Tuesday, June 28, 2016

ब्रिटेन की ‘आजादी’ से भारत का भला

पिछले साल नवंबर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ यूरोपीय यूनियन पर जनमत संग्रह के लिए तैयार हो रही जनता से एक तरह से यूरोपीय संघ के साथ रहने की ही गुजारिश की थी। नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारतीय नजरिये से यूरोप में जाने का दरवाजा ब्रिटेन ही है। और ग्रेट ब्रिटेन ने उसके बाद जनमत संग्रह में यूरोप से अलग होने का फैसला कर लिया। हालांकि, अब ब्रिटेन के अंदर ही नए सिरे से यूरोप में बने रहने के लिए आवाज मुखर हो रही है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल भारतीय संदर्भ में ये है कि क्या यूरोप का दरवाजा अलग हो जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा या फायदा। दुनिया में हो रहे किसी भी घटनाक्रम का पहला आर्थिक असर शेयर बाजार के उतर-चढ़ाव से ही तय होता है। और इस नजरिये से देखें तो भारतीय शेयर बाजार ने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के फैसले को बेहद खराब तरीके से देखा। सेंसेक्स 24 जून को छे सौ चार अंक से ज्यादा गिरकर बंद हुआ। इससे ये एक सामान्य धारणा हम भारतीयों के मन में पक्की हुई है कि ब्रिटेन के यूरोप से अलग होने से भारत के लिए आर्थिक तौर पर ढेर सारी मुसीबतें आने वाली हैं। मीडिया में ब्रिटेन में भारतीय कंपनियों के ढेर सारे हितों को भी कमजोर होने की खबरें आ रही हैं। बताया जा रहा है कि कैसे टाटा ग्रुप का एक दिन तीस हजार करोड़ रुपया घट गया। मीडिया में आ रहे इन विश्लेषणों के बाद ये लगने लगा है कि भारतीय रुपया और अर्थव्यवस्था के लिए ये फैसला भारी पड़ने वाला है। लेकिन, एक मुझे लगता है कि शेयर बाजार की प्रतिक्रिया और दूसरे विश्लेषण एक तत्कालिक प्रतिक्रिया भर हैं।
ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के ढेर सारे पहलू हैं। जिस पर अलग-अलग चर्चा की जानी चाहिए। राष्ट्रवाद का उभार या फिर कहें कि अपनी परिसंपत्तियों पर दूसरों के हक जताने के खिलाफ जागरुकता का परिणाम भी इसे कह सकते हैं। लेकिन, फिलहाल सिर्फ एक पहलू को समझने की जरूरत है कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर किस तरह से असर पड़ सकता है। निश्चित तौर पर एक इतनी बड़ी घटना है जो, कई दशकों में एक बार होती है। इसलिए इसका अच्छा-बुरा दोनों ही असर दुनिया पर देखने को मिलेगा और भारत पर भी। लेकिन, इसकी बड़ी सच्चाई ये है कि आर्थिक तौर पर इस घटना का ज्यादा असर ब्रिटेन, यूरोप और अमेरिका पर पड़ने वाला है। भारत या दूसरे विकासशील देशों पर इसका खास असर नहीं पड़ने वाला है। सीएलएसए के इक्विटी स्ट्रैटेजिस्ट क्रिस्टोफर वुड इसे और साफ करते हैं। वुड का कहना है कि ब्रेक्सिट मुद्दे का संदर्भ विकासशील बाजारों के लिए बिल्कुल नहीं है। बाजार की भावनाओं के लिहाज से इसका कुछ असर विकासशील बाजारों पर देखने को मिल सकता है। लेकिन, यूनाइटेड किंगडम के यूरोप से अलग होने से विकासशील देशों और खासकर भारत के मजबूत आर्थिक आधार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। एक बात ये हो रही है कि इससे भारत में आने वाले निवेश पर फर्क पड़ सकता है। हालांकि, ज्यादा खतरा ब्रिटेन के है क्योंकि, भारतीय कंपनियां वहां एफडीआई का बड़ा स्रोत हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि इससे भारतीय कंपनियों के लिए और सहूलियतें बढ़ेंगी। क्योंकि, यूरोप से बाहर होने के बाद जब यूरोपीय बाजार के मद्देनजर ब्रिटेन से अपन काम कर रही भारतीय कंपनियों को अपना यूरोपीय बाजार कम होता हुआ दिखेगा, तो वो वहां से बाहर जाने का मन बनाएंगी। और ऐसी स्थिति में ब्रिटेन को भारतीय कंपनियों को ज्यादा सहूलियतें देनी ही पड़ेंगी। वैसे भी 2018 में जब यूरोपीय संघ ये तय करेगा कि ब्रिटेन से काम करने वाली कंपनियों को यूरोपीय संघ के सदस्य देशों को मिलने वाली छूट मिलनी चाहिए या नहीं। तभी तय हो पाएगा कि ब्रिटेन में भारी निवेश कर रही भारतीय कंपनियों को कितना फायदा नुकसान होगा। तब तक ब्रिटेन की तरफ से करों में छूट और नियमों-शर्तों में बड़ी ढील भी भारतीय कंपनियों को मिल सकती है। चूंकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2015 में डेविड कैमरन के साथ खड़े होकर ये कहा कि ब्रिटेन यूरोप का दरवाजा है, तो इससे ये आभास होता है कि भारत के लिए अब ब्रिटेन और यूरोप के साथ संबंधों को एक साथ बेहतर रख पाना मुश्किल होगा। लेकिन, आज के संदर्भों में भारत-यूरोप के बेहतर संबंध भारत से ज्यादा यूरोप के हित में है। अब ब्रिटेन के बाहर जाने से यूरोप के लिए और जरूरी हो जाएगा कि वो भारत के साथ अपने आर्थिक संबंध बेहतर करे। अमेरिका और चीन को संतुलित रखने के लिए भी जरूरी है कि यूरोप के आर्थिक संबंध भारत से बेहतर हों। क्योंकि, दुनिया की सबसे तेजी से तरक्की करती अर्थव्यवस्था के साथ खराब रिश्ते किसी भी देश या देशों के संघ के लिए बेहतर नहीं होंगे। इसीलिए भले ही ब्रिटेन के यूरोप से निकलने से तुरंत भारत को कुछ नुकसान भी हो। लेकिन, लंबे समय में भारत के लिए यूरोप से शुद्ध मुनाफे की ही स्थिति बनेगा। इसीलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली का ये बयान तार्किक समझ में आता है। ब्रेक्सिट का भारत पर किस तरह का असर होगा, इस सवाल के जवाब में अरुण जेटली ने कहा कि प्रचुर विदेशी मुद्रा भंडार, तेज तरक्की की रफ्तार, काबू में महंगाई, काबू में चालू खाते का घाटा और वित्तीय अनुशासन अगर है, तो उस देश पर इस तरह की घटनाओं का खास असर नहीं होगा और इन सब कसौटी पर भारत खरा उतरता है।
ब्रिटेन में भारतीय मूल के बड़े उद्योगपति जी पी हिंदुजा का ये कहना कि इससे भारत-ब्रिटेन के संबंध और मजबूत होंगे, ये दर्शाता है कि ब्रेक्सिट का भारत को नुकसान कम, फायदा ज्यादा होने वाला है। हिंदुजा ने कहा कि इससे दोनों देशों के बीच कारोबार और निवेश में बढ़ोतरी होगी। दरअसल ब्रेक्सिट में भारत के फायदे की ढेर सारी खबरें छिपी हुई हैं। भारत तेल और दूसरी कमोडिटीज का बड़ा आयातक है। उम्मीद की जा रही है कि ब्रिटेन के यूरोप से बाहर निकलने से कमोडिटीज की कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा, मतलब कीमतें कम होंगी। जिसकी सीधा फायदा भारत को ही होने वाला है। एक और जो अच्छे से समझने वाली बात है। दरअसल बार-बार ये भी चर्चा हो रही है कि भारत में आने वाला विदेशी निवेश इससे घट सकता है। इसमें तथ्य समझने की जरूरत है। तथ्य ये है कि यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम दोनों से ही भारत को आने वाले निवेश में पिछले कुछ समय में पर्याप्त कमी आ चुकी है। मार्च में खत्म हुए वित्तीय वर्ष में भारत में ब्रिटेन से आने वाला विदेशी निवेश साढ़े सोलह प्रतिशत घट चुका है। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि भारत में ब्रिटेन से आने वाले विदेशी निवेश का ब्रिटेन के यूरोपीय संघ को छोड़ने से कोई ताल्लुक नहीं है। हां, भारतीयों के लिए ये अच्छी खबर जरूर हो सकती है कि पाउंड की कीमत घटने से भारतीयों के लिए ब्रिटेन खरीदारी का बड़ा अड्डा बन सकता है। विदेश घूमने जाने वालों और ब्रिटेन के विश्वविद्यालय में पढ़ने की इच्छा रखने वाले भारतीयों के लिए ब्रेक्सिट अच्छी खबर की तरह आता दिख रहा है।
यूरोपीय संघ के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते में आने वाला अड़ंगा भी दूर हो सकता है। ब्रिटेन के अलग होने के बाद यूरोपीय संघ भारत से समझौता करने में लचीला रुख अपना सकता है। भारत के पक्ष में एक और जो बड़ी बात है कि पहले से ही भारत की निर्यात पर निर्भरता बहुत कम है। क्रेडिट सुइस के मुताबिक, अगर ब्रेक्सिट से मंदी के आसार बनते हैं, तो मलेशिया, हांगकांग, वियतनाम और सिंगापुर पर सबसे बुरा असर होगा। जबकि, भारत, इंडोनेशिया और चीन पर सबसे अंत में इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। यूरोपीय संघ के नियमों से मुक्त ब्रिटेन का बाजार भारतीय कंपनियों, उत्पादों के लिए एक आसान बाजार बन सकता है।

 (ये लेख दैनिक जागरण के आज के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)

Tuesday, June 14, 2016

इलाहाबाद में भाजपा कार्यसमिति से संदेश

उत्तर प्रदेश चुनाव के लिहाज से संदेश देने के लिए भाजपा ने इलाहाबाद अच्छी जगह चुनी। मुझे लग रहा था कि राष्ट्रीय कार्यसमिति इलाहाबाद में करने के बावजूद जो संदेश इलाहाबाद से भारतीय जनता पार्टी दे सकती थी। वो नहीं दे पा रही है। ये मुझे लगा, जब मैंने देखा कि कार्यसमिति से आ रही मंच की तस्वीरों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली दिखे। इलाहाबाद ने भले डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को चुनाव हरा दिया था और वो बनारस से होते कानपुर चले गए। लेकिन, ये भी सच है कि इलाहाबाद डॉक्टर जोशी का शहर है। एक अजीब सा प्यार-नफरत का रिश्ता यहां के लोगों का डॉक्टर जोशी के साथ है। इसलिए अच्छा होता कि इस शहर में जोशी जी को पूरा सम्मान मिलता दिखता। इसीलिए मैंने लिखा कि उम्मीद है रैली स्थल पर डॉक्टर जोशी को सही जगह मिलेगी। और मंच पर डॉक्टर जोशी को अपना प्रेरणास्रोत बताकर नरेंद्र मोदी ने ये दिखा दिया कि उनकी फीडबैक मशीनरी कितनी दुरुस्त और स्वतंत्र है। इतना ही नहीं इलाहाबाद की इस रैली ने लक्ष्मीकांत बाजपेयी के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को एक मजबूत ताकतवर ब्राह्मण नेता दे दिया है। ये बात मोदी और अमित शाह समझते हैं कि डॉक्टर जोशी और कलराज मिश्र अब ज्यादा उम्र के हो चले हैं। जबकि, लक्ष्मीकांत बाजपेयी अगले एक दशक तो भारतीय जनता पार्टी के अगुवा बने रह सकते हैं।

इसीलिए मुझे लग रहा है कि इलाहाबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति से बीजेपी जो संदेश देना चाहती थी। वो काफी हद तक सफल रही है। ब्राह्मण यूपी में वोटबैंक बन रहा है। उसमें काफी बेचैनी है। मंच का संचालन पूर्व यूपी बीजेपी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी से कराकर और जोशी जी के अलावा कलराज मिश्र को भी सम्मान देकर मोदी ने उस बेचैनी को कम करने की कोशिश की है। बेहद सादगी वाले नेता लेकिन, दबंग अध्यक्ष रहे बाजपेयी के लिए मोदी-शाह की जोड़ी बड़ी भूमिका देख रही है। जबकि, उत्तर प्रदेश में कुछ भाजपा नेता बाजपेयी को चुका हुआ बताने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे थे। यही वजह रही कि बाजपेयी अध्यक्ष पद से हटने के बाद थोड़ा किनारे-किनारे ही चल रहे थे। लेकिन, फिर से इतने बड़े मंच के संचालन से बाजपेयी फिर से प्रदेश की राजनीति के अगुवा नेता हो गए हैं। मंच पर एक घटना से समझा जा सकता है कि बाजपेयी का कद अभी बीजेपी में बढ़ना ही है। मंच पर मौजूद और मंच देख रहे भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं के लिए ये बड़ी घटना थी कि केंद्रीय नेतृत्व के कहने से लक्ष्मीकांत बाजपेयी की कुर्सी दूसरी पंक्ति से पहली पंक्ति में आ गई। यूपी भाजपा के एक बड़े पदाधिकारी खुद कुर्सी आगे लेकर आए। इसी से समझा जा सकता है कि पार्टी प्रदेश में ब्राह्मण नेतृत्व अब बाजपेयी को ही बनाना चाह रही है।

इलाहाबाद की भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति से कई संदेश साफ हैं। भाजपा नेता स्थानीय स्तर पर सांप्रदायिकता की बात करेंगे। लड़ेंगे। @AmitShah कैराना की बात कर सकते हैं। लेकिन, @narendramodi सबका साथ सबका विकास के अपने नारे पर कायम रहेंगे। यूपी चुनाव में भी भाजपा कतई हिंदुत्व को मुख्य मुद्दा नहीं बनाएगी। संदेश देने के मामले में प्रधानमंत्री के मुकाबले का कोई नेता नहीं है। इसका अंदाजा उससे भी लगा जब वो कार्यक्रम से इतर इलाहाबाद के कंपनी बाग में शहीद क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंच गए। आजाद के सामने झुके मोदी की ये तस्वीर बहुत कुछ कह देती है। कहते हैं कि एक तस्वीर हजार शब्दों से ज्यादा बोल देती है। राजनीति में एक श्रद्धांजलि लाखों वोट दिला सकती है। तस्वीर तो बोल ही रही है।

इलाहाबाद की भाजपा कार्यसमिति से ये बात भी लगभग तय है कि उत्तर प्रदेश में पार्टी किसी चेहरे को आगे नहीं करेगी और कम से कम उस चेहरे को तो कतई नहीं, जो दबाव बनाकर सीएम का दावेदार बन जाना चाहता है। और यही बेहतर होगा, ये बात मैंने उत्तर प्रदेश कानया प्रदेश अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद कही थी। क्योंकि, मायावती, अखिलेश के मुकाबले चेहरा नहीं लड़ सकता। हां, बीजेपी जरूर सपा, बसपा से लड़ सकती है।

Sunday, June 12, 2016

रघुराम के राज में मध्यवर्ग ‘रामभरोसे’

रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर रघुराम राजन पहली बार मौद्रिक नीति जारी करने जा रहे थे। चार सितंबर 2013 को रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभाला था और बीस सितंबर को उनकी पहली मौद्रिक नीति जारी होने वाली थी। बैंक, बाजार, आम जनता सभी को आशा थी कि रघुराम राजन की नीति से बैंक कर्ज सस्ता होगा। जिससे लोगों की जेब पर पड़ रहा अतिरिक्त बोझ घटेगा। रुपया डॉलर के मुकाबले सत्तर के भाव से मजबूत हो रहा था। सेंसेक्स भी फिर से इक्कीस हजार की तरफ बढ़ रहा था। और कच्चे तेल का भाव भी एक सौ बारह डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई से वापस लौट रहा था। छे प्रतिशत से कुछ ऊपर की महंगाई दर थी। और ये महंगाई दरअसल खाने-पीने के सामानों उसमें भी खासकर प्याज की महंगाई की वजह से थी। मतलब कुल मिलाकर ब्याज दरें घटाने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास भरपूर वजहें थीं। लेकिन, हुआ ये कि रघुराम राजन की दूरदृष्टि दरअसल महंगाई दर के घटने का इंतजार कर रही थी। राजन की इस दूरदृष्टि का उल्टा असर ये हुआ कि देश के सबसे बड़े और सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने बीस सितंबर की मौद्रिक नीति के बाद ब्याज दरें बढ़ा दीं। पहले से ही मौके की ताक में बैठे निजी बैंक तो जैसे इसी के इंतजार में थे। मेरे बैंक ने भी ब्याज दरें बढ़ाईं और मुझे सूचित किया कि आपकी 240 महीने की अवधि बढ़कर 255 महीने हो गई है। मतलब साढ़े दस प्रतिशत पर लिया गया मेरा कर्ज अब बीस साल के बजाए इक्कीस साल से ज्यादा का हो चुका था। ये रघुराम राजन का आगाज था। जबकि, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के तब के चेयरमैन प्रतीप चौधरी इन्हीं रघुराम राजन के इंतजार में थे कि जब नया गवर्नर आएगा, तो ब्याज दरें घटाएगा या घटाने के संकेत देगा। लेकिन, जब सितंबर की मौद्रिक नीति में रेपो रेट नहीं घटा, तो प्रतीप चौधरी ने ये कहते हुए ब्याज दरें बढ़ा दी कि जुलाई से करना जरूरी था। अब तीन साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद रघुराम राजन की विदाई के संकेत हैं। और इन तीन सालों में रघुराम राजन ने इस तरह से लोगों के मन में धारणा पक्की हो गई है कि ये गवर्नर अपनी तथाकथित दूरदृष्टि के चक्कर में मध्यवर्ग के खिलाफ ही फैसले लेगा। इसीलिए जब सात जून 2016 को मौद्रिक नीति आई, तो कोई चौंका नहीं और रघुराम राजन ने फिर महंगाई के बढ़ने का हवाला देकर रेपो रेट साढ़ेछे प्रतिशत ही बरकरार रहने दिया।

पहले से ही रेपो रेट न बदलने के संकेत थे इसलिए बाजार मजे में है। उद्योग संगठन और बैंक भी उसी लिहाज से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मौद्रिक नीति देखेंगे, तो रघुराम राजन ने रेपो रेट में कटौती न करने के अपने फैसले को मजबूती देते हुए महंगाई दर के बढ़ने का डर सामने रख दिया है। लेकिन, यहां ये समझना जरूरी है कि लगातार सत्रह महीने से महंगाई दर में कमी के बाद अप्रैल पहला महीना था जब महंगाई दर बढ़ी है। और अगर 2015 की शुरुआत से राजन के कार्यकाल में हुई कुल ब्याज कटौती की बात करें, तो ये कुल डेढ़ प्रतिशत रही है। और इसमें से भी सिर्फ आधा यानी पौना प्रतिशत का ही फायदा बैंकों ने लोगों को दिया है। यानी मध्यवर्ग के लोगों को सस्ते कर्ज के लिए फिलहाल अब नए रिजर्व बैंक गवर्नर के आने का इंतजार करना होगा। क्योंकि, एक सौ बारह डॉलर के भाव पर कच्चे तेल से कार्यकाल की शुरुआत के बाद पचास डॉलर के आसपास के भाव पर भी राजन आगे महंगाई घटने का इंतजार कर रहे हैं, तो ये दूरदृष्टि कहा जाएगा या दृष्टिदोष इस पर भी विचार करने की जरूरत है। क्योंकि, ये अजीब स्थिति है कि भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने राजन पर सवाल क्या उठाया, अंतर्राष्ट्रीय लॉबी के साथ देश में भी अर्थशास्त्र के जानकार राजन के कार्यकाल की स्वस्थ समीक्षा करने के बजाए रघुराम राजन को शहीद घोषित करने की कोशिश में लग गए हैं। एक बड़े अंग्रेजी आर्थिक पत्रकार ने तो काफी आगे जाकर पूरा लेख लिख मारा कि कैसे राजन को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला, तो देश से विदेशी पूंजी ही गायब हो जाएगी। ऐसे अर्थशास्त्र के जानकारों की बुद्धि पर तरस आता है। ऐसे तो देश में चुनाव की जरूरत ही नहीं है। सीधे एक अच्छा रिजर्व बैंक गवर्नर चुना जाए और अपने आप विदेशी निवेशक दौड़ता-भागता भारत आ जाएगा।

विदेशी निवेश के आने का किसी देश के बैंक गवर्नर से संबंध का कोई उदाहरण दुनिया में नहीं है। ये सीधे तौर पर किसी देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती से तय होता है। देश के नेता की मजबूती से तय होता है। देश की नीतियों से तय होता है। देश की नीतियों को कैसे उस देश की सरकार लागू कर रही है, उससे विदेशी निवेश का आना तय होता है। इसलिए अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों के बजाए किसी गवर्नर के भरोसे पूरी अर्थव्यवस्था के बदलाव की स्थितियों को बनते देखने वालों की बुद्धिहीनता से ज्यादा एक साजिश दिखाता है, जिसकी तरफ सुब्रमण्यम स्वामी इशारा कर रहे हैं। क्योंकि, जिस महंगाई के बढ़ने की बात बार-बार रिजर्व बैंक की ताजा पॉलिसी में की गई है। उसे तैयार करते समय कम से कम दो साल बाद देश में पक्के तौर पर आने वाले शानदार मॉनसून को ध्यान में रखा गया होगा। ऐसा तो माना ही जाना चाहिए। फिर भी महंगाई दर का डर दिखाकर मध्यवर्ग और छोटे-मंझोले उद्योगों को सस्ते कर्ज से दूर रखकर राजन बेहतर नीति नहीं बना रहे हैं। जिस डूबते कर्ज को लेकर राजन की छवि किसी बैंकिंग हीरो जैसी बनी है। उस पर भी चर्चा करना जरूरी है। रघुराम राजन चार सितंबर दो हजार तेरह को रिजर्व बैंक के गवर्नर बने थे। लेकिन, उससे पहले 2007 रघुराम राजन यूपीए की सरकार के साथ थे। 2007-08 में आर्थिक मामलों के सुधार पर बनी समिति के अध्यक्ष थे। 2008-12 तक वो प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार थे। 2012 से रिजर्व बैंक गवर्नर बनने तक रघुराम राजन देश के वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। अब 2007 से लेकर 2013 तक देश में आर्थिक अराजकता कहां पर थी। इसके आंकड़े बताने की शायद ही जरूरत हो। यही वो समय था जब देश में बैंकों का एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स लगातार बढ़ रहा था। मतलब आज नरेंद्र मोदी की सरकार के समय रिजर्व बैंक गवर्नर के तौर पर रघुराम राजन जिस डूबते कर्ज को लेकर बैंकों को धमका रहे हैं। दरअसल इसके बढ़ने का असल समय वही था जब राजन आर्थिक सुधार वाली कमेटी के मुखिया थे। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार थे और तत्कालीन वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे।

इसलिए मुझे लगता है कि सुब्रमण्यम स्वामी के आरोपों को राजनीतिक विरोध के नजरिये से देखने के बजाए इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि आखिर रघुराम राजन ने सही मायने में गवर्नर के तौर पर क्या अच्छा-बुरा किया। राजन के गवर्नर बनने के कुछ ही महीने बाद देश में एक मजबूत सरकार थी। दुनिया में उसकी साख बेहतर थी। महंगाई दर बहुत कम हो गई थी। कच्चा तेल काबू में था। इस सबके बाद भी अगर राजन के खाते में कुछ खास नहीं दिखता, तो राजन की काबिलियत पर संदेह उठना स्वाभाविक है। क्योंकि, देखने से तो यही लगता है कि एक सेलिब्रिटी गवर्नर यूपीए के समय में हिंदुस्तान को मिला जिसकी कीमत एनडीए सरकार के समय में जनता चुका रही है। और इस तरह से देश की अर्थव्यवस्था कोअंधों में काना राजा कहने वाले गवर्नर को फिलहाल दूसरा कार्यकाल देने का कोई मतलब नहीं है। मोदी सरकार के लिए ये फैसला इसलिए भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि राजन की नीतियां उसी मध्यवर्ग और छोटे-मंझोले उद्योगों का नुकसान कर रही हैं। जिसने बड़ी उम्मीद से नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री चुना है।
(ये लेख catchHindi और catchenglish पर छपा है)

Wednesday, June 08, 2016

ईमानदारी: मोदी बनाम मनमोहन


प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह पर आज तक कोई दाग नहीं है। हिंदुस्तान की अब तक की सबसे दागदार सरकार पूरे एक दशक तक चलाने के बाद भी उन पर कोई दाग नहीं है। लाखों करोड़ के घोटाले के बाद भी डॉक्टर मनमोहन सिंह ईमानदार ही रहे। भले कोयला मंत्रालय तक उनके पास था। वो प्रधानमंत्री थे। उनके मंत्रियों को जेल तक जाना पड़ा। लेकिन, डॉक्टर मनमोहन सिंह की ईमानदारी बची रही। बनी रही। अब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है। पूरी सरकार पर नहीं है। ईमानदार मनमोहन सिंह पर भ्रष्टाचार करने वाले मंत्री हावी रहते थे। ईमानदार नरेंद्र मोदी पर कोई हावी नहीं है। मंत्री प्रधानमंत्री के बराबर चलने में हांफ रहे हैं। और क्या फर्क है मोदी बनाम मनमोहन सिंह की ईमानदारी में। सिर्फ 3 मिनट मुझे सुनिए

Sunday, June 05, 2016

गांव की थाली

#SelfSustainedVillage ये गुप्तकाशी का एक गांव हुडू है। यहां सभी घर पक्के हैं। और जो थाली आप देख रहे हैं। ये पूरी तरह से इसी गांव की है। मतलब सिर्फ इतना नहीं कि इस गांव के लोगों ने हमें ये थाली खाने के लिए दी। बल्कि, इस थाली में जो कुछ भी वो इसी गांव के खेतों में पैदा हुआ है। इस गांव के मसाले किसान संगठन की मदद से शहरों में भी खूब बिक रहे हैं। और इस पूरी समृद्धि की मालकिन महिलाएं हैं। पहले पहल तो खाना शुरू करते मन में थोड़ी हिच बनी हुई थी। जब खाना शुरू किया तो इतना पौष्टिक और रुचिकर भोजन कि पेट की भूख से ज्यादा खाया।

Saturday, June 04, 2016

मोदी सरकार में मीडिया ऐसा बंटा क्यों है?

करीब 4 दशक के वामपंथ और कांग्रेस के बिना किसी लिखित समझौते के तय हुए सत्ता संस्कार ने देश में बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार होने की शर्त तय कर दी। उसी का परिणाम है कि अब @narendramodi की सरकार आने के बाद अखलाक हो या दूसरा कोई मुद्दा मीडिया दो भागों में साफ तौर पर विभक्त नजर आता है। 2 मिनट का समय हो तो इस लिंक पर जाकर मेरी पूरी बात सुन सकते हैं।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...