Saturday, October 29, 2016

धनतेरस पर धन बरसे

धनतेरस पर भेजे जा रहे संदेशों में एक संदेश खूब जमकर भेजा गया है। वो संदेश है कि आप इतना धन कमाएं कि आपका नाम काले धन वालों की सूची में आ जाए। मेरे पास भी किसी ने भेजा था। अब मैं उनको क्या जवाब देता कि काले धन की सूची में शामिल होने की तो बात ही अलग है। अगर काले धन की कुछ महक भी आती है, तो हम जैसे लोग भयभीत हो जाते हैं। ऐसे ही भयभीत लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काले धन की योजना में औसत प्रति व्यक्ति एक करोड़ रुपये का काला धन घोषित किया। कमाल ये कि इसे प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री बड़ी सफलता बता रहे हैं। ये तो डरे, सरकार-प्रशासन को साध न पाने वाली प्रजाति है। वरना जो साध पाती है, मजे से काले धन से ही सुखी-सम्पन्न है। ये मानते हुए कि कम से कम हमारे सीधे सम्पर्क वाले ज्यादातर हमारी ही तरह हैं। मैं सबके लिए ये शुभकामना करता हूं। धन-लक्ष्मी जी का आशीर्वाद मुझे भी अच्छी ही लगता है। बस जरा डरपोक किस्म का आदमी हूं, इस मामले में।

धनतेरस पर धन बरसे। 
सब पर बरसे। 
लेकिन औक़ात भर। 
मतलब इतना कि जितने धन का सम्मान करने की औक़ात हो। 
जितने धन से मस्त रहा जा सके। 
डरकर अपना सारा सुख ख़त्म न करना पड़ जाए।

Wednesday, October 19, 2016

वृहद, विविध, वैचारिक विवेचना का मंच तैयार है

पांचवां मीडिया चौपाल 22,23 अक्टूबर को हरिद्वार में हो रहा है। संयोगवश सभी मीडिया चौपाल में शामिल होने का अवसर मिला है। पिछले वर्ष ग्वालियर के मीडिया चौपाल में भेड़ियाधंसान ज्यादा होने से चौपालियों में थोड़ा उत्साह कम सा होता दिख रहा था। और ग्वालियर की चौपाल से लौटने के बाद कई लोगों ने मुझसे कहाकि अब अगली चौपाल में नहीं जाऊँगा। ग्वालियर के बाद मेरे मन में भी सवाल बड़ा था कि क्यों मुझे मीडिया चौपाल में जाना चाहिए। इसीलिए हरिद्वार में होने वाली ये पांचवीं मीडिया चौपाल बड़ी महत्वपूर्ण हो चली है। इस चौपाल के लिए पंजीकरण कराने वालों की सूची इस अवसर को और महत्वपूर्ण बना देती है। करीब 300 लोगों ने हरिद्वार में होने वाली इस चौपाल के लिए पंजीकरण किया है। मीडिया चौपाल कराने वाली स्पंदन संस्था के कर्ताधर्ता अनिल सौमित्र का ये व्यक्तित्व प्रभाव दिखाता है कि ग्वालियर के नकारात्मक मोड़ पर खत्म हुए मीडिया चौपाल को उन्होंने सफलतापूर्वक बेहद सकारात्मक मोड़ पर ला दिया है। शायद यही वजह है कि मुझे लग रहा है कि ये अब तक की सबसे अच्छी मीडिया चौपाल होने जा रही है। आयोजन समिति में अनिल सौमित्र ने मुझे शामिल कर लिया, तो पंजीकरण करने वालों के फोन आने से मुझे पहले समझ में आया, फिर जब मैंने पंजीकृत लोगों की सूची देखी, तो ये भरोसा पक्का हुआ। देश के हर हिस्से से इस बार मीडिया चौपाल में शामिल होने के लिए लोग आ रहे हैं। और जब मीडिया चौपाल शुरू हुआ था, तो ज्यादातर नए मीडिया पर काम करने वाले साथियों को मंच देने की मंशा से ही था। लेकिन, धीरे-धीरे इसका स्वरूप वृहद होता गया। और अभी पांचवीं मीडिया चौपाल में हर विधा के पत्रकार, हर धारा के सामाजिक कार्यकर्ता/नेता, ढेर सारे शोधार्थी, पत्रकारिता के छात्र/अध्यापक और संचार से संबंधित अधिकारी भी शामिल हो रहे हैं। पिछली कुछ चौपालों का विषय नदी-पानी होने की वजह से भी थोड़ी नीरसता सी आ गई थी। इस बार का विषय है –

विकास- अवधारणा, विचारधार एवं दृष्टि और मीडिया।  
22-23 अक्टूबर (शनिवार, रविवार) 2016
निष्काम सेवा ट्रस्ट, हरिद्वार, उत्तराखंड

उद्घाटन सत्र इसी मूल विषय पर ही है। दरअसल हरिद्वार में इस मीडिया चौपाल के होने की एक बड़ी वजह दिव्य प्रेम सेवा मिशन का सहयोग है। और इसके लिए संजय चतुर्वेदी का स्वयं आगे बढ़कर सहयोग की बड़ी भूमिका है। चौपाल में विचारक के एन गोविंदाचार्य, श्री हरीश रावत, श्री रमेश पोखरियाल निशंक, प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज, डॉ. राजाराम त्रिपाठी, श्री बलदेव भाई शर्मा, श्री जगदीश उपासने, श्री प्रेम शुक्ल, प्रो कुसुमलता केडिया, डा मनोज कुमार पटैरिया, श्री हरिश्चन्द्र सिंह, श्री अनूप नौडियाल, श्री आशीष गौतम, श्री जयदीप कर्णिक, श्री रवि चोपड़ा, भक्ति निष्काम शांत स्वामी, भक्ति विज्ञान मुनि, श्री मुनव्वर सलीम, प्रो हेमंत जोशी, श्री आर एस बेनीवाल, श्री शिवशंकर जायसवाल, प्रो सुखनंदन सिंह जैसे अनुभवी विषय विशेषज्ञ, कुशल संचारक और महानुभाव होंगे।

इसके अलावा संचारकों की भूमिका, सूचनाओं से बेहाल, संदेशों का अकाल-कैसे हो समाधान, भारत के भावी विकास की दिशा- समस्याएं, चुनौतियां और संभावनाएं और भावी भारत – मीडिया से अपेक्षा विषय पर सत्र होंगे। जिसमें विषय विशेषज्ञ और मीडिया के लोगों से बात करने का मौका मिलेगा।

इस पांचवीं चौपाल का महत्व इसलिए भी है कि इसी चौपाल में मीडिया चौपाल के स्थाई ठिकाने की भी चर्चा हो सकती है। साथ ही एक स्थाई खाका तैयार करने पर भी चर्चा होगी। खुला सत्र इसीलिए रखा गया है। कुल मिलाकर ये मीडिया चौपाल मीडिया में काम करने वालों के एक स्थाई, गंभीर मंच की बुनियाद बनता दिख रहा है। फिर हरिद्वार में ही मुलाकात होती है।

Tuesday, October 18, 2016

भइया यूपी में किसी नेता के पास जातीय मत हैं नहीं

घोर कांग्रेसी रीता बहुगुणा जोशी बीजेपी में आ सकती हैं। और वो आएंगी तो बड़े ब्राह्मण नेता के तौर पर आएंगी, ऐसा कहा जा रहा है। एक भाई विजय बहुगुणा पहले से ही बीजेपी में हैं। हालांकि, रीता पहले भी समाजवादी पार्टी में रही हैं। लेकिन, बीजेपी में उनके जाने की अटकलों को ब्राह्मणों को लुभाने की कांग्रेसी कोशिश में एक बड़ी बाधा के तौर पर देखा जा रहा है। जबकि, उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा नेता हो अपनी जाति को पूरी तरह से बांधकर रखने की ताकत रखता हो। उत्तर प्रदेश में जाति-जाति सब चिल्ला रहे हैं। जातीय नेताओं से लेकर जातीय सम्मेलनों तक की धूम है। एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने वाला नेता जाति के आधार पर ही अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करता दिख रहा है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की जातीय सच्चाई ऐसी है नहीं। दरअसल, उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रदेश बन गया है, जहां किसी भी जाति का वोट पक्के तौर पर किस पार्टी को मिलेगा, ये समझ पाना बड़ा कठिन है। बीजेपी ब्राह्मण, बनिया और अगड़ों की पार्टी, समाजवादी पार्टी को छोड़कर यादव कहीं नहीं जाने वाला और बीएसपी का हाथी छोड़ दलितों को कुछ नहीं लुभाता, खासकर जाटव मायावती के अलावा किसी को नेता नहीं मानते। ये तीनों स्थापित जातीय मान्यताएं उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने बुरी तरह से ध्वस्त की हैं। कम से कम पिछली 2 विधानसभा चुनावों का जातीय वोटिंग पैटर्न तो यही दिखा रहा है। 2014 का लोकसभा चुनाव एक तो लोकसभा का चुनाव था, दूसरे जिस तरह का चमत्कार हुआ था, उसमें जातीय पैटर्न खोजना ज्यादा समझदारी का काम नहीं होगा। बड़ा प्रदेश होने और अगड़ी-पिछड़ी-दलित जातियों के जबरदस्त संतुलन की वजह से इस प्रदेश में किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए आज की तारीख में जाति प्रभावित करने का पक्का वाला फॉर्मूला खोजना कठिन हो गया है।
2012 की बात करते हैं। अखिलेश यादव पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रहे। और इसके पीछे सामान्य धारणा यही रही कि उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने बहनजी को छोड़ दिया और वापस बीजेपी की तरफ चले गए। लेकिन, सच्चाई ये है कि बीएसपी को दरअसल 2012 में ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य तीनों ही जातियों के मत 2007 से ज्यादा मिले हैं। 2007 में पड़े हर 100 ब्राह्मण मतों में से बहुजन समाज पार्टी को 16 मत मिले थे। जबकि, 2012 में 100 में से 19 ब्राह्मण मत हाथी चुनाव चिन्ह पर पड़े थे। और यही ट्रेंड राजपूत और वैश्य मतों में भी बरकरार रहा। हर पड़े 100 मतों में 12 से बढ़कर 14 और वैश्य मत 14 से बढ़कर 15 बीएसपी के खाते में आ गए।
दूसरी सामान्य धारणा ये है कि यादव किसी भी हाल में अपने नेता यानी मुलायम सिंह यादव से दूर नहीं जाता है। और जब 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, तो ये माना गया कि यादवों का पूरा ही मतदान एसपी के पक्ष में हुआ। लेकिन, सच ये है कि यादवों के भरोसे तो अखिलेश यादव की पूर्ण बहुमत की सरकार कतई न बनती। क्योंकि, 2007 में 100 में से 72 यादवों ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान किया था। जबकि, 2012 में 100 में से सिर्फ 66 यादवों ने ही साइकिल की सवारी की। जबकि, 2007 के 100 में से 17 कुर्मी मतों के मुकाबले 2012 में 100 में 35 कुर्मी मत समाजवादी पार्टी को मिले हैं। जबकि, समाजवादी पार्टी में ऐसा कोई स्थापित कुर्मी नेता भी नहीं था। और सिर्फ कुर्मी/कोइरी ही नहीं, समाजवादी पार्टी को दलितों में जाटव मत भी खूब मिले। 2007 में 100 में से सिर्फ 4 मत साइकिल निशान पर मुहर लगा आए थे। लेकिन, 2012 में 100 में से 15 जाटव समाजवादी पार्टी पर भरोसा कर गए। पासी और दूसरी दलित जातियों के मत भी समाजवादी पार्टी को ज्यादा मिले।
ब्राह्मण, राजपूत मतदाताओं ने दरअसल 2012 के चुनाव में हाथी और साइकिल पर 2007 के मुकाबले ज्यादा भरोसा जताया। समाजवादी पार्टी को 2007 में ब्राह्मणों के 100 में से 10 मत मिले थे, जो 2012 में बढ़कर 19 हो गए। इसी तरह राजपूतों का मत 20 से बढ़कर 26 हो गया। वैश्य मतदाताओं का भरोसा न तो समाजवादी पार्टी पर बढ़ा, न घटा।
अब अगर 2012 के विधानसभा चुनावों के आधार पर मिले जातीय मतों के आधार पर देखें, तो बीजेपी की ब्राह्मण, बनिया वाली पार्टी होने की छवि बुरी तरह से टूटती दिखती है। 2007 में 100 में से 44 ब्राह्मणों ने बीजेपी को मत दिया था। इसी तरह 100 में से 46 राजपूत और 52 वैश्यों ने बीजेपी को मत दिया। अन्य अगड़ी जातियों के पड़े 100 में से 41 मत बीजेपी के पक्ष में गए थे। लेकिन, 2012 में सारी अगड़ी जातियां बीजेपी से भागती दिखीं। 100 में से सिर्फ 38 ब्राह्मण, 29 राजपूत, 42 वैश्य और दूसरी अगड़ी जातियों के 17 मत ही बीजेपी को मिले। परंपरागत तौर पर पिछड़ों में कुर्मी मत बीजेपी के नजदीक माना जाता है। लेकिन, 2007 में मिले 42 मतों में से 20 ही बीजेपी के पास बचे रह गए। एक छोटी सी जरूरी जानकारी ये भी है कि 2007 में पड़े मुसलमानों के 100 मतों में से सिर्फ 3 बीजेपी को मिले थे। 2012 में 100 में 7 मुसलमान मत भाजपा के पक्ष में थे।   
दलित मतों की पूरी ठेकेदारी मायावती के पास ही मानी जाती है। लेकिन, 2012 में दलित मतों में भी जाटव वोट तेजी से हाथी से दूर भागते दिखे। 2007 में 100 में से 86 जाटव मत बीएसपी को ही मिले थे। लेकिन, 2012 में 62 मत ही बीएसपी को मिले। वाल्मीकि जातियों के 100 में से 71 मत हासिल करने में बीएसपी को 2007 में कामयाबी मिली थी। 2012 में बीएसपी के हाथ में वाल्मीकि मत सिर्फ 42 रह गए। इसीलिए जातियों के नेताओं के इस पार्टी से उस पार्टी में जाने को गंभीरता से मत लीजिए। वो नेता अपनी इज्जत बचाने के लिए कूदफांद कर रहे हैं। जातीय मत किसी नेता के हाथ में नहीं। 2017 में जातीय मान्यताओं को पूरी तरह ध्वस्त होते देखा जा सकता है। 

Thursday, October 13, 2016

उत्तर प्रदेश में 17वीं विधानसभा हवा में उड़ते वोटों का चुनाव है

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। ये सबसे बड़ा प्रदेश कई बार देश की राजनीति के बदलावों को भी सबसे आगे बढ़कर रास्ता दिखाता रहा है। 2017 के विधानसभा चुनावों में भी एक ऐसा ही रास्ता बनता दिख रहा है। वो रास्ता है जाति संघर्ष से आगे बढ़कर जाति प्रतिस्पर्द्धा की राजनीतिक यात्रा के शुरू होने का। बेहद कठिन जातीय खांचे में बंटे उत्तर प्रदेश में इस बार जातियों के वोट पाने के लिए राजनीतिक दलों को गजब की मशक्कत करनी पड़ रही है। कुल मिलाकर जातीय चेतना का एक चक्र पूरा हो चुका है।
दिसंबर 1989 में जब पहली बार मंडल की लहर पर सवार होकर मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, उस समय वो ऐसे गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन बंजर कर दी थी। इससे पहले चरण सिंह, बनारसी दास और रामनरेश यादव गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे लेकिन, उनका कार्यकाल बड़ा छोटा रहा। लेकिन, जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तो वो अति पिछड़ी जातियों के अकेले नेता बन गए। किसी एक जाति समूह को लेकर राजनीति की ऐसी मजबूत बुनियाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने ही तैयार की थी। उससे पहले तक अगड़ी जातियों के ही नेता सबके नेता होते थे। ये और बात है कि  पिछले करीब 3 दशक में पिछड़ों से सिर्फ यादव और अब यादवों में भी परिवारी यादवों के नेता बनते मुलायम सिंह यादव नजर आ रहे हैं।
पिछड़ों की राजनीतिक चेतना जाग्रत होने के बाद उत्तर प्रदेश में दलितों को जाग्रत अवस्था तक पहुंचने में डेढ़ दशक से ज्यादा लग गए। जून 1995 में पहली बार एक दलित मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंची। मायावती जब मुख्यमंत्री बनीं, तो वो सिर्फ जाटव नेता नहीं थीं। मायावती दलित नेता बनकर उभरीं। लेकिन, अपने उत्तराधिकारी के बारे में बात करते और जिलों में महत्वपूर्ण पदों पर दलितों में सबसे ज्यादा आबादी वाले जाटवों को कब उन्होंने इतना प्रश्रय दे दिया कि दूसरी दलित जातियां उनको नेता मानने से बिदकने लगीं, ये अंदाजा शायद उन्हें भी नहीं होगा। मायावती और मुलायम सिंह यादव ही वो नेता हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में मजबूती से एक जाति के वोटबैंक के आधार पर सत्ता हासिल की। करीब 20% के इस पक्के वाले वोटबैंक में बीजेपी के विरोध में जाने वाला 18-19% मुसलमान जुड़कर जीत की गारंटी देता रहा। कांग्रेस मंडल और कमंडल में उत्तर प्रदेश से एकदम गायब सी हो गई। बीएसपी, एसपी और बीजेपी के स्थानीय समीकरणों में होने वाली गड़बड़ के आधार पर कहीं भूले-बिसरे कांग्रेस के प्रत्याशी भी विधानसभा तक पहुंचते रहे। लेकिन, मोटे तौर पर देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस लगभग गायब ही रही। इस वजह से भी MY और DM समीकरण उत्तर प्रदेश की दशा-दिशा तय करता रहा। इस दौरान राममंदिर आंदोलन का असर खत्म होने के बाद बीजेपी पर पूरी तरह से ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि चस्पा रही। लेकिन, 2007 में मायावती ने सतीश मिश्रा को चेहरा बनाकर 14% ब्राह्मणों को सम्मान का सफलतापूर्वक अहसास दिला दिया और पहली बार पूर्ण बहुमत की सत्ता हासिल कर ली।
अगर उत्तर प्रदेश की राजनीति में आए जातिगत बदलावों की बात करें, तो 1989 पिछड़ों के राजनीतिक उभार, 1991 हिन्दू राजनीति के उभार, 1995 दलित राजनीति के बढ़ता प्रभाव और 2007 हिन्दू समाज के सबसे ऊपर और नीचे के पायदान पर खड़ी मानी जाने वाली जातियों के गठजोड़ के तौर पर जाना जाएगा। लेकिन, 2014 का लोकसभा चुनाव इन सबसे हटकर रहा। उत्तर प्रदेश में जातियां और जातियों के नेता गायब हो गए। गुजरात के एक नेता नरेंद्र मोदी के प्रभाव में उत्तर प्रदेश ने चमत्कारिक जनादेश दे दिया। और उसी से आगे बढ़ते अब जब उत्तर प्रदेश की 17वीं विधानसभा चुनने के लिए 2017 में चुनाव होना है, तो लग रहा है कि ये पहला चुनाव है जिसमें किसी जाति को ये नहीं पता है कि उसकी पार्टी कौन सी है। राजनीतिक दलों को भी मुश्किल हो रही है कि आखिर उनकी आधार जाति का वोट उन्हें मिल रहा है या नहीं। कमाल तो ये है कि सिर्फ बीजेपी विरोध पर ही वोट करता चला आ रहा मुसलमान भी इस बार पक्के तौर पर कुछ कहने-बताने की स्थिति में नहीं है। दरअसल इस सबके पीछे सबसे बड़ी वजह यही है कि राजनीतिक दल अपनी परंपरागत जातियों के खांचे को तोड़कर दूसरी जातियों को जोड़ने के लिए अभियान सा चला रहे हैं। थोड़ा बहुत अगर कहें, तो यादव और जाटव ही दो जातियां हैं, जो अभी भी अपने नेताओं में भरोसा रखे हुए हैं। अभी भी उत्तर प्रदेश में यादव मुलायम सिंह यादव और जाटव मायावती के अलावा किसी और को नेता मानने को तैयार नहीं हैं। लेकिन, यादव परिवार की अंदरूनी कलह और मायावती के नजदीकी कई जाटव नेताओं के बीएसपी का साथ छोड़ने से इन जातियों में भी बहस शुरू हो गई है कि आखिर इन्हीं नेताओं पर भरोसा कायम रखा जाए या नए नेताओं को भी विकल्प के तौर पर आजमाया जा सकता है। मोटे तौर पर यादव और जाटव दोनों ही जातियां 20% के आसपास हैं। और यही दोनों जातियों सबसे बड़े मत समूह के तौर पर एक साथ हैं। इसी वजह से मुलायम सिंह यादव और मायावती के आगे उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी का बड़ा से बड़ा नेता भी छोटा लगता है। इसीलिए बीजेपी दलितों और अति पिछड़ों में कुछ सेंध लगाने के लिए हर संभव कोशिश में जुट गई है।

हर जाति राजनीतिक दलों को तौल रही है। किसी दल के साथ बंध रहने की छवि टूटी तो पार्टियों की बीच आपसी प्रतिस्पर्द्धा से हर जाति का सम्मान बढ़ा है। चुनाव नजदीक आते जातियों और पार्टियों के बीच विद्वेष बढ़ जाता था। इस बार का चुनाव ऐसा दिख रहा है कि चुनाव नजदीक आते हर जाति एक दूसरे से मुकाबले में है। हर जाति चुनावी बाजार में बेहतर से बेहतर बोली आजमा रही है। और ये कहना बहुत गलत नहीं होगा कि इसी वजह से इस चुनाव में जातियों के बीच झगड़ा कम है। जातीय संघर्ष की खबरें भी नहीं हैं। ये उत्तर प्रदेश में हवा में उड़ते वोटों का चुनाव दिख रहा है। जिस राजनीतिक दल में हवा में उड़ते इन वोटों को साधने की बेहतर क्षमता होगी, वो चुनाव जीतने के ज्यादा नजदीक पहुंच जाएगा। हर जाति जाग्रत अवस्था में है। हर जाति अपनी ताकत समझ रही है। लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इतना कि बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार मुसलमानों के बीच प्रोग्रेस पंचायत कर रही है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में संवाद महत्वपूर्ण हो गया है। चुनाव नजदीक आते हर राजनीतिक दल, हर जाति-संप्रदाय के लोगों तक पहुंच जाना चाहता है। ताकि, सनद रहे। हम भी आए थे। जाने कौन सा मिलन चुनावी गठजोड़ में बदल जाए। 

Tuesday, October 11, 2016

100000 करोड़ रुपये का बैड लोन है राहुल गांधी का किसान मांग पत्र

देवरिया से दिल्ली पहुंचे राहुल गांधी ने संसद मार्ग पर एक ऐसा शब्द बोल दिया कि जिस मकसद से राहुल गांधी और कांग्रेस ने पूरी खाट पर चर्चा की थी, उसके मायने ही खत्म हो गए। नरेंद्र मोदी पर सैनिकों के खून की दलाली के लिए राहुल गांधी की जमकर आलोचना हुई। इस कदर कि कांग्रेस को अपने युवराज को बचाना मुश्किल सा हो गया। ये ऐसा बयान था जिसकी आलोचना होनी ही चाहिए। लेकिन, ये बयान पूरी तरह से राजनीतिक बयान है और इसका कोई बहुत सीधा असर नहीं पड़ने वाला है। लेकिन, राहुल गांधी की बड़ी आलोचना जिस बात के लिए होनी चाहिए। उसकी चर्चा शायद ही कहीं हो रही है। राहुल गांधी और कांग्रेस एक ऐसी जमीन तैयार कर रहे हैं जिससे देश की तेज तरक्की की राह में बड़ी रुकावट आ सकती है। जब केंद्र सरकार सरकारी बैंकों के डूबते कर्ज पर पूर्व सीएजी विनोद राय की अगुवाई में बनी समिति से ये चाह रही है कि सरकारी बैंकों के डूबते कर्ज से बैंकों को डूबने से बचाने की कोई राह निकाली जाए, ऐसे समय में राहुल गांधी ने सरकारी बैंकों को कम से कम 100000 करोड़ रुपये के बैड लोन के जाल में डालने की जमीन तैयार कर दी है। और ये जमीन तैयार हो रही है राहुल गांधी कि किसान यात्रा में किसानों के मांग पत्र से।
देवरिया से दिल्ली की यात्रा के दौरान राहुल गांधी का पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश के किसानों पर ही रहा। वो लगभग हर सभा में ये बताते रहे कि केंद्र सरकार बड़े-बड़े उद्योगपतियों के अरबों के कर्ज नहीं वसूल पा रही है। लेकिन, किसानों से कर्ज वसूली हर कीमत पर करना चाहती है। और उन्होंने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उत्तर प्रदेश के किसानों को भरोसा देने की कोशिश की, कि वो उनका कर्ज माफ कराएंगे। कमाल की बात तो ये है कि राहुल गांधी कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में उनकी सरकार आई तो 10 दिनों में किसानों का सारा कर्ज माफ कर दिया जाएगा। लेकिन, राहुल गांधी का ये आश्वासन झूठी बुनियाद पर किस तरह से टिका है, इसे देखिए। उत्तर प्रदेश में हर किसी को पता है कि इस तरह की किसान यात्रा और खाट पर चर्चा से मीडिया में भले ही कांग्रेस चर्चा में आ गई हो। लेकिन, इतना तो तय है कि अभी भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चौथे स्थान की ही पार्टी है। हां, हो सकता है कि चौथा स्थान थोड़ा ऊपर चला आए। चलिए अब चमत्कार को नमस्कार के सिद्धांत को मानते हुए कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में सरकार बन जाती है। तो क्या किसी राज्य की सरकार के पास इस तरह के वित्तीय अधिकार होते हैं कि वो किसानों के सरकारी बैंक से लिए कर्ज को माफ कर सके। इसका जवाब भी ना में ही है। कुल मिलाकर राहुल गांधी या कांग्रेस पर निजी तौर पर किसानों को कर्ज माफ करने का सीधा कोई दबाव नहीं बनने वाला है। एक तो उत्तर प्रदेश का चुनाव नतीजा इस पर कोई असर नहीं डालेगा। दूसरा केंद्र की सरकार के लिए चुनाव 2019 में ही होना है। लेकिन, राहुल गांधी और कांग्रेस ये सब जानते हुए भी उत्तर प्रदेश के किसानों की भावना के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। साथ ही सरकारी बैंकों की पहले से बिगड़ी सेहत को और बिगाड़ने की कोशिश भी।
राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के किसानों को याद दिलाते हैं 2008 का देश का बजट। यही बजट था जिसमें तत्कालीन यूपीए की सरकार ने किसानों का 60000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया था। हालांकि, उसके बाद बैंकों का एनपीए तेजी से बढ़ा था। इसी को आधार बनाकर राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के किसानों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। या यूं समझिए कि खुद पर भरोसा दिलाने से ज्यादा नरेंद्र मोदी पर भरोसा खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल गांधी कहते हैं कि मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट्स का एक लाख करोड़ रुपये का कर्जा माफ किया है, तो फिर किसानों का कर्ज क्यों नहीं माफ किया जा सकता। देवरिया से दिल्ली की 26 दिन की यात्रा में राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को कॉर्पोरेट समर्थक और कांग्रेस को किसान समर्थक बताने की कोशिश में किसानों को आसानी से कर्ज देने वाले सरकारी बैंकों की बैलेंसशीट पर एक बड़ी चोट की बुनियाद तैयार कर चुके हैं। अभी तक किसानों से 75 लाख मांगपत्र कांग्रेस ने भरवाए हैं। कांग्रेस का लक्ष्य है कि उत्तर प्रदेश के 2 करोड़ किसानों से कर्ज माफी का ये मांगपत्र भरवाया जाएगा। किसान मांगपत्र की एक प्रति किसान के पास और दूसरी कांग्रेस ने रखी है।
कांग्रेस की अगली तैयारी संसद सत्र में किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे को जोर शोर से उठाने की है। कुल मिलाकर राहुल गांधी और कांग्रेस की पूरी कोशिश यही होगी कि सरकार पर इस तरह के दबाव बनाया जाए कि या तो वो किसानों को कर्ज माफ करे और ये संदेश जाए कि कांग्रेस ने किसानों का कर्ज माफ करवाया। और अगर मोदी सरकार, किसानों का कर्जा माफ नहीं करती है, तो ये जमकर प्रचारित किया जाए कि मोदी सरकार किसान विरोधी है। अब इतना तो तय है कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस राजनीतिक कर्ज माफी को स्वीकार नहीं करने वाली। वो भी तब जब नरेंद्र मोदी की अतिमहत्वाकांक्षी योजना 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने के लक्ष्य पर काम कर रही है। लेकिन, इससे कर्जमाफी की एक जमीन तो राहुल गांधी ने तैयार कर ही दी है। जिसमें किसान कर्ज लेकर उसे माफ कराने की ही रणनीति पर काम करेगा। वैसे तो किसानों ने एक लाख रुपये से ज्यादा औसत कर्जा माफी का मांगपत्र सौंपा है। लेकिन, अगर औसत 50000 रुपये का भी एक किसान का कर्ज माना जाए और कांग्रेस 2 करोड़ किसानों से ऐसे मांगपत्र भरवाने में कामयाब हो जाती है, तो ये सीधे-सीधे 100000 करोड़ रुपये के सरकारी बैंकों के एनपीए या बैड लोन की बुनियाद पक्की होगी। और पहले से ही एनपीए की वजह से खस्ताहाल सरकारी बैंकों पर ये बड़ी चोट होगी। राहुल गांधी की आलोचना खून की दलाली वाले बयान से ज्यादा इस किसान मांगपत्र के जरिए देश का आर्थिक स्थिति कमजोर करने की कोशिश के लिए होनी चाहिए।

वैसे राहुल गांधी ने बड़ी चतुराई से ये दांव खेला है। क्योंकि, राहुल गांधी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। और अगर कुछ किसान इस मांगपत्र के भरोसे कांग्रेस के साथ आ गए, तो सोने पर सुहागा हो जाएगा। वरना ये बहस तो चल ही निकली है कि राहुल गांघी किसानों की कर्जमाफी की लड़ाई लड़ रहे हैं।
(ये लेख CatchHindi पर छपा है।) 

Friday, October 07, 2016

यूपी में बीजेपी की पॉलिटिकल “सर्जिकल स्ट्राइक”

करीब एक महीने पहले ही ये तय हो गया था कि स्वाति सिंह को उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की महिला मोर्चा का अध्यक्ष बनाया जाएगा। लेकिन, एक सही मौके का इंतजार किया जा रहा था। और जब मायावती ने सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार को नसीहत दी और कहाकि बीजेपी को इसका राजनीतिक फायदा नहीं उठाना चाहिए, तो भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। ये राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक है स्वाति सिंह को भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना। ये वही स्वाति सिंह हैं, जिनकी पहचान अभी भी @BJPSwatiSingh की पहचान ट्विटर पर बीजेपी के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की पत्नी के तौर पर ही है।
स्वाति सिंह के पति दयाशंकर सिंह जिस मायावती के खिलाफ टिकट बेचने के आरोप को लेकर शर्मनाक बयान देने की वजह से निकाले गए। उन्हीं मायावती की पार्टी के नसीमुद्दीन सिद्दीकी और दूसरे बड़े नेताओं की मौजूदगी में दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह और उनकी नाबालिग बेटी के खिलाफ अभद्र बयानों ने स्वाति सिंह को घर की दहलीज से बाहर लाकर उत्तर प्रदेश में नारी स्वाभिमान की लड़ाई का बड़ा चेहरा बना दिया। इतना बड़ा चेहरा कि स्वाति के पति दयाशंकर सिंह को पार्टी से 6 साल से निकालने वाली भाजपा को स्वाति सिंह के पीछे खड़ा होना पड़ा।
पूरे प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने बेटी के सम्मान में भाजपा मैदान में नारे के साथ बड़ा प्रदर्शन किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़कर राजनीति शुरू करने वाले दयाशंकर सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय के महामंत्री और अध्यक्ष रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय की राजनीति के दौरान ही दयाशंकर सिंह और स्वाति सिंह का प्रेम हुआ, जिसकी परिणति विवाह के तौर पर हुई। लेकिन, स्वाति सिंह कभी भी सीधे तौर पर राजनीति में नहीं रहीं। बलिया जिले से आने वाले दयाशंकर सिंह ने विद्यार्थी परिषद से भारतीय जनता युवा मोर्चा का रास्ता पकड़ा। युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह ने बाद भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय मंत्री और उपाध्यक्ष का जिम्मा भी संभाला। दयाशंकर की पहचान भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में एक ऐसे नेता के तौर पर होती रही है जिसके संबंध हर दौर में प्रदेश नेतृत्व से अच्छे रहे। यही वजह रही कि 2007 में दयाशंकर सिंह को बलिया से विधानसभा टिकट मिला। हालांकि, दयाशंकर सिंह चुनाव हार गए। और इसके बाद 2 बार विधान परिषद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद वहां भी हार का ही सामना करना पड़ा।
लक्ष्मीकांत बाजपेयी के बाद जब केशव प्रसाद मौर्या प्रदेश अध्यक्ष बने, तो दयाशंकर सिंह को फिर से प्रदेश की टीम में उपाध्यक्ष के तौर पर शामिल कर लिया गया। लेकिन, उपाध्यक्ष बनने के बाद मऊ दौर पर गए दयाशंकर सिंह ने टिकटों की बिक्री पर मायावती के खिलाफ ऐसा शर्मनाक बयान दे दिया कि भारतीय जनता पार्टी के गले की हड्डी बन गए। हालात ऐसे कि न उगलते बन रहा था, न निगलते। मायावती की बहुजन समाज पार्टी सड़कों पर आ गई। और लगा कि 2017 का विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले ही भारतीय जनता पार्टी राज्य की राजनीति से बाहर हो गई। लेकिन, उसी समय स्वाति सिंह ने कमान संभाली और इस क्षत्राणी ने अपने तीखे तेवरों से राज्य की राजनीति का रुख बदल दिया। 48 घंटे में ऐसे हालात बन गए कि राज्य की जनभावना स्वाति सिंह के साथ मजबूती से खड़ी दिखने लगी। दयाशंकर से कन्नी काट रही भाजपा स्वाति सिंह के साथ खड़ी हो गई। लेकिन, इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी दयाशंकर सिंह को वापस पार्टी में लेने का फैसला करने का साहस नहीं कर पा रही थी। जबकि, पार्टी के भीतर भी दयाशंकर सिंह के खिलाफ हुई कार्रवाई से लोगों में नाराजगी थी।
खासकर सवर्णों में इस बात को लेकर बेहद आक्रोश था, इसीलिए बीजेपी नेतृत्व भी भ्रम की स्थिति में था। इसी बीच दयाशंकर सिंह और उनकी पत्नी स्वाति सिंह ने उत्तर प्रदेश के 7-8 जिलों में क्षत्रिय स्वाभिमान रैली की। रैली में स्वाति सिंह की शैली ने बीजेपी नेताओं को आश्वस्त कर दिया। स्वाति सिंह लगातार मायावती को चुनौती देती रहीं कि अगर वो किसी सामान्य सीट से लड़ेंगी, तो स्वाति सिंह उनके खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। दयाशंकर लगातार प्रदेश बीजेपी से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व से अपनी वापसी की गुहार लगा रहे थे। और अंत में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बीच का रास्ता निकाला। स्वाति सिंह को महिला मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। मायावती के एलओसी पार हुई सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक लाभ न लेने की बात कही और बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में स्वाति सिंह को अध्यक्ष बनाकर राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दी है। इतना तो तय है कि ये राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई स्थापित समीकरणों को ध्वस्त करेगी। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

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