Wednesday, September 30, 2015

संघ को सांप्रदायिक, पिछड़ा साबित करने की साजिश

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण 3 अक्टूबर 2015
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत को पीछे ले जाने की हरसंभव कोशिश की है। प्रगतिशील समाज के तथाकथित नुमाइंदों ने इस बात को पिछले सत्तर सालों में बड़े सलीके से साबित करने की कोशिश की है। इसका जवाब खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन राव भागवत ने अभी एक पंक्ति में ही बिना इस साजिश के उल्लेख के दे दिया है। उन्होंने जयपुर में एक कार्यक्रम में साफ कहा कि हिंदू समाज को उन सारी परंपराओं को खत्म करना होगा, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर खरी नहीं उतरती हैं। दरअसल यही संघ करता भी रहा है। हां, संघ समाज तोड़कर बनाने के बजाए, बने समाज की कुरीतियों को खत्म करके उसे बेहतर समाज में बदलने की धारणा पर यकीन करता है। लेकिन, वामपंथ और तथाकथित प्रगतिशील समाज ने सत्ताधारी कांग्रेस के साथ मिलकर ये साजिश बड़े सलीके से पूरी कर ली कि संघ सांप्रदायिक है और पिछड़ेपन को ही जारी रखना चाहती है। ये कोशिश कितनी कारगर रही कि ज्यादातर विद्वत स्थिति को हासिल करने वाले पहली बात यहीं से शुरू करते हैं कि संघ तो सांप्रदायिक है और हिंदू समाज को परंपरा और कुरीतियों की बेड़ी में जकड़कर रखना चाहता है। हालांकि, भारत में विद्वान की श्रेणी में आए ये बहुतायत या तो विशुद्ध वामपंथी रहे हैं या फिर वामपंथ की चादर ओढ़कर कांग्रेस की कृपा से सरोकारी बने हैं। लंबे समय तक सत्ता के साथ ने शैक्षिक पाठ्यक्रमों से लेकर इतिहास तक हर जगह संघ को गैरसरोकारी और वामपंथ को सरोकारी साबित करने की काफी हद तक सफल साजिश की है। इस साजिश के सफल होने का पैमाना देखिए कि जवाहर ला नेहरू विश्वविद्यालय में संघ के विचारों से जुड़े लोग भी वहां सफलतापूर्वक पढ़ने के लिए वामपंथ विरोध त्याग देते हैं। अच्छी बात ये कि इन तमाम साजिशों के बावजूद चुपचाप एक सामाजिक संगठन के तौर पर किया गया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम अब परिणा दिखाने लगा है। संघ के अनुषांगिक संगठन लगातार अपने क्षेत्र में सबसे बेहतर कर रहे हैं। यहां तक कि राजनीति पार्टी के तौर पर भारतीय जनतता पार्टी ने भी मुस्लिम विरोधी और दूसरे सांप्रदायिक से लेकर गैरसरोकारी होने के आरोपों के बावजूद देश की सत्ता में है। लेकिन, ये साजिश अब और तेज हो गई है। दरअसल अभी तक धर्मनिरपेक्षता और खोखले सरोकारी साम्यवाद के पैरोकारों को ये भ्रम लगा था कि उनकी दुकानें चलती रहेंगी। उनको भ्रम ये भी था कि उनकी धर्मनिरपेक्षता की ब्रांडिंग और कांग्रेस का तटस्थ मार्ग पर कब्जा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश में कभी सर्व स्वीकार्य नहीं होने देगा। भ्रम उनको ये भी था कि कांग्रेस सत्ता वाली स्वाभाविक पार्टी के तौर पर भी बनी रहेगी। अब लगातार ये भ्रम टूटने लगा, तो साजिशी सिद्धांत तेज हो गए।

हाल के दिनों की कुछ घटनाएं देखिए। साफ समझ में आ जाएगा कि कैसे संघ को सांप्रदायिक और पिछड़ा साबित करने की बेहूदी कोशिशें हो रही हैं। महाराष्ट्र में गोविंद पानसारे और कर्ऩाटक में एम एम कलबुर्गी की हत्या होती है। कुछ बेहद अतिवादी हिंदुओं के नाम से संगठन चलाने वालों ने शायद पानसारे और कलबुर्गी की हत्या की है। निश्चित तौर पर ऐसे अतिवादियों के खिलाफ भारतीय कानूनों के अनुसार अधिकतम दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। महाराष्ट्र में अगर लंबे समय के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई है, तो हो सकता है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील लोगों को ये लगे कि महाराष्ट्र सरकार पानसारे के हत्यारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं करेगी। उनके शक की अपनी तय बुनियाद है कि संघ और स्वयंसेवक सांप्रदायिक ही हैं। और प्रगतिशील विचार के समर्थकों की हत्या के पक्षधर हैं। ये वही बुनियाद है, जो बड़े सलीके से नाथूराम गोडसे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ देती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों की, हर तरह की सामाजिक से लेकर राजनीतिक, स्वीकार्यता सर्वोच्च होने के बाद भी यही बुनियाद हर बहस में संघ को सांप्रदायिक बता देती है। लेकिन, क्या महात्मा गांधी की हत्या में संघ या उसके किसी स्वयंसेवक का हाथ होने की बात आज तक साबित हो पाई है। इसका जवाब नहीं में है। उसी तरह से यूपीए के शासनकाल में गोविंद पानसारे की हुई हत्या में जो शक के दायरे में आ रहे हैं। वो मुंबई से सटे ठाणे में काम करने वाले एक गुमनाम अतिवादी हिंदू संगठन सनातन संस्था है। सनातन संस्था पहले भी विस्फोट के एक मामले में शक के दायरे में है। इसका भी दूर-दूर तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन, सिर्फ हिंदू लग जाने से किसी भी अतिवादी हिंदू संगठन के कुकृत्यों को संघ से जोड़ देने की लगातार चलती साजिश का ये नमूना है। सोचिए कोई हिंदू किसी तरह का कुकर्म, अतिवाद करे तो संघ के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया जाता है। इसका उल्टा करके देखिए मुसलमान तुष्टीकरण, उनको पिछड़ा बबनाए रखने वाली कांग्रेस से लेकर सारी तथाकथित प्रगतिशील पार्टियों पर क्या कभी मुसलमान के आतंकवादी होने की वजह से सांप्रदायिक होने की बात उठी। नहीं वो पार्टियां धर्मनिरपेक्ष रहती हैं। वामपंथ धर्मनिरपेक्ष रहता है। आतंकवादी मुसलमान हो जाता है। इस साजिश ने बड़ी आसानी से एक रेखा खींची और रेखा के बाएं तरफ सरोकारी, धर्मनिरपेक्ष, अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता करने वाला वामपंथ खड़ा हो गया, वामपंथ के साथ वो सब आ गए जो दक्षिणपंथी नहीं थे। रेखा पर खड़े लोग या रेखा के दोनों तरफ पैर करके खड़े लोग भी सरोकारी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी टाइप ही रहे। हां, दायीं तरफ अकेला संघ रह गया। और रह गए संघ विचार पर काम करने वाले उसके अनुषांगिक संगठन। सब मिल-मिलाकर लंबे समय तक संघ को घेरकर उसे और उसके अनुषांगिक संगठनों को सांप्रदायिक, पिछड़ा साबित करके एक कोने में ही बांध देने की कोशिश की। यानी सारी सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक बदलाव की जिम्मेदारी से ही संघ और उससे जुड़े अनुषांगिक संगठनों को बेदखल करने की कोशिश की गई। संघ का स्वयंसेवक बहुत अच्छा है लेकिन, संघ सांप्रदायिक है। इस जुमले को ही तथ्य बना देने की प्रयास हुआ, काफी हद तक सफल रहा। इस तरह की प्रोपोगैंडा मशीन निरंतर चलाने वाले तथाकथित प्रगतिशीलों ने एक और जुमला तथ्य की तरह स्थापित कर देने की कोशिश की कि संघ ही प्रोपोगैंडा मास्टर है। इसे तथ्य के तौर पर साबित करने का सीधा सा मकसद था कि वामपंथी गैंग के हर आरोप का जवाब देने के संघ के हर प्रयास को पहले ही प्रोपोगैंडा या अफवाह साबित कर दिया जाए।

अब एम एम कलबुर्गी की हत्या में शक के दायरे में आए आरोपियों की बात कर लें। यहां बंगलुरू के पब में मारपीट के बाद देश भर में सुर्खियों में आए श्रीराम सेना के प्रमोद मुतालिक के साथी रहे और फिर उससे अलग होकर अपना एक जिले का संगठन चलाने वाले पर कलबुर्गी की हत्या में शामिल होने के आरोप लग रहे हैं। अच्छी बात है तथाकथित धर्मनिरपेक्षों, प्रगतिशीलों की सर्वप्रिय कांग्रेस की सरकार यहां है। इसलिए वो ये सोच सकते हैं कि स्वयंसेवक के मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री न होने से उनके लिहाज से कार्रवाई हो जाएगी। अब जरा याद करिए कितनी कोशिश की गई थी कि श्रीराम सेना को संघ का ही संगठन साबित कर दिया जाए। उस श्रीराम सेना के प्रमोद मुतालिक के गोवा में घुसने पर मनोहर पर्रिकर ने प्रतिबंध लगा दिया। मनोहर पर्रिकर स्वयंसेवक हैं। तब गोवा के मुख्यमंत्री थे। गोवा में किसी तरह की शांतिभंग नहीं हुई। लेकिन, इसकी चर्चा मीडिया ने इतने सकारात्मक तरीके से नहीं की। ये भी एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे संघ को किसी भी तरह से सांप्रदायिक साबित करने के लिए हिंदू नाम पर होने वाली हर गलत गतिविधि का श्रेय संघ को दे दिया जाता है। वहीं अगर हिंदू के नाम पर बहुत कुछ सकारात्मक संघ कर रहा है, तो भी उसे सिर्फ हिंदुओं के लिए काम करने वाली संस्था के तौर पर खांचा बनाकर कमतर साबित करने की कोशिश होती है। ये इसके बावजूद है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही प्रेरणा से कश्मीर में तीन सौ से ज्यादा प्रकल्प मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। ये इसके बाद भी है कि जम्मू कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी सरकार बने और हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई कम हो, इसकी जमीन तैयार करने का काम संघ के प्रचारक रहे और अब भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने जमकर किया। निष्पक्ष रिपोर्ट सामने आ रही हैं कि मुसलमान बिहार में कई इलाकों में नक्सलवाद, सामंतवाद से त्रस्त होकर भारतीय जनता पार्टी के पाले में आ रहा है। फिर भी शायद तथाकथित प्रगतिशील विचारक खुद के खत्म होने तक ये उद्घोष करते रहेंगे कि संघ सांप्रदायिक है।

यही तथाकथित प्रगतिशील विचारक ये भी बताते हैं कि संघ हिंदू समाज को प्रगतिशील नहीं होने दे रहा है। हिंदू समाज को इसलिए क्योंकि, मुसलमानों को तो वो प्रगतिशील बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। और यही ठप्पा लगाकर वो मुसलमानों को हिंदू का डर दिखाकर फंसाए रखना चाहते हैं उनकी खोखली प्रगतिशीलता के चक्कर में। पिछड़े होने और प्रगतिशील होने की बहस के शीर्षासन का एक अद्भुत उदाहरण अभी देखने को मिला है। दुनिया भर में शाकाहार को बढ़ावा देने के अनोखे तरीके से प्रयास करने वाले संगठन की छवि निश्चित तौर पर प्रगतिशील संगठन की है। वो शायद बिना कपड़ों की महिलाओं का इस्तेमाल करके भी तथाकथित प्रगतिशील बना जाते हैं। लेकिन, अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाकाहार को बढ़ावा देने की बात करता है, तो वो पिछड़ा है। संघ विचार से प्रेरित राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी की सरकार अगर सिर्फ कुछ दिनों के लिए जैन पर्व की वजह से मांसाहार बंद करने की बात करता है, तो फिर वो पिछड़ा साबित हो जाता है। मानवाधिकार तक यहां खतरे में पड़ जाता है। कई विद्वान तो जैन पर्व पर शाकाहार की बात करने को संघ का छिपा एजेंडा तक घोषित कर देते हैं। वो ये साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि इस कुछ दिनों के प्रतिबंध को लागू करके दरअसल संघ हिंदू एजेंडा लागू कर रहा है। अच्छी बात ये है कि संघ ने आगे की रणनीति के लिहाज से जो ढेर सारे अच्छे काम किए। उन्हीं में तकनीक को समझना भी शामिल रहा। भारत सहित दुनिया भर में निकले स्वयंसेवक ही आज तथाकथित वामपंथी प्रगतिशीलता का भांडा फोड़ रहे हैं। साजिश शीर्षासन कर गई है।

Monday, September 28, 2015

बाबा रे बाबा

14 सितंबर 2015 को रामपाल के समर्थन में जुटे भक्त
चौदह सितंबर को जंतर मंतर पर गजब की भीड़ थी। रामपाल के समर्थन में। पता नहीं आपमें से कितने लोगों को रामपाल याद होगा। हालांकि, ये मुझे थोड़ा अजीब लग रहा है कि किसी के लिए ऐसे अपमानजनक तरीके से लिखा जाए। लेकिन, मुझे लगता है ये जरूरी है। जरूरी है कि रामपाल जैसे लोगों को अपमान ही मिले। अब मुझे ये नहीं पता कि ऐसे लोगों का सम्मान करने वाले लोग किस मानसिकता से जीते हैं। या फिर ऐसे लोगों को रामपाल जैसे लोग क्या दे देते हैं जिसके चक्कर में ये उमस भरी गर्मी में सरकार को चेताने जंतर-मंतर तक चले आते हैं। और ये लोग देश के अलग-अलग हिस्से से आए हैं। जैसा इनके हाथों में बैनर-तख्ती देखकर समझ में आता है। रामपाल के समर्थन में आए लोगों की भीड़ में हर उम्र के लोग हैं। अब पता नहीं समाज के किस वर्ग की भागीदारी इसमें ज्यादा है। ये सरकार को खुली चुनौती दे रहे हैं। अब तो आपको इस रामपाल का ध्यान अच्छे से आ गया होगा। ये रामपाल वही है, जो खुद को संत कहता है। ये वही रामपाल है, जो लंबे समय से संत के लबादे में अपना गुंडों का साम्राज्य चला रहा है। जिस रामपाल को पकड़ने में पुलिस और अर्धसैनिक बलों को हरियाणा में किसी आतंकवादी को पकड़ने जैसी घेरेबंदी करनी पड़ी थी। सरकार घुटनों पर खड़ी दिखने लगी थी। बाकायदा हथियारों से लैस तथाकथित संत के भक्त मरने-मारने पर उतारू थे। अच्छा हुआ कि बंदबुद्धि भक्तों की आस्था पर देश का कानून मानने वाले नागरिकों का भरोसा भारी पड़ा। और सरकार ने रामपाल को गिरफ्तार किया।

सिर्फ गिरफ्तार नहीं किया। बल्कि, रामपाल पर राज्य के खिलाफ लड़ाई छेड़ने का मामला भी दर्ज किया। लेकिन, इससे भी रामपाल के भक्तों की बंदबुद्धि खुली नहीं। या यूं कहें कि और बंद हो गई है। रामपाल के भक्त जंतर मंतर पर बैनर लेकर खड़े थे। कह रहे थे कि देशद्रोही वो है जिन्होंने विदेशों में धन जमाकर रखा है। अब इन्हें कौन समझाए कि विदेश में गलत तरीके से जमा धन हो या देश में दोनों गलत हैं। लेकिन, इससे रामपाल के ठीक होने का आधार कहां से तैयार हो जाएगा। भक्त सीधे धमकी के अंदाज में लिखे रखे हैं कि भक्तों के सब्र का इम्तहान न ले प्रशासन। कबीर भी इन भक्तों के देखकर क्या सोच रहे होंगे।

भक्त कबीर साहेब के साथ रामपाल को पूर्ण संत बताने वाले पोस्टर लिए घूम रहे थे। रामपाल एकदम सबको आशीर्वाद देने वाली मुद्रा में तस्वीर खिंचाए थे। खैर, लोकतंत्र है। और लोकतंत्र में जंतर मंतर है। सबको पूरा मौका है कि अपनी बात कहे। हम न्यायालय तो हैं नहीं कि कोई फैसला सुनाएं। और वैसे भी रामपाल के भक्त न्यायालय को भी बुरा भला कहने में कोई कसर नहीं छोड़े हैं। इस दिन जंतर मंतर से गुजरते यही अहसास हुआ कि कितने न्याय की आस में गुहार लगाते कब से जंतर मंतर पर पड़े हैं। ये सरकार से न्याय मांग नहीं रहे हैं। इनके पैमाने वाले न्याय के न मिलने पर धमकी दे रहे हैं। लेकिन, जंतर मंतर है तो, लोकतंत्र का ही ना। इसलिए भीड़तंत्र भी काम कर रहा है। गुलामी तो हमारे खून में गजब घुसी है। बाबा मिल जाए गुलामी के लिए तो क्या बात है। अच्छा बाबा नहीं उपलब्ध है, तो बुरा बाबा ही सही। नेताओं की गुलामी से थोड़ा आगे का मामला दिखता है।

Friday, September 25, 2015

OROP किसका हक?

जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते पूर्व सैनिक
बकरीद की छुट्टी के दिन दिल्ली की सड़कों पर सरसराता हुआ मैं दफ्तर पहुंच गया। संसद मार्ग तक का रास्ता इतना आसान आमतौर पर कहां होता है। प्रेस क्लब की बजाए आज नेशनल मीडिया सेंटर में गाड़ी खड़ी की। और पैदल दफ्तर के लिए चल पड़ा। जंतर-मंतर रास्ते में है। जंतर-मंतर पर हर रोज की तरह मारामारी तो नहीं थी। प्रदर्शनकारियों का एक नया मंच लग गया है। अगर सोमवार तक ये प्रदर्शन जारी रहा तो, उनकी बात करूंगा। लेकिन, आज बात उन सैनिकों की। जिनको अभी भी लग रहा है कि उनको देशसेवा के बदले में जो मिलना चाहिए वो नहीं मिल रहा है। पिछले कई दशकों से चली आई रही वन रैंक वन पेंशन की बहाली नरेंद्र मोदी की सरकार ने कर दी। उसके बाद भी पूर्व सैनिकों को लग रहा है कि हिस्सेदारी और ली जा सकती है। कम मिली है। थोड़ी देर रुककर मैंने उन लोगों को सुना। सुनने के बाद लगा कि अच्छा है यहां लोग कम ही हैं। या ये कहें कि जिनकी पेंशन बढ़नी है। वही कुछ पचास-सौ लोग हैं। क्योंकि, अगर रुककर आम लोग उनकी बातें सुन लें, तो सेना और सैनिकों की देश सेवा शब्द से चिढ़ होने लगे। जब मैंने सुना, तो दहाड़ रहे पूर्व सैनिक बता रहे थे कि कैसे वो तो वीर बहादुर थे। लेकिन, सरकार ने दुश्मनों पर गोली नहीं चलाने दी। मतलब अब वो इस तरह से सरकार को लानत भेज रहे थे। जैसे निजी दुश्मनी। अब पता नहीं किस सरकार के समय वो सेना में थे। उस पर भी इन्हें कौन समझाए कि सरकार कोई भी हो, लाख कहें कि सरकारें भी राजनीति करती हैं। लेकिन, ये तो मैं भी नहीं मान सकता कि सीमा पर सरकार राजनीति करती है। लेकिन, वो पूर्व सैनिक अपनी रौ में बहे जा रहे थे। ज्यादा देर तक मैं रुका नहीं।

जंतर-मंतर के आसपास बचे ये कुछ पोस्टर
जंतर-मंतर से संसद मार्ग की तरफ बढ़ा, तो ढेर सारे फटे पोस्टरों को देखा। वो, फटे पोस्टर थे आम आदमी पार्टी के एक विधायक के। आम आदमी पार्टी के विधायक सुरेंद्र सिंह कमांडो किसी पूर्व सैनिक संगठन के अध्यक्ष हैं, ये भी जानकारी इस पोस्टर से पता चली। वो, भी बेचैन दिख रहे थे कि आखिर पूर्व सैनिकों को उनका हक क्यों नहीं मिल रहा। हालांकि, ज्यादातर पोस्टर फट चुके हैं। लेकिन, दो पोस्टर साबुत दिखे, तो एक तस्वीर मैंने ले ली। इससे समझ में आ जाता है कि आखिर कौन से ये 100 के आसपास पूर्व सैनिक हैं, जो जंतर-मंतर पर अभी OROP का नारा बुलंद किए हुए हैं। जबकि, इस बात के लिए तो नरेंद्र मोदी की तारीफ होनी चाहिए कि उन्होंने पूर्व सैनिकों का सम्मान किया। जाहिर है राजनीतिक नफा-नुकसान का गणित काम कर रहा है।


OROP किसका हक?
खैर, जंतर-मंतर पर अभी कब तक ये पूर्व सैनिक अपने बुरे हाल की दुहाई देते रहेंगे। ये देखने वाली बात होगी। लेकिन, रोज दफ्तर आने के क्रम में एक पूर्व सैनिक जो मुझे दिखा। उसकी तस्वीर भी में चिपका रहा हूं। बुजुर्ग सरदार जी ड्राइविंग सीट पर थे। पूर्व सैनिक होंगे। ये अंदाजा मैंने इससे लगाया कि उनकी होंडा सिटी कार के पीछे OROP sadda haq Aithe Rakh! का स्टीकर चिपका हुआ था। ये तस्वीर बहुत अच्छी नहीं आ सकी। क्योंकि, कार चलाते आगे वाली कार की तस्वीर लेना इतना आसान नहीं था। लेकिन, ये तस्वीर बता देती है कि समय से पहले सेना से रिटायर हो जाने वाले पूर्व सैनिकों की जिंदगी कैसी है। फिर भी आंदोलन है, उसे चलाने के लिए सही मुद्दा किसे चाहिए। जंतर-मंतर है। पीछे से समर्थन देने वाले कुछ राजनेता हैं। अपना स्वार्थ है। बस इतना बहुत है। पूर्व सैनिकों को ज्यादा से ज्यादा पेंशन लेने के लिए। 

Monday, September 21, 2015

योग्य चपरासी और अयोग्य अध्यापक

सोशल मीडिया पर घूमता एक तुलनात्मक तथ्य
उत्तर प्रदेश से दो खबरें इस समय जबर्दस्त चर्चा में हैं। इन दोनों खबरों की वजह से एक बहस, भावनाओं का उबाल देखने को मिल रहा है। दोनों खबरों में दुख है, संवेदना है, योग्य-अयोग्य की बहस है। पहली खबर ये कि उत्तर प्रदेश सरकार के एक फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पलट दिया है। वो खबर है शिक्षा मित्रों की सहायक अध्यापक के तौर पर नियुक्ति के फैसले की और उसे उच्च न्यायालय द्वारा पलट देने के फैसले की। दूसरी खबर है कि उत्तर प्रदेश में चपरासी का पद हासिल करने के लिए करीब तेईस लाख उम्मीदवारों ने आवेदन डाला है। और इसमें से ढाई सौ से ज्यादा पीएचडी की उपाधि वाले यानी डॉक्टरेट हैं। ये दोनों खबरें सिर्फ उत्तर प्रदेश का ही नहीं देश की शिक्षा व्यवस्था से लेकर देश में नौजवानों की क्या कद्र है। इसे साफ करती है। इसलिए बड़ा जरूरी है कि इन दोनों खबरों पर बहस वहां तक पहुंचे जहां से इन खबरों के दोबारा बनने की गुंजाइश न बचे।

पहले बात शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने के उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले की। और इस फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पलटने के फैसले की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शिक्षा मित्रों के सहायक अध्यापक बनाने पर रोक लगाने का फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश दिलीप गुप्ता और न्यायधीश यशवंत वर्मा ने अपने फैसले में कहा है कि राज्य सरकार के पास यह अधिकार नहीं है कि वो सहायक अध्यापकों की नियुक्ति तय मानकों में ढील देकर कर सके। इसलिए राज्य सरकार का शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने का फैसला असंवैधानिक है। इन सभी शिक्षा मित्रों को बिना तय प्रक्रिया या परीक्षा के सिर्फ मार्कशीट के आधार पर ग्राम पंचायतों की संस्तुति पर किया गया था। यानी ग्राम प्रधान ने तय किया और उन लोगों को शिक्षा मित्र बना दिया। मामूली तनख्वाह मिलती थी। शिक्षा मित्र को तीन हजार रुपये के आसपास मिलते हैं। इन्हीं शिक्षा मित्रों को अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने सीधे सहायक अध्यापक बना दिया। अब अगर देखें, तो इसमें ज्यादा कुछ गलत नहीं दिखता। आखिर वो शिक्षा मित्र होते हुए भी तो बच्चों को पढ़ा ही रहे थे। फिर दो चरणों में हुई एक लाख बहत्तर हजार शिक्षा मित्रों की सहायक अध्यापक के पद पर हुई नियुक्ति क्यों उच्च न्यायालय को गलत लगी। इसके तथ्य देख लें, तो साफ समझ आ जाता है कि गलती क्या हुई है। और राज्य सरकार ने क्यों ये गलती जानबूझकर की है। सहायक अध्यापक के लिए नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन की जो तय अर्हताएं हैं, वो शिक्षा मित्र पूरी नहीं करते हैं। साथ ही राइट टू एजुकेशन कानून 2010 के तहत ये साफ है कि सहायक अध्यापक बनने के लिए टीचर्स एलिजिबिलिटी टेस्ट यानी टीईटी पास करना जरूरी है। शिक्षा मित्र इस पर खरे नहीं उतरते हैं। तो क्या उत्तर प्रदेश में सहायक अध्यापक बनने के लिए जरूरी इतनी सी योग्यता रखने वाले लोग भी नहीं हैं। अगर नहीं हैं, तो निश्चित तौर पर राज्य सरकार का ये दायित्व बनता है कि शिक्षा मित्रों को ही सहायक अध्यापक के तौर पर रखे। लेकिन, ऐसा है नहीं। राज्य सरकार ने एक लाख बहत्तर हजार शिक्षा मित्रों को दो चरणों में सहायक अध्यापक बनाने से पहले टीईटी पास अभ्यर्थियों से सहायक अध्यापक के बहत्तर पदों के लिए आवेदन मांगे गए थे। अभी की स्थिति ये है कि करीब चौवन हजार टीईटी पास नौजवानों को सहायक अध्यापक बनाया गया है। लेकिन, मेरिट कटऑफ की वजह से पूरी बहत्तर हजार सीटों पर अभी तक नियुक्ति नहीं हो सकी है। अब जिलों में अलग-अलग मेरिट निकल रही है। उसी के आधार पर आवेदन करने वालों को नियुक्ति दी जा रही है। इससे आगे का एक तथ्य और है, जो स्थिति ज्यादा साफ करता है। करीब ढाई लाख ऐसे छात्र-छात्राएं हैं, जो टीईटी पास कर चुके हैं और सहायक अध्यापक बनने के लिए कतार में हैं। एनसीटीई द्वारा तय अर्हता भी पूरी करते हैं। तो, फिर राज्य सरकार ऐसा क्यों कर रही है कि तय मानकों पर योग्य लोगों को छोड़कर तय मानक न पूरा करने वालों को सहायक अध्यापक बनाना चाह रही है। इसको समझने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बयान ध्यान से सुनने होगा। अखिलेश यादव कह रहे हैं कि सरकार ने पहले भी शिक्षामित्रों की मदद की है और आगे भी करेगी। दरअसल समाजवादी पार्टी की सरकार करीब पौने दो लाख शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाकर 2017 के लिए इन्हें अपने वोटबैंक के तौर पर तैयार करना चाहती है। इसीलिए तय अर्हता पूरी करने वाले छात्रों से पहले उस अर्हता को पूरी न करने वालों छात्रों को सहायक अध्यापक बनाना चाहती है। समाजवादी सरकार ने ये काम बहुत शातिर तरीके से किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद करीब साढ़े तीन हजार शिक्षा मित्रों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की है। ये मामला अब सिर्फ भावनात्मक नहीं रह गया है। अब तीन हजार पाने वाले शिक्षा मित्रों को तीस हजार पाने वाला सहायक अध्यापक बनने के बाद फिर से तीन हजार वाला शिक्षा मित्र बनना कैसे बर्दाश्त हो सकता है। और ये भी जरूरी नहीं है कि सभी शिक्षा मित्र टीईटी पास सहायक अध्यापक की योग्यता रखने वाले छात्रों से कम योग्य हों। लेकिन, इस सरकार ने वोटबैंक के चक्कर में ये बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया है।


ये तो बिल्कुल ही नहीं है कि योग्य लोग सहायक अध्यापक के लिए नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि, इसी उत्तर प्रदेश में चपरासी बनने के लिए भी डॉक्टरेट की उपाधि लिए लोग मारे-मारे फिर रहे हैं। राज्य सरकार ने हाल ही में चपरासी के 368 पद निकाले हैं। इसके लिए तेईस लाख से ज्यादा लोगों ने आवेदन किया है। इसमें से ढाई सौ से ज्यादा तो पीएचडी डिग्री धारक हैं। यानी कम से कम डिग्री के आधार पर तो उत्तर प्रदेश में योग्य लोगों की कमी नहीं है। लेकिन, बड़ा सवाल ये भी है कि पीएचडी की डिग्री हासिल कर लेने वाले नौजवानों की डिग्री गड़बड़ है, तो सरकारें और उनकी शिक्षा नीति पर बड़ा सवाल खड़ा होता है। और अगर नौजवानों की डिग्री ठीक है, तो सरकारें कितनी अक्षम हैं कि उनके लिए रोजगार का इंतजाम तक नहीं कर पा रही हैं। इस तरह योग्यता-अयोग्यता के फेर में फंसा नौजवान इतना हताश हो जाए कि इच्छा मृत्यु की मांग करने लगे, तो सवाल सरकार पर खड़ा होता ही है। और इसका जवाब सरकार को भी खोजना होगा, समाज को भी। 

Sunday, September 20, 2015

फर्जी सरकारी संस्थान!

17 सितंबर 2015 को दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी डिग्री की वैधानिकता के लिए आंदोलनरत FDDI छात्र
सरकारी नीतियों को बनाने वाले पता नहीं कैसे सोचते-करते हैं। अकसर यूजीसी की सूची निकलती है, जिसके आधार पर देश में चल रहे फर्जी विश्वविद्यालयों या दूसरे शिक्षा के केंद्रों के बारे में लोगों को पता चलता है। लेकिन, सेना की भर्ती की तरह भगदड़ वाली भीड़ इस देश में शिक्षा के लिए भी नियति बन गई है। छात्र पढ़ना चाहते हैं। लेकिन, उनकी मजबूरी ये कि जिस संस्थान में वो दाखिला ले रहे हैं। वो संस्थान सरकार, यूजीसी के मानकों पर सही भी है या नहीं। इसका अंदाजा पाठ्यक्रम में दाखिला लेने के बाद और कभी-कभी तो पाठ्यक्रम पूरा कर लेने के कई साल बाद पता लगता है। फर्जी डिग्री देने वाले निजी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों को लानत भी हम भेजते रहते हैं। जबकि, सच्चाई ये है कि फर्जी कुछ भी है, तो उसके लिए सिर्फ और सिर्फ जिम्मेदार सरकार ही है। अब एक और अनोखा उदाहरण देखिए। केंद्र सरकार के ही अंतर्गत चल रहे एक संस्थान की डिग्री को केंद्र सरकार के मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत आने वाला यूजीसी यानी यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन मान्यता ही नहीं देता है। दिल्ली से सटे नोएडा में वाणिज्य मंत्रालय FDDI संस्थान चलाता है। इस संस्थान से रिटेल, फुटवेयर और ऐसे कई एमबीए की डिग्री दी जाती है। अब जब वाणिज्य मंत्रालय का ही संस्थान है। मंत्रालय का ही एक अधिकारी यहां का मुखिया होता है, तो भला किसे संदेह हो सकता है कि इस संस्थान की डिग्री भी निजी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की तरह फर्जी हो सकती है। लेकिन, सच्चाई यही है कि केंद्र सरकार के संस्थान एफडीडीआई की डिग्री को यूजीसी मान्यता ही नहीं देता है। इसके लिए यहां के छात्रों ने पढ़ाई छोड़कर पहले संस्थान में ही आंदोलन चलाया। फिर देश में आंदोलन के लिए तय स्थान जंतर मंतर तक गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी क्या इस विसंगति को दूर करेंगे। या फर्जी निजी विश्वविद्यालय, कॉलेज की तरह केंद्र सरकार का भी एक फर्जी डिग्री देने वाला संस्थान यूं ही चलता रहेगा। 

Sunday, September 13, 2015

लाल बत्ती की जरूरत क्या है

देश में किसी भी समस्या के लिए सबसे आसानी से अगर किसी एक बात को दोषी ठहराया जाता है, तो वो है लालफीताशाही। देश के अंदर भी और देश के बाहर भी ये सामान्य धारणा है कि भारत में लालफीताशाही की वजह से चीजें अपनी रफ्तार में नहीं चल पाती हैं। हर सरकार लालफीताशाही खत्म करने की बात भी कहती है। लेकिन, देश में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुए करीब ढाई दशक होने के बाद भी लालफीताशाही अपनी जगह बनी हुई है। नरेंद्र मोदी की सरकार जब बनी थी, तो नरेंद्र मोदी ने बार-बार ये कहा कि लालफीताशाही खत्म करना उनकी प्राथमिकता है। इसे और आगे ले जाते हुए उन्होंने कहा कि हम हर दिन एक गैरजरूरी कानून खत्म करेंगे। नरेंद्र मोदी ने धीरे-धीरे वो किया भी है। और अब नितिन गडकरी ने एक ऐसा प्रस्ताव आगे बढ़ाया है, जो लागू हुआ तो शायद लालफीताशाही को सही मायने में खत्म करने वाला सबसे बड़ा फैसला होगा। लालफीताशाही दरअसल किसी फाइल पर लाल निशान लगाने, काम को रोकने से संबंध रखती है। लेकिन, लालफीताशाही ये भी है कि देश में अंबैसडर कारों, आज के संदर्भ में दूसरी कंपनियों की कारों, एसयूवी पर चमकती लाल बत्तियां सड़कों पर एक खास प्रभुत्व के दर्शन कराती रहती हैं। देश को आजाद हुए करीब सत्तर साल हो गए। लेकिन, अंग्रेजों के जमाने की ये लाल बत्ती वाली सत्ता की निशानी देश में वीआईपी होने का सबसे बड़ा अहसास है। ऐसे में जब भूतल परिवहन मंत्री केंद्र सरकार में इस बात पर सहमति बनाने की कोशिश की है कि देश में लालबत्ती गाड़ियों की संख्या लगभग खत्म कर दी जाए। तो, लगता है कि नरेंद्र मोदी की इस सरकार में मंत्रियों का दृष्टिकोण बेहतर है। नितिन गडकरी नरेंद्र मोदी सरकार में सबसे ज्यादा कामकाजी मंत्रियों में से हैं। नितिन गडकरी अपने मंत्रालय में काम कर रहे हैं। और इसी काम करने में नितिन गडकरी ने लाल बत्तियों वाली कारों की संख्या सीमित करने प्रस्ताव आगे बढ़ाया है। इस प्रस्ताव में नितिन गडकरी ने राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही लाल बत्ती की विशेषाधिकार देने की बात की है। इसके अलावा राज्यों में लाल बत्ती वाली गाड़ी के इस्तेमाल का अधिकार सिर्फ राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही देने की बात की गई है। इसे कानून बनाने से पहले नितिन गडकरी ने सभी मंत्रालयों को भी ये प्रस्ताव भेजा है। और अच्छी बात ये है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस प्रस्ताव को लागू करने पर सहमति जताई है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी लाल बत्ती का इस्तेमाल कम से कम करने के इस प्रस्ताव पर सहमति जताई है। चर्चा है कि नितिन गडकरी ने जब प्रधानमंत्री से इस प्रस्ताव को लागू करने की बात की, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी मंत्रालयों से चर्चा करके इसे लागू करने की सलाह दी है। अब अगर ये कानून लागू हो जाता है, तो कल्पना की जा सकती है कि भारतीय सड़कों से इस वीवीआईपी क्लास के गायब होने से लालफीताशाही कितनी आसानी से कम की जा सकती है। इस प्रस्ताव को अलग तरीके से इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि, अकसर इस बात की चर्चा होती है। या ये कहें कि सांसदों, मंत्रियों की आलोचना होती है कि अपनी तनख्वाह, अपने भत्ते बढ़ाने के लिए खुद ही प्रस्ताव पास कर लेते हैं। लागू कर देते हैं। अब अगर एक सरकार अपने ही मंत्रियों को लाल बत्ती के विशेषाधिकार से बाहर कर रही है, तो इसकी चर्चा बड़े बदलाव के तौर पर होनी चाहिए। लाल बत्ती के इस प्रस्ताव के लागू होने के बाद खुद भूतल परिवहन मंत्री भी लाल बत्ती के अधिकारी नहीं रह जाएंगे। इसलिए भी इसे बड़े बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए।


लाल बत्ती वाली गाड़ियों का इस्तेमाल किस कदर होता है। इसके बारे में भारत में किसी को शायद ही कुछ बताने की जरूरत हो। ज्यादातर भारतीयों को अपने जीवन में कई बार लाल बत्ती की महत्ता, सत्ता का अहसास होता ही होता है। राज्यों में तो लाल बत्तियों की महत्ता इस कदर होती है कि राजनीति में बरसों से लगे नेताओं में मंत्री न बन पाने के बाद किसी ऐसी संस्था का अध्यक्ष, उपाध्यक्ष बनने की होड़ लग जाती है जिसमें लाल बत्ती वाली गाड़ी जरूर मिल जाए। या फिर सरकार उनको दिए पद को ही राज्य मंत्री का दर्जा देकर उन्हें लाल बत्ती दे देती है। अब अगर केंद्र सरकार के मंत्री को भी लाल बत्ती का अधिकार नहीं रहेगा। तो, इस तरह से पिछले दरवाजे से लाल बत्ती के लिए कतार लगाए खड़े लोग भी हतोत्साहित होंगे। लाल बत्ती की सत्ता की महत्ता इस कदर कष्ट देने लगी थी कि 2013 में सर्वोच्च न्यायालय को सरकार से ये कहना पड़ा कि लाल बत्तियों की संख्या घटाई जाए। और नई सूची सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी जाए। कमाल की बात ये है कि आजादी के सत्तर साल बाद देश के सर्वोच्च न्यायालय को गुलामी की प्रतीक लाल बत्तियों पर ये टिप्पणी करनी पड़ी। अच्छा है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार लाल बत्ती के विशेषाधिकार को लगभग खत्म करने की सोच रही है। लाल बत्ती के साथ लगे हाथ लाल बत्ती के विशेषाधिकार वाली गाड़ियों में चलने वालों के लिए लगने वाले रूट का भी सिस्टम खत्म किया जाना चाहिए। रूट का मतलब ये कि ये लाल बत्ती वाले मंत्री लोग जिस रास्ते से जाते हैं उस रास्ते को पूरी तरह से लोगों के लिए रोक दिया जाता है। अच्छा लगता है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चंडीगढ़ में एक कार्यक्रम में जाते हैं। और लोगों से क्षमा मांगते हैं कि उनके कार्यक्रम की वजह से लोगों को कष्ट हुआ। लेकिन, ये सरकार नियमित व्यवहार का हिस्सा होना चाहिए। अगर ये हो पाया तभी शायद नरेंद्र मोदी के मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस की बात साकार हो पाएगी। इक्कीसवीं सदी में तो लाल बत्ती की ये लालफीताशाही बर्दाश्त के बाहर है। 

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