Thursday, March 30, 2017

लोकतंत्र टनाटन है!

पहली नज़र में देखने पर ये बड़ी सामान्य तस्वीर लगती है। लेकिन ये तस्वीर ख़ास है। संसद मार्ग थाने के सामने हो रहे इस प्रदर्शन में शामिल लोगों को पीने का पानी देने के लिए #NDMC का टैंकर खड़ा है। लोकतंत्र का मतलब भी यही है कि कोई भी कहीं से सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाए और सरकार उसके मूलभूत अधिकारों का हनन न करे। #भारत_में_लोकतंत्र मुसीबत में नहीं है, ये जानना जरूरी इसलिए है कि बहुत से लोग हाल ही देश में सम्वैधानिक अधिकारों के ख़त्म होने को लेकर बड़े चिन्तित हो रखे हैं। देखिए शायद कुछ चिन्ता कम हो।

Wednesday, March 29, 2017

काल गणना, पंचांग और नववर्ष

आज से नवरात्रि शुरू हो रही है। और ये नवरात्रि का पता तो पंचांग से ही चलता है। पंचांग को पोंगापंथी साबित करने की कोशिश जमकर हुआ। यहां तक कि सभी भारतीय पारम्परिक तथ्यों को भी अवैज्ञानिक साबित करके खारिज करने की कोशिश बरसों से खूब हुई। अब जरा नए साल को ही देखिए। भारतीय नववर्ष की बात करें तो देश भर में भारतीय नववर्ष मौसम चक्र, फसल चक्र के बदलाव के साथ बदल जाता है। जिस पंचांग को हम पोंगापन्थी मान लेते हैं। उस पंचांग के लिहाज से हर मौसम की पक्की वाली जानकारी होती है। यहां तक कि मौसम के बदलने के आज के मौसम विज्ञान जैसी पक्की सूचना भी वहां होती है। दिसम्बर-जनवरी या फिर मार्च-अप्रैल से वो बात कहां पक्की होती है। लेकिन, दुनिया में पसर गया और वैज्ञानिक ग्रहों, तथ्यों के आधार पर होने वाली भारतीय काल गणना के आधार को ही खारिज कर दिया गया। साल, महीने के बाद इसी तरह दिन की बात भी करें, तो दफ्तर की छुट्टी के लिहाज से रविवार से हफ्ता शुरू हो गया। लेकिन, सामान्य समझ के लिहाज से देखें, तो कोई भी दिन क्यों हुआ, इसका कोई पक्का तर्क तो है नहीं, सिवाय रविवार को चर्च जाने के। जबकि, भारतीय एकादश, द्वादश या फिर महीने की बजाय शुक्ल और कृष्ण पक्ष की बात, सबमें विज्ञान है। दुर्भाग्य ये कि पश्चिम के भारतीय संस्कृति को भोथरा करने की साजिश को भारत सत्ताश्रय पर पल रहे वामपंथी विद्वानों ने और मजबूती से मदद दी। ऐसी कि आज भारतीय परिवारों में पंचांग होते ही नहीं। और बहुत कुछ नुकसान पोंगापंथियों ने भी किया जो, पंचांग देखकर दिन, तिथि बताने का ठेका बस अपने पास रखा। देखिए समय बदल रहा है, काफी कुछ बदलेगा।
Top of Form


Tuesday, March 28, 2017

सबका 'विकास' दूसरे के हिस्से में से हो

























#विकास कितना मुश्किल होता है। उसका उदाहरण हैं, ये दोनों सड़कें। दरअसल ये एक ही सड़क के दो हिस्से हैं। पक्की सड़क मेरे घर के सामने से आ रही है और जहाँ ये खड़ंजा बिछा दिख रहा है। हमारे गाँव के ही शुक्ला जी के खेत से गुज़रती है। पहले चकरोड यानी मिट्टी की सड़क थी तो पतली थी। अब पक्की करने के लिए उनके खेत का भी कुछ हिस्सा जा रहा है। उन्होंने बस उसी उतने हिस्से के लिए कुंडा तहसील न्यायालय में मुक़द्दमा दायर कर दिया। हालाँकि, अब मामला सुलझ गया है, ऐसा इस बार गाँव में पता चला लेकिन, इसी से अंदाज़ा लगाइए कि सामूहिक विकास करना, बेहद बुनियादी सुविधाएँ देने के लिए भी, सरकारों को कितना लड़ना पड़ता है। जब भी किसी के निजी में से थोड़ा सा कटकर ढेर सारे लोगों के सामूहिक भले में जुड़ने की बात होती है, निजी हावी हो जाता है। 

Thursday, March 23, 2017

“सबका साथ” भी भाजपा से बड़ा हो पाएगा क्या?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बात में सबका साथ सबका विकास कह रहे हैं। लेकिन, राजनीतिक तौर पर देखें, तो ये नारा सिर्फ और सिर्फ भाजपा का विकास कर रहा है। अब सवाल ये है कि क्या सबका साथ हो जाए, तो भाजपा का विकास रोका जा सकता है। यहां सबका मतलब राजनीतिक तौर पर सपा+बसपा+कांग्रेस से हैं। दरअसल इस महागठबंधन या सबका साथ का मजबूत आधार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पार्टियों को मिले मतों के आधार पर बनता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 39.7% मत मिले। बहुजन समाज पार्टी को 22.2% और समाजवादी पार्टी को 21.8% मत मिले हैं। कांग्रेस को 6.2% मत मिले हैं। तो अगर सीधे-सीधे इन तीनों पार्टियों के मतों को मिला दिया जाए, तो वो 50.2% बनता है। यानी बीजेपी के 39.7% मत सबका साथ होते ही बहुत कम पड़ जाएंगे और बिहार की तरह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें जीत हासिल कर लेंगी। ये एक सीधा आंकलन हुआ। लेकिन, इसको अगर थोड़ा गहराई से समझने की कोशिश करें, तो तस्वीर इतनी साफ नहीं है। 2019 छोड़िए, भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्री गैर विधायक बनाकर इस सबका बनाम भाजपा का अवसर तुरन्त तैयार कर दिया है। 6 महीने के भीतर गोरखपुर के सांसद आदित्यनाथ योगी, लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा और इलाहाबाद की फूलपुर सीट से सांसद केशव मौर्या को विधानसभा में पहुंचना होगा।
गोरखपुर से मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी सांसद हैं और अब मान लें के वो अपने संसदीय क्षेत्र की किसी विधानसभा से चुनाव लड़ेंगे। गोरखपुर संसदीय क्षेत्र में गोरखपुर शहर, ग्रामीण, कैम्पियरगंज, सहजनवा और पिपराइच विधानसभा आती हैं। सबसे आदर्श स्थिति योगी के लिए ये होगी कि वो शहर के विधायक राधामोहन दास अग्रवाल को लोकसभा चुनाव लड़ाएं और शहर की सीट से विधायक का चुनाव लड़ें। अभी हुए चुनाव में बीजेपी के राधामोहनदास अग्रवाल 122221 मत पाकर जीते हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी यहां मिलकर लड़े और राहुल सिंह को 61491 मत मिले। बहुजन समाज पार्टी के जनार्दन चौधरी को 24297 मत मिले। अब अगर यहां तीनों मिलकर चुनाव लड़ें और मान लें कि योगी को एक भी मत ज्यादा नहीं मिलने वाले। ये मैं इसलिए कह रहा हूं योगी गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से 5 बार से सांसद हैं और जब मुख्यमंत्री किसी विधानसभा से चुनाव लड़ता है तो जनता एकमुश्त मत उसकी झोली में डाल देती है। फिर भी मैं अभी के मत के आधार पर भाजपा के 122221 और तीनों दलों के मत मिलाता हूं तो 61491+24297 मिलाकर कुल 85788 मत ही बनते हैं और बड़ी आसानी से योगी विधानसभा पहुंच जाएंगे। जहां तक योगी के इस्तीफा देने के बाद खाली होने वाली गोरखपुर लोकसभा सीट की बात है, तो यहां भी आंकड़े पूरी तरह से बीजेपी के पक्ष में हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में योगी 5,39,127 मत पाकर जीते थे। ये लोकसभा चुनाव में पड़े मतों का 51.80% था। समाजवादी पार्टी को 21.75%, बहुजन समाज पार्टी को 16.95% और कांग्रेस को 4.39% मत मिले थे। तीनों मिलकर चुनाव लड़ें, तो इन्हें संयुक्त रूप से 43.09% मत ही मिलते दिख रहे हैं।
इलाहाबाद की फूलपुर लोकसभा सीट से चुनकर केशव प्रसाद मौर्या आए हैं और अब उपमुख्यमंत्री बनने की वजह से उनका विधानसभा में पहुंचना जरूरी है। केशव प्रसाद मौर्या की लोकसभा सीट में 5 विधानसभाएं आती हैं। इलाहाबाद उत्तरी, इलाहाबाद पश्चिमी, फाफामऊ, सोरांव और फूलपुर। पश्चिमी से विधायक चुने गए सिद्धार्थनाथ सिंह कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं। इसलिए सिद्धार्थनाथ सिंह की सीट पर चुनाव होने की बात बेमानी है। सोरांव सीट गठजोड़ में अपना दल सोनेलाल को गई थी और अपना दल सोनेलाल के जमुना प्रसाद वहां से जीते हैं। इसलिए इस सीट पर भी दोबारा चुनाव की सम्भावना कम ही बनती है। अब बची तीन सीटें इलाहाबाद उत्तरी, फाफामऊ और फूलपुर। इलाहाबाद उत्तरी से बीजेपी के हर्षवर्धन बाजपेयी 89191 मत पाकर जीते हैं। समाजवादी पार्टी के सहयोग से कांग्रेस प्रत्याशी अनुग्रह नारायण सिंह को 54166 मत मिले और बहुजन समाज पार्टी के अमित श्रीवास्तव को 23388 मत मिले हैं। अब अगर यहां से केशव मौर्या अपने विधायक को इस्तीफा दिलाकर चुनाव लड़ते हैं और यही स्थिति बरकरार रहती है, तो भी भाजपा के 89191 के मुकाबले तीनों पार्टियों के संयुक्त प्रत्याशी के 77554 मत ही बनते हैं। केशव को फूलपुर लोकसभा चुनाव 2014 में 5 लाख से ज्यादा मत मिले थे, जो कुल मतों का 52.43% था। अगर यहां सपा+बसपा+कांग्रेस तीनों का मत जोड़ दिया जाए, तो वो 43.43% ही बनता है। यानी संसदीय चुनाव में भी सिर्फ गठजोड़ करके जीतने का ख्वाब टूटेगा।
भारतीय जनता पार्टी के दूसरे उपमुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा लखनऊ से मेयर थे। इसलिए उनके पास कोई संसदीय क्षेत्र नहीं है। और लखनऊ के ज्यादातर विधायक मंत्री हो गए हैं। विकल्प के तौर पर लखनऊ उत्तरी और पश्चिम सीट ही बचती है। इस बात की सम्भावना कम ही है कि इन दोनों में से कोई अपनी सीट छोड़ेगा। हालांकि, इनमें से किसी को भी मेयर की कुर्सी देकर उस विधानसभा से दिनेश शर्मा चुनाव लड़ सकते हैं। लखनऊ उत्तरी में बीजेपी 109315 मत पाकर जीती है। अगर तीनों दलों के मत मिला गिए जाएं, तो 82039+29955 मिलाकर 111994 मत बनते हैं। लेकिन, सवाल ये है कि क्या उपमुख्यमंत्री को विधायक बनाने के नाम पर उत्तरी की जनता इसी समीकरण पर मत डालेगी। यही हालात लखनऊ पश्चिम में भी हैं। बीजेपी को मिले 93022 मतों के मुकाबले तीनों दलों को मिलाकर 79950+ 36247, कुल 116197 मत बनते हैं। इसलिए बेहतर ये होगा कि तुरन्त होने जा रहे लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों में जुड़कर अपनी ताकत घटाने के बजाए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस जमीनी स्तर पर काम करके सबका साथ लेने की कोशिश करें। क्योंकि, मत प्रतिशत जोड़कर साथ आकर बीजेपी को हराने का पहला प्रयास बुरी तरह से असफल हो चुका है। लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी को 42.30% मत मिले थे। समाजवादी पार्टी को 22.20%, बहुजन समाज पार्टी को 19.60% और कांग्रेस को 7.50% मत मिले थे। लेकिन, जब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस विधानसभा चुनाव में मिलकर लड़े, तो कांग्रेस को मत 7.50% से घटकर 6.2% रह गया। समाजवादी पार्टी के हिस्से आए 22.20% मत भी थोड़ा घटकर विधानसभा चुनाव में 21.8% रह गए। हां, बहुजन समाज पार्टी का मत 19.60% से बढ़कर 22.2% हुआ। इसका सीधा सा मतलब है कि मतदाता वैसे नहीं जुड़ता, जैसे नेता जुड़ जाते हैं। इसलिए इस नई वाली भारतीय जनता पार्टी से लड़ने के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को साथ आने से पहले खुद को ताकतवर करना होगा।


Monday, March 20, 2017

मणिशंकर अय्यर के महागठबंधन की कल्पना और योगी सरकार में मंत्री मोहसिन रजा

आदित्यनाथ योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। ये भी सही है कि योगी का नाम चुनाव के पहले से, चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद भी सबसे ज्यादा मजबूती से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए सामने आता रहा। लेकिन, हम मीडिया विश्लेषकों को ये लगता रहा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्य में किसी भी ऐसे मजबूत नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे, जिसकी अपनी खुद की बड़ी हैसियत हो। इसी आधार पर राजनाथ सिंह का नाम भी खारिज किया जाता रहा। हालांकि, राजनाथ सिंह ने दिल्ली मीडिया में अपने सम्बन्धों के बूते इस खबर को मजबूती से चलवा लिया कि उनके इनकार करने के बाद ही कोई उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन सकेगा। जबकि, ये सच्चाई अब जगजाहिर हो चुकी है कि राजनाथ सिंह किसी भी वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं थे। इसी दौरान मीडिया में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर का नरेंद्र मोदी के मुकाबले महागठबंधन का प्रस्ताव भी बड़ी मजबूती से चला। कुछ इस तरह से उस प्रस्ताव पर विपक्षी नेताओं के साथ ही, मीडिया विश्लेषकों के बयान आने लगे कि बस अब महागठबंधन बना और कल-परसों से देश भर में मोदी के मुकाबले विपक्षी एकता नजर आने लगेगी। इस काल्पनिक विपक्षी एकता के बूते मीडिया ने ये भी बताया शुरू कर दिया कि दरअसल मायावती के साथ न आने से सांप्रदायिक बीजेपी इस तरह से जीत गई। वरना तो सभी धर्मनिरेपक्ष दल एकसाथ आ जाएं, तो बीजेपी कहीं की नहीं रहेगी। ये गलतफहमी राजनीतिक दलों के साथ मीडिया के बड़े हिस्से को हुई है। क्योंकि, मीडिया का बड़ा वर्ग तय खांचों-पैमानों पर भारतीय जनता पार्टी को कसकर अपनी राय बना लेता है और उसी राय को जनता की राय बनाने की कोशिश करता है। उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तो बुद्धिजीवी, पत्रकार किसी भी तरह से बेहतर आंकने को तैयार ही नहीं है। इसीलिए पूरा मीडिया नोटबंदी से लेकर मोदी सरकार के हर फैसले को एक तय पैमाने पर गलत आंकने के बावजूद यूपी के मुख्यमंत्री के नाम का अंदाजा भी उन्हीं पैमानों पर तय कर रहा था। जाहिर है उस पैमाने पर मीडिया, बुद्धिजीवियों को गलत साबित ही होना था। क्योंकि, राज्य में किसी मजबूत नेता को मोदी नहीं चाहेंगे, यही एक आधार मीडिया, बुद्धिजीवियों को विश्लेषण के लिए पर्याप्त लगता रहा।

दरअसल बुद्धिजीवियों, मीडिया के लोगों का आधार ही गलत रहा। अपना विश्लेषण करने, अनुमान लगाने में वो ये बात भूल गए कि नरेंद्र मोदी क्या हैं? नरेंद्र मोदी मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक हैं। और नरेंद्र मोदी इस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहते ही भारतीय जनता पार्टी में गए और फिर गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद लालकृष्ण आडवाणी जैसे घोर हिंदूवादी छवि वाले नेता को किनारे करके बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन गए। और फिर पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी सरकार के प्रधानमंत्री भी बन गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस तरह से खुलेतौर पर सक्रिय हुआ, वैसा कभी नहीं हुआ था। ये पढ़ते आपको लगेगा कि इसमें नया क्या है? दरअसल इसी बहुत पुरानी बात को लेफ्ट और लिबरल लेफ्ट मीडिया हर बार भूल जाता है। इसीलिए इसे याद दिलाना जरूरी हो जाता है। अगर ये याद रहता, तो ये भी विश्लेषण करते याद रहता कि नरेंद्र मोदी जिस विचार को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, वो विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ही निकला है। कमाल की बात ये भी है कि संघ तो अपने विचार को सर्वग्राह्य बनाने के लिए जरूरी सुधार के साथ जरूरी काम करता रहता है। लेकिन, संघ पर टिप्पणी करने वाले बहुतायत सिर्फ तय धारणाओं के आधार पर ही टिप्पणी करते हैं। और इसीलिए उन्हें ये नहीं समझ आया कि नरेंद्र मोदी संघ के उसी विचार को आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री बने हैं, जो छद्मधर्मनिरेपक्षता की राजनीति को ही खत्म करने की बात करता है। और इसीलिए जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, तो वो संघ के ही विचार को आगे बढ़ाते हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हिंदू एकता की राजनीति का अब तक का सबसे सफल प्रयोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीजेपी के जरिए किया है। निश्चित तौर पर इस प्रयोग के लिए संघ का सबसे भरोसेमंद चेहरा नरेंद्र मोदी ही हैं। इसीलिए जब मनोज सिन्हा के नाम पर अमित शाह ने पूरी तरह मन बना लिया था, तो संघ को साफ दिख रहा था कि जिस जाति को तोड़कर हिंदू एकता की पक्की बुनियाद यूपी चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलाने में कामयाब रही है। फिर से उसी जाति के जंजाल में बीजेपी फंसने जा रही है।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दरअसल पहले से ही इस बात को लेकर स्पष्ट था। जब बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह पिछले साल जनवरी महीने में ही मनोज सिन्हा को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे, तब भी संघ ने उसे खारिज कर दिया था। खारिज करने का आधार वही जाति की राजनीति के सिर उठाने का था। मनोज सिन्हा भूमिहार जाति से आते हैं। जो उत्तर प्रदेश में बमुश्किल 0.5% है। लेकिन, भूमिहारों की जातीय एकता तगड़ी होने से वो बेहतर स्थिति में नजर आते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बात को लेकर स्पष्ट था कि संघ, भाजपा में ऊंची जातियों के दबदबे में पिछड़ी जातियों का दखल नजर आना चाहिए। उसी फॉर्मूले के तहत केशव प्रसाद मौर्या को अध्यक्ष बनाया गया। मुख्यमंत्री के नाम पर भी संघ एकदम स्पष्ट था कि किसी भी कीमत पर जाति का नेता मुख्यमंत्री नहीं बनेगा। मनोज सिन्हा के नाम पर पिछड़ी और दूसरी जातियों से मिल रही प्रतिक्रिया से संघ की चिन्ता बढ़ने लगी कि मुश्किल से तैयार हुई हिंदू एकता की जमीन दरक जाएगी और जातियां निकलकर मजबूत होने लगेंगी। यही वो वजह थी, जो नरेंद्र मोदी को भी समझ में आ गई। इसी दौरान सोशल मीडिया से लेकर मुख्य धारा के मीडिया में बीजेपी के करीब 41% मतों के सामने सपा-कांग्रेस-बसपा के 50% से ज्यादा मतों के दिखाकर बीजेपी के यूपी में भी बिहार के हाल में पहुंचने के विश्लेषणों ने भी संघ का पक्ष मजबूत करने में बड़ा योगदान किया। 

संघ के ऊपर हिंदू ध्रुवीकरण के आरोप लगता है। लेकिन, संघ ने हिंदू ध्रुवीकरण को हिंदू एकता में शानदार तरीके से बदल दिया है। हिंदू ध्रुवीकरण मुसलमानों के एकजुट होने की प्रतिक्रिया थी और हिंदू एकता हिंदुओं के एकजुट होने की क्रिया है। प्रतिक्रिया से क्रिया में बदली संघ की ये सफल रणनीति ही थी, जिसने नरेंद्र मोदी को आदित्यनाथ योगी को यूपी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार कर लिया। और मोदी का सबका साथ सबका विकास के नारे पर कोई असर नहीं पड़े, इसके लिए संघ ने बिना मुसलमानों के बीजेपी विधायक दल के बाहर से एक मुसलमान नेता को मंत्रिमंडल में शामिल करा लिया। विधानसभा चुनावों के दौरान मैं यूपी बीजेपी कार्यालय में था, जब मोहसिन रजा ने बीजेपी प्रवक्ता मनीष शुक्ला से आकर पूछा कि आज मुझे किस चैनल पर बहस के लिए जाना है। यूपी बीजेपी ने टीवी पर बहस में जाने के लिए कई नाम तय किए थे, उनमें से एक नाम मोहसिन रजा का था। मोहसिन रजा प्रवक्ता भी नहीं थे। तब किसे पता था कि मोहसिन रजा सबका साथ सबका विकास वाली बीजेपी में बिना विधायक हुए यूपी की सरकार में मंत्री बनने जा रहे हैं। मणिशंकर अय्यर के महागठबंधन की कल्पना अभी साकार होने से कोसों दूर है और आदित्यनाथ योगी की सरकार में एक मुसलमान मोहसिन रजा ने राज्यमंत्री के तौर पर शपथ भी ले ली है। संघ-बीजेपी-मोदी का विश्लेषण करने वालों को होमवर्क मजबूत करने की जरूरत है। वरना अभी और कई आंकलन पूरी तरह से ध्वस्त होंगे। 

Friday, March 17, 2017

देखिए कितने तरह के भ्रम टूट रहे हैं

देखिए कितने तरह के भ्रम टूट रहे हैं। @BJP4India को रुढिवादी पिछड़ी सोच की पार्टी के तौर पर स्थापित किया गया। राजीव गांधी के कम्प्यूटर का विरोध उस समय बीजेपी ने किया था, इसे सबसे पक्के आधार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा। बीजेपी समय के साथ चलती रही। मोदी उससे आगे निकल गए। नोटबंदी जैसा फैसला ले लिया। डिजिटल लागू करने के लिए ज़िद सी कर बैठे हैं। सबकुछ आधुनिक, प्रगतिशील कर रहे हैं। कांग्रेस कहती रही, मोदी हमारे किए को आगे बढ़ाकर श्रेय ले रहे हैं। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के चुनाव में बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिल गया। फिर क्या था प्रगतिशीलों को प्रतिगामी होने का पक्का आधार मिल गया। मायावती ने शुरुआत की और अब प्रगतिशीलों की आख़िरी उम्मीद अरविन्द केजरीवाल कह रहे हैं कि नया कूड़े में डालो और पुराने को प्रणाम करो। #EVM कूड़े में डालो और बैलट पेपर पर मतदान कराओ। कांग्रेस भी अरविन्द जी के विचार से प्रभावित है। देखिए ना कितने तरह के भ्रम टूट रहे हैं।

Thursday, March 16, 2017

नई वाली बीजेपी में यूपी के मुख्यमंत्री श्रीकांत शर्मा होंगे?

राजनाथ सिंह ने अब साफ कह दिया है कि वो उत्तर प्रदेश लौटना नहीं चाहते हैं। राजनाथ सिंह ने शुरू से ही अपना ये रुख साफ कर रखा है। चुनाव के बीच में भी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के सवाल पर वो फीकी हंसी के साथ यही जवाब देते रहे कि सब मुझे ही मिलना चाहिए क्या? पार्टी में बहुत से योग्य लोग हैं। लेकिन, राजनाथ सिंह के नाम की चर्चा एक बार फिर से तब तेज हो गई जब, 14 मार्च को हेडलाइंस टुडे के सम्पादक राहुल कंवल ने एक ट्वीटकर बताया कि राजनाथ सिंह को यूपी का मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव मिला है और उन्होंने इस पर सोचने के लिए समय मांगा है। राहुल कंवल ने इसी ट्वीट में केशव मौर्या और मनोज सिन्हा को भी दावेदार बताया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली भारतीय जनता पार्टी में किसी भी तरह का कयास लगाना खुद को बेवकूफ साबित करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसलिए उत्तर प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री कौन होने जा रहा है, इसका अनुमान लगाने की बेवकूफी मैं नहीं कर सकता। लेकिन, एक विश्लेषण इस आधार पर करने की कोशिश कर रहा हूं कि जैसा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह कह रहे हैं कि नए वाले भारत में नई वाली बीजेपी बन रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाकायदा #IAmNewIndia अभियान चला रहे हैं। इसमें लोगों से इस नए वाले भारत के लिए शपथ लेने को कहा जा रहा है। ये अब बहुत सलीके से स्थापित हो चुका तथ्य है कि ये नई वाली बीजेपी है। जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने तैयार किया है। इस आधार पर नया वाला उत्तर प्रदेश भी तैयार हो गया है और प्रचंड बहुमत मिलने के बाद इस नए वाले उत्तर प्रदेश में तैयार हुई नई वाली बीजेपी को चलाने के लिए मुख्यमंत्री के तौर पर नया वाला नेता भी चाहिए।
इस सारे नए वाले आधार पर अगर देखा जाए तो, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और अब मथुरा से शानदार जीत हासिल करने वाले श्रीकांत शर्मा इस पैमाने पर सबसे फिट बैठते हैं। अगर मैं कह रहा हूं कि श्रीकांत शर्मा नई वाली बीजेपी में बीजेपी के लिहाज से नए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के पैमाने पर सबसे फिट बैठते हैं, तो उसकी कई वजहें हैं। 1 जुलाई 1970 को पैदा हुए श्रीकांत शर्मा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के रास्ते भारतीय जनता पार्टी में आए हैं। मथुरा से दिल्ली आए श्रीकांत ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का मजबूत काम खड़ा किया। और दिल्ली में ही पूरी तरह से बस गए। श्रीकांत को पहली बार बड़ी जिम्मेदारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के मीडिया प्रभारी के तौर पर मिली। श्रीकांत शर्मा के साथ एक और बड़ी शानदार उपलब्धि ये है कि वो तीन राष्ट्रीय अध्यक्षों के मीडिया प्रभारी रहे हैं। नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और अमित शाह के कार्यकाल में अभी तक मीडिया का प्रभार श्रीकांत के पास ही है। अमित शाह के महासचिव बनने के साथ ही भारतीय जनता पार्टी के 9 अशोक रोड मुख्यालय में श्रीकांत का बढ़ता प्रभाव साफ दिखने लगा था। अमित शाह ने राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी देकर उसे और प्रभावी बना दिया। कमाल की बात ये कि मीडिया का प्रभार अभी भी श्रीकांत के ही पास है। 2014 के लोकसभा चुनावों में मथुरा से श्रीकांत लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन, रणनीतिक तौर पर मथुरा से हेमामालिनी को चुनाव लड़ाया गया। लेकिन, इसके बावजूद श्रीकांत ही मथुरा में बीजेपी नेता के तौर पर जाते रहे। मथुरा के जवाहरबाग में हुई जबर्दस्त गोलीबारी के बाद हेमामालिनी जब फिल्म की शूटिंग में व्यस्त थीं, उस समय बीजेपी की तरफ से श्रीकांत ने ही मोर्चा संभाला। 9 अशोक रोड पर मथुरा से आने वाला हर व्यक्ति को खाना पूछा जाए, ये श्रीकांत ने सुनिश्चित कर रखा था। अमित शाह वाली बीजेपी में मीडिया के लिए पार्टी को जानने का एकमात्र जरिया श्रीकांत शर्मा ही रहे। माना जाता है कि श्रीकांत को उत्तर प्रदेश में बड़ी भूमिका देने के लिहाज से ही अमित शाह ने खुद तैयार किया है। उसका असर भी दिखता है। श्रीकांत शर्मा को लम्बे समय से बीजेपी दफ्तर में देखने वाले जानते हैं कि श्रीकांत ने किस तरह से मीडिया में बीजेपी की छवि सुधारने के साथ एक मजबूत नेता की अपनी छवि भी बचाए रखी। मीडिया के बीच कई लोग श्रीकांत को अमित शाह की प्रतिमूर्ति कहते हैं।

इलाहाबाद में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का रोड शो हो या फिर बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो। दोनों रोड शो में श्रीकांत शर्मा की भूमिका कितनी अहम थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इलाहाबाद में अमित शाह की गाड़ी के आगे चलने वाली खुली जीप में श्रीकांत शर्मा सवार थे। श्रीकांत शर्मा के लिए ये कहा जाता है कि अमित शाह जो सोचते हैं, उसे मीडिया में सलीके से स्थापित करने का काम वो कर देते हैं। और सबसे बड़ी बात कि मीडिया प्रभारी रहते श्रीकांत ने ऑफ कैम ब्रीफिंग वाली परम्परा खत्म करा दी। मथुरा से श्रीकांत एक लाख से ज्यादा मतों से जीते हैं। अमित शाह अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव नहीं जीते तो, राजनीति खत्म। इस बात को समझते हुए श्रीकांत ने लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद से ही अपनी विधानसभा तैयार करना शुरू कर दिया था। इसलिए देश के सबसे बड़े सूबे में नई वाली बीजेपी के नए नेता के तौर पर श्रीकांत शर्मा सबसे तगड़े दावेदार नजर आते हैं। अमित शाह का हर कहा-अनकहा उत्तर प्रदेश में लागू करने के लिए सबसे बेहतर दांव नजर आता है। हालांकि, ये नरेंद्र मोदी-अमित शाह वाली बीजेपी है, यहां कोई भी अनुमान लगाना खुद को बेवकूफ साबित करना हो सकता है।  

Monday, March 06, 2017

पुरुषवादी सोच है किराए की कोख में अपना बच्चा

बच्चों को लेकर करन जौहर का ट्वीट
करण जौहर ने एक बार फिर से वो साबित कर दिया, जिसकी आशंका मैं किराए की कोख पर जताता रहता हूं। किराए की कोख में मां का कोई मतलब ही नहीं है। बच्चा भले ही पुरुष के पौरुष का प्रतीक माना जाता है लेकिन, सच यही है कि बच्चा तो मां के ममत्व से तैयार होता है। और मां का ममत्व किसी भी बाप के पौरुष से बड़ा होता है। कम से कम पारम्परिक व्यवस्था में मां के ममत्व का ये स्थान बना हुआ है। लेकिन, किराए की कोख से अपना बच्चा पैदा करने की आधुनिक व्यवस्था ने तो पुरुष के पौरुष का अहम और बड़ा कर दिया है। करण जौहर विवाहित नहीं हैं। मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन, उनका किसी स्त्री के साथ किसी तरह का रिश्ता नहीं है, आधुनिकता की आधुनिकतम परिभाषाओं के अनुसार भी। अब वो करण जौहर बाप बन गए हैं। करण जौहर किराए की कोख से जुड़वा बच्चों के पिता बन गए हैं। उसी अस्पताल में ये हुआ, जहां शाहरुख खान अपने तीसरे बच्चे के लिए किराए की कोख खोजने गए थे। अब सोचिए जिस बच्चे को किसी भी वजह से गौरी खान 9 महीने अपनी कोख में न रख सकी, उसकी चाहत शाहरुख और उनकी पत्नी गौरी को क्यों थी। हाल ही में केंद्र सरकार ने किराए की कोख पर नियंत्रण के लिए कानून बनाने की कोशिश शुरू की। केंद्र सरकार को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि लंबे समय से बिना किसी नियंत्रण के चल रहे किराए की कोख के बाजार को नियंत्रित करने के लिए एक कानून बनाने की कोशिश की। लेकिन, उसके कानून बनने से पहले ही करण जौहर बिना मां के सिंगल पैरेंट के तौर पर जुड़वा बच्चों के पिता बन गए।
किराए की कोख पर कानून बनाने का मसला कितना सम्वेदनशील हो चला कि इस कानून का प्रस्ताव रहखने खुद सुषमा स्वराज को सामने आना पड़ा था। इस बात पर बहुत ज्यादा विवाद हुआ कि अगर कोई गोद ले सकता है, तो उसे किराए की कोख की इजाजत क्यों नहीं होगी। प्रगतिशील जमात सिंगल पैरेंट और एलजीबीटी समुदाय के लोगों के लिए भी सरोगेसी कानूनी करने की मांग कर रही है। एक बहस ये भी खड़ी हो रही है कि आखिर जिस महिला का शरीर है, उसकी कोख है, उसके अलावा सरकार कौन होती है, ये तय करने वाली। बहस है कि किसी में भी ममत्व और बापत्व जग सकता है। ऐसे में विज्ञान ने अगर ऐसी तरक्की कर ली है कि कोई अपना शुक्राणु के जरिये किसी दूसरे की कोख में अपना बच्चा पैदा कर सकता है और अगर उस कोख को देने वाली को एतराज नहीं है, तो फिर सरकार को क्या बीच में आना चाहिए। कई लोग तो विदेशियों और भारत के अमीरों से किराए की कोख के बदले में मिलने वाले धन से गरीबी खत्म होने तक की शानदार दलीलें दे रहे हैं। लेकिन, इन सबमें एक बड़ा सवाल छूट रहा है। ये सारी चिंता किसी के अपना बच्चा पैदा करने की इच्छा की तो हो रही है। लेकिन, कोई ये सवाल नहीं खड़ा कर रहा है कि आखिर जिस बच्चे के सिर से मां-बाप का साया हट गया हो। वो क्या करे? वो क्या मां-बाप पैदा कर सकता है। कमाल है कि हम पहले से सभ्य होने की बात कर रहे हैं। लेकिन, इस सभ्य होने में धरती पर जो आया नहीं है, इसके लिए तो कानून पर बहस हो रही है। हां, जो पहले से ही धरती पर है और जिसकी किस्मत ने दगा दिया और मां-बाप नहीं रहे। उनके लिए हमारा ये सभ्य समाज शायद ही सम्वेदनशील होता दिख रहा हो।
किराए की कोख का कानून लागू हो जाएगा, तो हो सकता है कि फिर से बच्चों को गोद लेने वालों की संख्या कुछ बढ़ जाए। लेकिन, इसके पहले तक किसी तरह का कोई कानून न होने का दुष्परिणाम ये है कि देश में अनाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। न सरकार और न ही तथाकथित तौर पर पहले से ज्यादा सभ्य हुआ हमारा समाज। सूचना के अधिकार के तहत सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी से आई जानकारी बताती है कि पिछले पांच सालों में गोद लेने वालों की संख्या आधी रह गई है। चाहे वो देश में गोद लेने के इच्छुक रहे हों या फिर विदेशी। महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस पर गहरी चिंता जताते हुए गोद लेने के कानूनों को काफी सरल कर दिया। हालांकि, गोद लेने वालों में सिंगल पैरेंट ज्यादातर सेलिब्रिटी ही नजर आते हैं। उस देश में जहां हर साल लगभग पचास हजार बच्चे अनाथ हो जाते हों और उनमें से बमुश्किल 800 से 1000 बच्चों को गोद लिया जाता हो। किराए की कोख का कानून बनने पर मचने वाला हल्ला थोड़ा चौंकाता है। बेटी हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा के नारे को लागू करने वाला सभ्य भारतीय समाज अनाथ बच्चों को गोद लेने की बहस की बजाए किराए की कोख में बच्चा पैदा करने के अधिकार की बहस कर रहा है। कमाल की बात ये है कि अभी तक देश में सरोगेसी यानी किराए की कोख का कोई कानून ही नहीं था। उसकी वजह से दुनिया भर के किसी भी वजह से अपना बच्चा न कर पाने वाले विदेशी दंपतियों के लिए सबसे बेहतर कोख का बाजार भारत ही रहा है। यूके, आयरलैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, बेल्जियम, मैक्सिको, थाइलैंड और नेपाल में पहले से ही कमर्शियल सरोगेसी प्रतिबंधित है। इसलिए इन देशों के लोग सीधे भारत का रुख कर रहे हैं। हालांकि, अब भारत भी कमर्शियल सरोगेसी प्रतिबंधित करने वाले देशों में शामिल हो गया है। लेकिन, भारत में अभी सरोगेसी हो सकती है। लेकिन, वो विदेशियों के लिए और एलजीबीटी, सिंगल पैरेंट के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है। हां, सरकार ने ऐसे दंपतियों के लिए जो किसी स्वास्थ्य वजहों से अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें इस बात की इजाजत दी है कि वो किराए की कोख से अपना बच्चा पैदा कर सकते हैं। उसका भी बाजार न खड़ा हो जाए इसके लिए सरकार ने ढेर सारे नियम लगाए हैं। बच्चा किसी नजदीकी रिश्तेदार की कोख से ही पैदा सकता है। हालांकि, सरकार से ये संकेत साफ मिल रहे हैं कि नजदीकी रिश्तेदार की परिभाषा को विस्तार दिया जाएगा। और ये ठीक भी है।
प्रगतिशीलता और विकसित समाज की बात करने वाले भूल जाते हैं कि फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, बुल्गेरिया और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों में सरोगेसी पूरी तरह से प्रतिबंधित है। इसलिए भारत जैसे देश में जो पहले से ही बढ़ती आबादी और ढेर सारे अनाथ बच्चों वाला देश है, वहां पर किराए की कोख से अपना बच्चा चाहने की बात शायद मानवता पर दूसरी बहस की जरूरत बताती है। विदेशियों को या फिर किसी भी गैरभारतीय को भारत आकर किसी की कोख से बच्चा लेकर जाना किस तरह की सभ्यता की ओर ले जा रहा है। बार-बार ये दलील दी जाती है कि गरीब महिलाओं के लिए अपनी जरूरत भर के पैसे कमाने का एक जरिया था, जो सरकार ने इस कानून के जरिए बंद कर दिया। नियंत्रित बाजार ज्यादातर मामलों में जरूरी और बेहतरी करने वाला होता है। लेकिन, किराए की कोख के बाजार की वकालत और भारत जैसे देश की छवि कुछ ऐसे कर देना कि यहां की गरीब महिलाएं अपनी कोख बेचकर जरूरत भर का कमा पा रही है। पता नहीं, इसे कैसे प्रगतिशीलता कहा जा सकता है। और ये अपने ही शुक्राणु से पैदा हुआ बच्चा पाने की चाहत पुरुषवादी मानसिकता का चरम ही तो है। जहां महिला तो अपने पति के शुक्राणु से दूसरी कोख से पैदा बच्चे को अपना मान ले। लेकिन, पुरुष किसी भी बच्चे को अपनाकर उसे अपने बच्चे का दर्जा देने से बचना चाहता है। इसलिए मुझे लगता है कि केंद्र सरकार को जल्द से जल्द ये कानून लागू करना चाहिए। किराए की कोख के बाजार को महिमामंडित करना न तो सभ्य समाज के हक में है, न महिलाओं के और न ही देश के। और सबसे बड़ा सवाल ये कि अनाथ होते बच्चों को गोद लेने में आई कमी शायद इस कानून के बनने के बाद कुछ बेहतर हो। मानवता का स्तर ऊंचा उठाने में मदद कीजिए। अनाथ बच्चों की चिंता कीजिए। बेटी हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा से आगे बढ़िए। अगर नहीं है अपना बच्चा तो एक अनाथ बच्चे के सिर पर हाथ रखिए। समाज में जिन महिलाओं को किसी वजह से मातृत्व सुख नहीं मिल सकता, उनके प्रति नजरिया सुधारने का भी एक मौका हो सकता है ये किराए की कोख का कानून। ये कानून जल्द लागू हो जिससे दूसरा कोई करण जौहर किसी मां की ममता खरीद न सके। 

Wednesday, March 01, 2017

समाजवादी पार्टी के पुरबिया किले में दरार का जिम्मेदार कौन होगा ?

28 फरवरी को अखिलेश ने आजमगढ़ की 7 विधानसभाओं में सभा की
गांधीनगर से बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी सांसद हैं। लेकिन, गांधीनगर क्या पूरे गुजरात में चुनावी हार-जीत का जिम्मा लम्बे समय से नरेंद्र मोदी के ही ऊपर है। अब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने और अमित शाह के बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद गुजरात की हर जीत इस जोड़ी को ताकतवर करती है और हर हार के बाद लोगों के निशाने पर यही दोनों होते हैं। 2017 के पहले तक उत्तर प्रदेश में होने वाली हर जीत-हार की जिम्मा मुलायम सिंह यादव पर ही रहता है। हालांकि, मुलायम सिंह यादव ने बेटे से लड़ाई में कई बार ये बोला कि अखिलेश के मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष रहते समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में 5 सीटों पर सिमट गई। वो भी भला हो मुलायम सिंह का कि उन्होंने आजमगढ़ जाकर एक सीट बीजेपी के मुंह से अपने खाते में खींच ली। अब सवाल ये है कि 2014 में मुलायम सिंह यादव को जिताने वाला आजमगढ़ 2017 में कैसे वोट करने जा रहा है। 4 मार्च को छठवें चरण में आजमगढ़ में मतदान होना है। आजमगढ़ को लेकर अखिलेश यादव कितने दबाव में हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 28 फरवरी को 7 विधानसभा क्षेत्रों में अखिलेश यादव ने सभा की। आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में 10 से 9 विधानसभा सीटें सपा ने जीत ली थीं। समाजवादी पार्टी के पारम्परिक मतदाता आधार- यादव+मुसलमान- के आधार पर आजमगढ़ को पूरब का इटावा कहा जा सकता है। आजमगढ़ में लम्बे समय तक रमाकांत यादव ने मुलायम की मशाल जलाए रखी। 1999 में पहली बार रमाकांत यादव समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनकर लोकसभा पहुंचे फिर, फिर वो बसपा के रास्ते भाजपा में पहुंच गए। और 2009 के लोकसभा चुनाव में आजमगढ़ में कमल खिला दिया। आजमगढ़ में कमल का खिलना महत्वपूर्ण इसलिए भी रहा क्योंकि, ये जिला प्रदेश के सबसे ज्यादा मुसलमान आबादी वाले जिलों में है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मुसलमान इसी जिले में हैं। इसीलिए 2009 में भले ही रमाकांत यादव लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुए। लेकिन, 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 10 में से 9 सीटें झटक ले गई और 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम यहां से सांसद हो गए। इस लिहाज से आजमगढ़ सपा का एक मजबूत किया है। सपा का सीधा मुकाबला बसपा से ही रहता है। लेकिन, 2017 में इस किले में दरार साफ दिखने लगी है। बूढ़नपुर तहसील अदालत में एडवोकेट और ग्राम प्रधान प्रवीण सिंह कहते हैं ये भाजपा का स्वर्णिमकाल है। 1991 में दोनों सुरक्षित विधानसभा सीटें बीजेपी ने जीती थी। लालगंज 1996 में जीती थी। संयोग देखिए कि 91 और 96 में बीजेपी की सरकार भी बनी।
लालगंज सुरक्षित से बीजेपी ने दरोगा सरोज को टिकट दिया है। पुराने सपाई हैं। उन्हें अपनी जाति का मत मिल सकता है। सवर्ण मतदाता पूरे प्रदेश में लगभग बीजेपी के साथ दिख रहे हैं। सुरक्षित सीट होने से यहां सवर्ण मतदाताओं के पास कोई विकल्प भी नहीं है। बीजेपी की स्थिति अच्छी दिख रही है। हालांकि, लालगंज बसपा की मजबूत सीट है। सुखदेव राजभर लगातार 1991 से यहां से चुनकर विधानसभा पहुंचते रहे। सिर्फ 1996 में बीजेपी से नरेंद्र सिंह जीते थे और 2012 में ये विधानसभा सुरक्षित हो गई। समाजवादी पार्टी के बेचई सरोज ने 2012 में ये सीट जीती। वो फिर से किस्मत आजमा रहे हैं। बीएसपी ने यहां से आजाद अरिमर्दन को टिकट दिया है। मेहनगर सुरक्षित सीट से समाजवादी पार्टी ने विधायक बृजलाल सोनकर की जगह कल्पनाथ सरोज को टिकट दिया है। बीएसपी ने यहां से फिर से विद्या चौधरी को टिकट दिया है। भारतीय समाज पार्टी से अरविंद कनौजिया की पत्नी चुनाव लड़ रही हैं। बीजेपी ने समझौते में ये सीट भारतीय समाज पार्टी को दी है। इस विधानसभा में सबसे ज्यादा ठाकुर मत हैं। करीब 70000 ठाकुर वोट बीजेपी गठजोड़ को मिल सकता है।
दीदारगंज सीट पर समाजवादी पार्टी ने वर्तमान विधायक आदिल शेख पर फिर से दांव लगाया है। शेख अबू आजमी के नजदीकी माने जाते हैं। बसपा ने फिर से सुखदेव राजभर को टिकट दिया है। बीजेपी ने यहां से कृष्ण मुरारी विश्वकर्मा को टिकट देकर मुकाबला रोचक बना दिया है। विश्वकर्मा को बसपा सरकार में राज्यमंत्री का दर्जा मिला था। फूलपुर सीट से रमाकांत यादव का लड़का अरुणकांत यादव कमल निशान पर फिर से किस्मत आजमा रहा है। 2012 में इस सीट से विधायक श्याम बहादुर यादव फिर से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी हैं और बसपा से अबू कैश फिर से लड़ रहे हैं। फूलपुर में सबसे ज्यादा यादव मतदाता, दलित मुसलमान भी अच्छी संख्या में हैं।
अतरौलिया विधानसभा में बीजेपी ने कन्हैयालाल निषाद को प्रत्याशी बनाया है। अतरौलिया से समाजवादी पार्टी से विधायक संग्राम यादव को फिर से टिकट मिला है। बीएसपी ने यहां अखंड प्रताप सिंह को टिकट दिया है। यहां भी मुकाबला सपा-बसपा के बीच ही रहता है। लेकिन, कन्हैयालाल निषाद ने मुकाबला रोचक बना दिया है। यहां 40000 निषाद मतदाता हैं। क्षत्रिय ब्राह्मण मत मिलाकर करीब 60000 हैं। इससे कन्हैयालाल का पलड़ा भारी होता दिख रहा है। कन्हैयालाल का भाई इसी विधानसभा में ग्राम प्रधान है और कन्हैयालाल मुंबई के कारोबारी हैं। गोपालपुर सीट से समाजवादी पार्टी से वसीम अहमद विधायक हैं। वसीम 1996 और 2002 में भी यहां से विधायक रह चुके हैं। फिर भी समाजवादी पार्टी ने वसीम का टिकट काटकर नफीज अहमद को टिकट दे दिया है। बीएसपी ने यहां से कमला प्रसाद यादव को टिकट दिया है। इस विधानसभा सीट पर यादव दलित मुसलमान की अच्छी खासी संख्या है। अन्य पिछड़ा मतदाता भी यहां अच्छी संख्या में हैं। गोपालपुर से बीजेपी से किरण पाल मैदान में हैं। संघ पृष्ठभूमि से आने वाले किरण पाल को अन्य पिछड़े मतों के साथ सवर्ण मतों के साथ आने का फायदा मिल सकता है।
सगड़ी सीट बीएसपी मजबूत दिख रही है। बसपा से सर्वेश सिंह सीपू की पत्नी वंदना सिंह चुनाव लड़ रही हैं। सर्वेश सिंह सपा से 2007 में विधायक चुने गए थे। पति की हत्या के बाद सहानुभूति लहर वंदना सिंह के पक्ष में है। यहां बीजेपी से देवेंद्र सिंह और सपा से विधायक अभय नारायण सिंह मैदान में हैं। आजमगढ़ की सदर सीट से सपा के पूर्व मंत्री दुर्गा यादव मजबूती से चुनाव लड़ रहे हैं। उनके सामने बसपा से भूपिंदर सिंह मुन्ना और भाजपा से अखिलेश मिश्रा हैं। त्रिकोणीय मुकाबला बन रहा है। मुबारकपुर से शाम आलम गुड्डू जमाली अकेले बसपा विधायक हैं। उनके सामने सपा के अखिलेश यादव और बीजेपी से भाजपा से लक्ष्मण मौर्य मुकाबले में हैं। बसपा सरकार में कोऑपरेटिव चेयरमैन रहे लक्ष्मण मौर्य को टिकट देकर बीजेपी ने मुकाबला रोचक कर दिया है। निजामाबाद से सपा ने वर्तमान विधायक आलम बदी पर फिर से भरोसा किया है। लेकिन, बसपा ने मुसलमान की बजाय इस बार चंद्रदेवराम यादव को प्रत्याशी बनाया है। बीजेपी ने अपने पूर्व जिलाध्यक्ष विनोद राय को टिकट दिया है।

अभी तक आजमगढ़ में सुरक्षित सीट को छोड़कर ज्यादातर सपा-बसपा के बीच ही मुकाबला रहता था और उसमें सपा का पलड़ा भारी होता था। लेकिन, इस बार बीजेपी अन्य पिछड़ा और अति पिछड़ा प्रत्याशी उतारकर समाजवादी पार्टी के इस पूर्वी किले में तगड़ी सेंध मारने का इंतजाम कर रखा है। राजभरों की पार्टी से समझौते की वजह से आजमगढ़ जिले में राजभर मतदाता पूरी तरह से बीजेपी के ही साथ आ गया है। इसलिए आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी के इस मजबूत किले पर अगर विरोधी पार्टियां कब्जा करने में कामयाब होती हैं, तो मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव ये कहकर बच सकते हैं कि हम दोनों भाइयों में से कोई भी पार्टी पदाधिकारी नहीं है। इसका सारा जिम्मा अखिलेश यादव को ही लेना होगा। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...