैं। अभी तक ये कंपनियां पूरा फोन ही चीन से बनवाकर आयात करती रही हैं। कार्बन कंपनी तो अगले साल भर में नोएडा, बंगलुरू में असेंबली लाइन और हैदराबाद में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने की तैयारी कर चुकी है। लेनोवो और सोनी भी अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट भारत में लगाने जा रहे हैं। सेलकॉन की हैदराबाद मैन्युफैक्चरिंग यूनिट से तो फोन बनना भी शुरू हो गया है। एचटीसी भी अब अपने मोबाइल भारत में ही बनाएगी। यानी भले ही आपके हाथ में आने वाले दिनों में किसी भी कंपनी का स्मार्टफोन हो लेकिन, वो दरअसल मेड इन इंडिया ही होगा। मेक इन इंडिया में सिर्फ स्मार्टफोन कंपनियों को ही मौका है। ऐसा नहीं है। पीसी, लैपटॉप बनाने वाली कंपनी डेल चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा डेल के पीसी, लैपटॉप भारत से ही निर्यात कि जाएं। यानी मेड इन इंडिया पीसी, लैपटॉप दुनिया भर में बिकेगा।


बीएमडब्ल्यू साफ बता रही है कि भारत में ही कार बनाने की वजह से कार कंपनी अपनी कारों की कीमत कम कर रही है। लेकिन, दूसरी कार कंपनियां पहले से ही भारत में हैं। अब वो भारत के प्लांट से ही कारें बनाकर दुनिया भर में बेचना चाह रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेक इन इंडिया इन कार कंपनियों के लिए सोने पर सुहागा जैसा है। यूरोपीय कंपनी एयरबस के सीईओ बर्नहार्ड जरवर्ट ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात की। मुलाकात का मकसद सरकार के मेक इन इंडिया अभियान में शामिल होकर इस मौके का फायदा उठाना है। एयरबस डिफेंस और स्पेस क्षेत्र में मेक इन इंडिया अभियान में शामिल होना चाहता है। एयरबस महिंद्रा के साथ मिलकर सेना के लिए हेलीकॉप्टर बनाएगा। सरकार को इस बात का भी अच्छे से अंदाजा है कि मेक इन इंडिया का ज्यादा फायदा विदेशी कंपनियों को ही न मिल जाए। इसीलिए रक्षा क्षेत्र में सरकार ने 56 भारतीय कंपनियों को लाइसेंस दिए हैं। यूपीए सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में इतने लाइसेंस नहीं दिए थे। मेक इन इंडिया अभियान मौके पर चौका मारने जैसा है। लेकिन, एक बड़ी सावधानी जरूर सरकार को रखनी होगी। और वो सावधानी है भ्रष्टाचार मुक्त मेक इन इंडिया। क्योंकि, अभी के हाल में एक छोटा सा धब्बा भी पूरे मेक इन इंडिया को मुश्किल में डाल सकता है। 

Tuesday, July 14, 2015

दो तस्वीरों में दिखता धर्मनिरपेक्षता का सच

असली तस्वीर
नकली तस्वीर
@narendramodi @PMOIndia ध्यान दें। ये दो तस्वीरें हैं। पहली असली तस्वीर है। दूसरी आधुनिक तकनीक का कमाल है। सवाल ये बिल्कुल नहीं है कि इबादत के वक्त मोदी के हाथ बंधे थे या हथेलियां खुली हुईँ थीं। लेकिन, ये खतरनाक सवाल है कि किसको इस तरह के फर्जीवाड़े से फायदा हो रहा है। नरेंद्र मोदी का मैं प्रशंसक इसलिए हूं कि वो जैसे हैं, वैसे रहते, दिखते हैं। और उन्हें छवि में बांधने की कोशिश वो हर बार तोड़ते हैं। अंधभक्तों के लिए भी एक सलाह है कि जिसकी अंधभक्ति रखो, उस पर भरोसा तो रखो। दोनों पक्ष उबल रहे हैं। दरअसल बड़ा छद्म धर्मनिरपेक्ष वर्ग है जिसकी दुकान पुरी तरह से खत्म होती दिख रही है। बहुतायत खत्म हो भी गई है। लालू प्रसाद यादव जब कभी धर्मनिरपेक्षता के लिए जहर पीने, जान देने जैसी बातें करते हैं तो, दरअसल वो वही लक्षण हैं। बड़ा वर्ग है जिसको लगता है कि किसी तरह नरेंद्र मोदी के सिर पर टोपी पहना दो जिससे हिंदू मोदी को दुश्मन मान ले। जिससे फिर ये साबित हो जाए कि सत्ता के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब यही होता है। जिससे ये साबित हो जाए कि मोदी हिंदू-हिंदू या विकास-विकास बस सत्ता तक के लिए ही चिल्ला रहे थे। जिससे ये भी साबित हो जाए कि नरेंद्र मोदी भारत का सर्वधर्म समभाव वाला ढांचा तोड़कर टोपी पहनकर दिखावा कर रहे हैं। राजनीति खत्म होते उस बड़े वर्ग की मुश्किल यही है कि प्रधानमंत्री के तौर पर भी नरेंद्र मोदी उन्हें वो मौका नहीं दे रहे हैं। जिससे ये साबित हो सके कि मोदी के खाने और दिखाने वाले दांत अलग हैं। ये सारी कवायद वही वर्ग कर रहा है। ये तस्वीरें उसी धर्मनिरपेक्ष ताकतों की साजिश हैं। हिंदू भी इसे समझे और मुसलमान के लिए समझना तो बेहद जरूरी। ज्यादा नुकसान तो ये मुसलमान का ही कर रहे हैं।

Monday, July 13, 2015

भारत-पाकिस्तान रिश्ता, उबले आलू जैसा

तेरह साल की अबीहा ने दिल्ली के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। बीमार अबीहा के इलाज के लिए उसके पिता हामिद इमरान उसे लेकर पाकिस्तान से भारत आए थे। अबीहा नहीं बची लेकिन, भारत-पाकिस्तान के बीच का दबा प्यार हामिद इमरान के लिए और बढ़ गया। इमरान को भारत में इलाज कराने का रास्ता भी उनके स्कूल के जरिए आया जो, सरदार चेत सिंह कोहली ने 1910 में पाकिस्तान के चकवाल में बनवाया था। इसी स्कूल से पढ़े एक भारतीय साथी की वजह से हामिद इमरान अपनी बच्ची अबीहा को भारत इलाज के लिए लेकर आए। अबीहा भारत से बहुत प्यार करती थी। उसने अपनी डायरी में भारत के बारे में काफी कुछ लिख छोड़ा है। और यही प्यार है कि भारत में बच्ची की मौत होने के बावजूद हामिद इमरान ने पाकिस्तान लौटकर वहां के अखबार डॉन में लिखा – मैं अपनी बच्ची की अचानक मौत का दर्द भूल नहीं सकता। लेकिन, उसी तरह भारत में मिले प्यार को भी मैं कभी नहीं भूल सकता। इंटरनेट पर ये कहानी खूब पढ़ी जा रही है। ये छोटी सी कहानी भारत-पाकिस्तान की जुड़ी गर्भनाल की कहानी कह देती है। ये गर्भनाल इस कदर जुड़ी हुई है कि जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो, उन्होंने सबको चौंकाते हुए पाकिस्तान के वजीरे आला नवाज शरीफ को शपथ ग्रहण समारोह का न्योता भेज दिया। उसके बाद ढेर सारे भावनात्मक कदम आगे बढ़ने के बीच लगातार दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता रहा। इस तरीके से कि पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने कह दिया कि परमाणु बम हमने इन्हीं मौकों पर इस्तेमाल करने के लिए बनाया हुआ है। उसके जवाब में भारतीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने बड़े सलीके से कहा कि हमें अपनी सीमा की रक्षा बखूबी करनी आती है। इसके बाद लगा कि अब तो बस दोनों देशों की सेनाएं पूरी तैयारी में जुट जाएंगी। और युद्ध का समय आ गया है। वैसे भी नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ये गलत धारणा पूरी तरह से स्थापित करने की कोशिश बार-बार होती है कि हिंदुओं के अलावा हिंदुस्तान में किसी को रहने नहीं दिया जाएगा। और मुसलमान देश होने की वजह से पाकिस्तान से आज नहीं तो कल लड़ाई होना पक्का है। लेकिन, हर बार की तरह इस बार भी नरेंद्र मोदी अनुमानों के उलट व्यवहार कर बैठे।


ब्रिक्स देशों की बैठक में शामिल होने गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस के ऊफा शहर में थे। वहां शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की बैठक में उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बात की बल्कि, इस्लामाबाद जाने का निमंत्रण भी स्वीकार कर लिया। चीन की पहल पर बने शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को चीन ने स्थाई सदस्यता दी है। हालांकि, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पाकिस्तान दौरा वहां के कट्टरपंथियों के लिए पचाना संभव नहीं होगा। भारत में जो कट्टरपंथी हैं वो प्रधानमंत्री की निंदा करेंगे। सबसे बड़ी बात ये कि पहली बार ये हुआ है कि इस बार की बातचीत में कश्मीर की शर्त बाधा के तौर पर नहीं रखी गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पहल और नवाज शरीफ के इस पहल को हाथ बढ़ाकर स्वीकारने को चीन दोनों हाथ में लड्डू वाले भाव से देख रहा है। हालांकि, चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करके भारत पर दबाव बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा। लेकिन, बड़ी सच्चाई ये भी है कि आर्थिक तरक्की बनाए रखने के लिए अब चीन को भारत का सहयोग चाहिए ही चाहिए। चीन की चमत्कारिक तरक्की की रफ्तार ढलान वाला रास्ता पकड़ चुकी है। जबकि, भारत की तरक्की की रफ्तार अब ऊंचाई के रास्ते पर फिर तेजी से चढ़ने लगी है। ये अनुमान दुनिया भर की एजेंसियां बता रही हैं। चीन साढ़े छे प्रतिशत के नीचे लुढ़कता दिख रहा है। जबकि, भारत साढ़े सात प्रतिशत के ऊपर की तरफ। ये संदर्भ तथ्य है जिसकी वजह से चीन, भारत और पाकिस्तान दोनों के बीच रिश्तों का संतुलन बनाना चाह रहा है। यही वजह है कि चीन की अधिकारिक न्यूज एजेंसी शिनहुआ पर लिखा जाता है कि ये दोनों देशों की बड़ी उपलब्धि है। और ये भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शांति के रास्ते पर आगे बढ़ने को दिखाता है जो, भरोसा उन्होंने पिछले साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र संघ में दिया था। हालांकि, नरेंद्र मोदी के लिए ये रास्ता आसान नहीं होगा। क्योंकि, कांग्रेस और विपक्ष ने प्रधानमंत्री पर तीखे हमले बोल दिए हैं। कांग्रेस का कहना है कि सीमा पर सैनिक मारे जा रहे हैं और प्रधानमंत्री ट्रैक टू डिप्लोमेसी कर रहे हैं। कमाल की बात ये है कि ठीक यही आरोप पाकिस्तान में नवाज शरीफ पर भी लग रहे हैं। भारत में विपक्ष कह रहा है कि नरेंद्र मोदी झुक गए। जबकि, पाकिस्तान में विपक्ष हल्ला कर रहा है कि नवाज शरीफ ने ऊफा में मोदी से मुलाकात करके, उन्हें पाकिस्तान आने का न्योता देकर और कश्मीर को बातचीत में न शामिल करके पाकिस्तान की अवाम का अपमान किया है। कमाल ये है कि नवाज के अपमान से पूरा पाकिस्तानी विपक्ष उबल रहा है और इधर यही हाल भारतीय विपक्ष का है। इसलिए इस बातचीत से ऐसा न मान लिया जाए कि सब सही हो रहा है। अभी लगातार बाधा दौड़ नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ को दौड़नी पड़ेगी। ऐसा ही नजारा भारतीय टीवी चैनलों पर हो रही बहसों में भी दिखता है। अच्छी बात ये है कि अब टीआरपी की दौड़ की वजह से ही या ज्यादा निष्पक्ष दिखने की दौड़ की वजह से भारतीय न्यूज चैनल पाकिस्तानी न्यूज चैनलों के साथ साधा लाइव कार्यक्रम कर रहे हैं। दोनों तरफ के एंकर मध्यस्थ की भूमिका में होते हैं और दोनों तरफ के विश्लेषक इस तरह से बात कर रहे होते हैं कि लगता है कि बस इन्हीं की बात सही है। और उसमें भी जो भारतीय या पाकिस्तानी सेना के पूर्व अधिकारी होते हैं वो तो कभी-कभी इस कदर जोश में आ जाते हैं कि लगता है कि रिटायरमेंट से वापस लौटकर सीमा पर जाकर दे दनादन शुरू कर देंगे। लेकिन, इन बहसों से काफी कुछ साफ होता है। क्योंकि, बातचीत करते पक्षपाती होकर की गई बात और निष्पक्ष होकर की गई दोनों पक्षों की बात साफ समझ में आ जाती है। अब पता नहीं पाकिस्तान के न्यूज चैनल उस पूरी बहस को वहां भी ऐसे ही लाइव दिखाते हैं या नहीं। अच्छा हो कि अगर वहां भी ये पूरा का पूरा लाइव दिखाया जाए। इससे दोनों देशों के लोगों को खुद की असलियत और अपने नेताओं की असलियत समझने में आसानी होगी। समझ ये भी आसानी से आएगा कि दोनों देशों के नेता सरकार और विपक्ष में कैसे व्यवहार करते हैं। सरकार में समझौते करते हैं और विपक्ष में संग्राम का हुंकार भरते रहते हैं। एक न्यूज चैनल की बहस में पाकिस्तान के एक विशेषज्ञ ने कहाकि देखिए हमारी हर बात के जवाब में आपके पास उसका उल्टा जवाब मौजूद है। ऐसे ही आपकी हर बात के जवाब में हमारे पास भी उसका उल्टा जवाब मौजूद है। लेकिन, अच्छी बात है कि आतंकवाद से हम दोनों त्रस्त हैं। कई बार हकीकत समझ नहीं आती। और भारत-पाकिस्तान के रिश्ते में आतंकवाद की हकीकत भी कुछ ऐसी ही है। शायद ये हकीकत सरकार में आने पर साफ नजर आने लगती है। इसीलिए हर भारत सरकार पाकिस्तान सरकार से रिश्ते अच्छे रखना चाहती है। हर भारतीय विपक्षी पार्टी हर पाकिस्तानी विपक्षी पार्टी के सुर एक जैसे होते हैं। और उसी तरह जनता भी बराबर-बराबर पक्ष विपक्ष है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान रिश्ते की पूरी कहानी यही है। इस समय पाकिस्तान के सूचना मंत्री परवेज राशिद का ये बयान बड़ा महत्वपूर्ण है कि अगर 1999 में परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट नहीं किया होता तो, कश्मीर का मुद्दा अब तक सुलझ जाता। अच्छी बात ये है कि फिर से वही नवाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। उससे भी अच्छा ये है कि हिंदुत्ववादी नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं। अच्छा है कि एक हिंदुत्ववादी छवि वाला नेता बार-बार इस्लामिक देश पाकिस्तान के साथ अच्छे रिश्ते का हाथ बढ़ा रहा है। और इससे भी अच्छी बात ये है कि अपने देश के कट्टरपंथियों के लाख दबाव के बावजूद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी अमन का हर मौका पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। कुल मिलाकर भारत-पाकिस्तान के बीच आज के हालात में जंग तो होने से रही। हां, बेवजह हर दूसरे-चौथे दोनों देश अपने सैनिकों को गंवाकर छाती चौड़ी किए रखना चाहते हों तो, रहें। लेकिन, रास्ता तो यही है। इस रास्ते को पक्का कर देने की जरूरत है।

Saturday, July 11, 2015

बिहार में बदल गए हैं जाति के नेता

बिहार विधान परिषद के चुनाव नतीजों ने राजनीतिक पंडितों के लिए पुनर्निरीक्षण की बुनियाद बना दी है। ज्यादातर राजनीतिक पंडितों, अनुमानों ने लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड के गठजोड़ के बाद बिहार में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की नैया डूबी ही मान ली है। बिहार में नीतीश का ही जनता दल यूनाइटेड है, भले इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हों। सामान्य राजनीतिक समीकरण यही कह रहा है कि बिहार में जाति की राजनीति इस कदर हावी है कि अब  बीजेपी के लिए रामविलास का साथ होने के बावजूद चुनाव जीतना मुश्किल है। सामान्य राजनीतिक समीकरण कहता है कि यादव और दलित अगर जुड़ जाएं तो, फिर बिहार में किसी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है। उस मुसलमान साथ आ जाएं तो, सोने पर सुहागा जैसा हो सकता है। और राजनीतिक विद्वान लालू-नीतीश के गठजोड़ से इसी सोने पर सुहागा जैसी स्थिति की कल्पना में हैं। लेकिन, ये सामान्य राजनीतिक समीकरण की बात थी। जबकि, अब बिहार का राजनीतिक समीकरण सामान्य नहीं रहा है। यादव पूरा का पूरा न लालू प्रसाद यादव के साथ है। और न ही मुसलमान। कुर्मी और दलितों में भी एनडीए ने रणनीतिक सेंध लगा दी है। रही-सही कसर खुद नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को पार्टी से निकालकर कर दी। लेकिन, राजनीतिक समीकरण सीधा जोड़, घटाना या गुणा, भाग नहीं होता। अब उसमें नया मोड़ ये है कि 23 प्रतिशत दलित और 15 प्रतिशत यादव वोट अब सीधे लालू या नीतीश के खाते में नहीं जा रहा है। बिहार विधान परिषद चुनावों ने ये साफ भी कर दिया है।

 
जीतनराम मांझी मुसहर जाति से आते हैं। ये बिहार में महादलित वर्ग है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी चतुराई से दलितों में भी महादलित का नारा इसलिए मजबूत किया है जिससे नीतीश कुमार के महागठजोड़ से मुकाबला किया जा सके। जीतनराम मांझी ने मुख्यमंत्री रहते कुछ बड़े शानदार फैसले किए हैं। उन्होंने महिलाओं को आरक्षण दिया। साथ ही ठेके पर नियुक्त शिक्षकों को नियमित कर दिया। विवादित बयान के लिए ज्यादा जाने गए जीतन राम मांझी कमजोर ब्राह्मण और राजपूतों को भी आरक्षण की वकालत करते हैं। ये ऐसे फैसले हैं जिसका असर मत देते समय लोगों के दिमाग में जरूर होगा। और सबसे बड़ी बात ये है कि भले ही जीतनराम मांझी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ें, मतदाता के दिमाग में लगभग साफ है कि लालू-नीतीश एक साथ और बीजेपी-रामविलास और जीतनराम के साथ। रामविलास पासवान ने अपने जन्मदिन पर जीतनराम को केक खिलाकर ये साफ कर दिया कि कौन कहां खड़ा है।  और, सबके बाद बिहार में सारी लड़ाई जाति की ही है। लेकिन, अब इस जाति की लड़ाई में कई बड़े तथ्य जुड़ गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिला लोकसभा चुनाव में। जब रामकृपाल यादव ने बीजेपी के चुनाव चिन्ह पर लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा को हराया तो, साफ हो गया कि बिहार गोप समीकरण बदल रहा है। सिर्फ रामकृपाल यादव ही नहीं, बीजेपी के टिकट पर सीवान, उजियारपुर, और मधुबनी से भी जीतने वाले यादव ही हैं। और उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के प्रत्याशियों को हराया है। आरजेडी के बाहुबली सांसद पप्पू यादव भी अब लालू का साथ छोड़ चुके हैं। पूर्णिया, सहरसा, मुंगेर और भागलपुर में पप्पू यादव का कितना प्रभाव है, इस पर बहस हो सकती है लेकिन, इसे नकारना संभव नहीं है। पप्पू यादव ने अपनी नई पार्टी बना ली है। और राज्य में पदयात्रा पर निकल पड़े हैं। पप्पू यादव की छवि राष्ट्रीय स्तर पर कितनी भी खराब हो लेकिन, सच्चाई यही है कि यादव जाति के लोगों में पप्पू यादव का प्रभाव कई बार लालू प्रसाद यादव से भी ज्यादा दिखा है। शायद यही वजह भी रही कि लालू प्रसाद यादव ने पप्पू यादव को पार्टी से निकाल बार किया। क्योंकि, लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारियों, मीसा-तेजप्रताप-तेजस्वी, में से कोई भी पप्पू यादव के आसपास भी खड़ा नहीं होता है। ये वही पप्पू यादव हैं जिन्होंने मई 2014 के लोकसभा चुनाव में मधेपुरा से शरद यादव को हरा दिया। जबकि, लोकसबा चुनावों में मोदी लहर में खुद लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती और पत्नी राबड़ी देवी चुनाव हार गईं।
 
भूमिहार ब्राह्मण और राजपूतों को स्वाभाविक तौर पर भारतीय जनता पार्टी का वोटर माना जाता रहा है। बावजूद इसके कि बिहार की राजनीति में राजपूत और भूमिहार एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं। भूमिहार ज्यादा प्रभावशाली वर्ग है। और, लोकसभा चुनाव के बाद किसी भूमिहार को मंत्री न बनाने से भूमिहारों में गस्सा था। लेकिन, गिरिराज सिंह को मंत्री बनाकर नरेंद्र मोदी ने भूमिहारों को गुस्सा कम कर दिया है। इसके अलावा लालू-नीतीश के हाथ मिला लेने से इन दोनों जातियों के पास बीजेपी के पाले में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखता है। कुल मिलाकर बिहार की राजनीति में जाति खत्म नहीं हुई है। लेकिन, जातियों के नेता एक नहीं रह गए हैं। एक जाति के कई नेता हो गए हैं। और सबकी अपनी राजनीति है। इसलिए महागठजोड़ या महादलित कौन सा दांव इस विधानसभा चुनाव में हिट होगा। इसका अंदाजा लगाना सीधा तो नहीं है। कम से कम बिहार विधान परिषद के चुनाव ने तो ये साफ कर ही दिया है। विधान परिषद के चुनाव चाहे सीधे जनता के वोट से न चुने जाते हों। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि ये इशारा महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि ज्यादातर विधान परिषद चुनाव में सत्ता पक्ष के ही विधायक चुने जाते हैं। यहां सत्ता बदले भले न बदलने के तगड़े संकेत हैं, तभी ये परिणाम हैं।

Thursday, July 09, 2015

शिमला यात्रा, ड्राइवर रमेश के श्रीमुख से

यात्रा हमेशा सिखाती है। और यात्रा में मिलने वाले नए-नए लोग काफी कुछ नया सिखाते हैं। अकेले यात्रा करने वाले सबसे ज्यादा जानते सीखते हैं। उसकी वजह ये होती है कि हर नए से बोलने-बतियाने का अवसर रहता है। सीखने के लिहाज से ट्रेन की यात्रा सबसे कमाल की होती है। रेलगाड़ी के भीतर-बाहर काफी कुछ सीखने लायक मिलत-दिखता रहता है। लेकिन, आजकल एक और यात्रा होती है। टैक्सी की यात्रा। और टैक्सी की यात्रा में सिखाने का काम करता है टैक्सी का ड्राइवर। इस बार सपरिवार हम शिमला यात्रा पर खुद ही कार चलाकर गए। बढ़िया यात्रा रही। मजा आया। लेकिन, शिमला पहुंचकर हमने वहां घूमने के लिए एक टैक्स ले ली। वजह ये कि खुद कार चलाते रहे तो, पहाड़ का प्राकृतिक आनंद ले नहीं पाएंगे।

टैक्सी के साथ टैक्सी ड्राइवर रमेश आए। रमेश शिमला से थोड़ा आगे बिलासपुर का रहने वाला है। शिमला में टैक्सी चलाते हैं। इसी से आसानी से परिवार चल जाता है। मैंने पूछा हिमाचल प्रदेश के बाहर टैक्सी लेकर जाते हैं। रमेश बोले समय ही नहीं है। शिमला, मनाली और उससे ऊपर के पर्यटकों से ही फुर्सत नहीं मिलती। परिवार बिलासपुर में ही रहता है। खेती भी अच्छी हो जाती है। बात शुरू हुई तो हमारे टैक्सी ड्राइवर रमेश के श्रीमुख से आया कि शहर तो शहर ही होता है। तो पहाड़ के भी शहर में कुछ तो बेईमानी आ ही गई है। वैसे गांव एकदम ईमानदार हैं। चायल से घूमकर लौटते रमेश ने शिमला का अस्पताल दिखाते बताया कि बिलासपुर में एम्स आ रहा है। मैंने पूछा तो बताया कि हां, बेहतर तो हो ही जाएगा। और ये भी बता दिया कि सबसे बेहतर जगह एम्स के लिए बिलासपुर ही है। जाहिर है बड़ा संस्थान आता है तो वहां के लोगों के लिए अच्छी खबर लेकर आता है। रमेश ने कहाकि जे पी नड्डा भी हमारे यहां का है। स्वास्थ्य मंत्री है। हिमाचल में भाजपा का नेता अब वही बनेगा। हमारे देश में कोई भी राजनीति पर बराबर दखल रखता है। उस दखल के सिद्धांत को कायम रखते हुए ड्राइवर रमेश के श्रीमुख से आया कि मोदी की लहर में जाने कितने मुर्दे तर गए। रमेश ने कहाकि इस बार धूमल का लड़का जीतने वाला बिल्कुल नहीं था। हालांकि, रमेश ने ये भी भविष्यवाणी कर दी कि अगली सरकार फिर से बीजेपी की होगी। वजह बड़ी ये बताई कि राजा वीरभद्र सिंह की विरासत संभालने वाला कोई नहीं है।

ये सब सामान्य ज्ञान तो रमेश ने बढ़ाया ही। लेकिन, असल ज्ञान आया, चायल से लौटते कुफरी में घुड़सवारी का आनंद (आनंद कहने की बात है। कभी-कभी ऐसे ही पहाड़ों में जाकर घोड़ा चढ़ने वालों की जान सांसत में रहती है।) लेने के बाद। शिमला गेस्ट हाउस लौटते मैंने कहा घोड़ों ने आपस में लड़ते हमारा घुटना तोड़ दिया। उस पर हमारा घोड़े वाला बेहद बद्तमीज था। खुद को संभालना पड़ा। सामने से दूसरे घोड़े पर आ रहे परिवार के साथ उनके घोड़े वाले का झगड़ा चल रहा था। क्योंकि, पैर जिस पर रखते हैं, वो रस्सी टूट गई। पुरुष के साथ उसका बच्चा भी था। वो बुरी तरह से झगड़ रहे थे। पुरुष बोला बच्चा गिर जाता तो। बीच में दखल देते हमारा घोड़े वाला बोला- बच्चा तुम्हारा है तो तुम्हीं ख्याल रखोगे ना। फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैंने अपने घोड़े वाले को डांटा। हालांकि, वो दूसरे के उदाहरण देकर उनको गालियां देता रहा। मैंने खुद पर नियंत्रण रखा। और बाद में ये घटना ड्राइवर रमेश को बताने पर जो उसने कहा, उससे खुद के समझदार होने का प्रणाणपत्र प्राप्त होने जैसा अहसास हुआ। रमेश ने कहा- अरे साहब जो कुछ नहीं कर पाता वही तो इन घोड़ों के साथ दिन भर ऊपर नीचे दौड़ता रहता है। वरना सोचिए कौन घोड़ों के साथ-साथ ऐसे दौड़ सकता है। फिर घोड़ों के साथ रहते इनका दिमाग भी घोड़े जैसा हो जाता है। अब बताइए घोड़े से कोई बहस की जा सकती है। झगड़ा जा सकता है। इतनी आसानी से ये बात रमेश कह गया। मुझे लगा सही बात है इस तरीके से कौन पर्यटक सोचता होगा। अगली बार अगर किसी घोड़े वाले से या किसी और से झगड़ने की नौबत भी आ जाए तो, ड्राइवर रमेश के श्रीमुख से निकली बात जरूर ध्यान में रखिएगा। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

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