Saturday, April 29, 2017

AAP, AGP की तरह दिखने लगी है !

दिल्ली को देश की राजधानी होने से खास सहूलियत मिली हुई है। यहां सब खास होते हैं। कमला ये कि उस खास दिल्ली में आम आदमी की बात करके एक पार्टी सत्ता में पहुंच गई। सत्ता में यूं ही नहीं पहुंच गई, सत्ता में वो आम आदमी पार्टी नाम रखकर देश की सबसे ईमानदार पार्टी होने का वातावरण तैयार करके पहुंची। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बैनर पर अन्ना को चेहरा बनाकर शुरू हुई लड़ाई से निकली पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने 70 में से 67 सीटें दे दीं। 2 साल से भी कम समय के संघर्ष में खास दिल्ली में राजनीति करने की वजह से अरविन्द केजरीवाल को देश में बदलाव के सबसे बड़े नेता के तौर पर देखा जाने लगा। लेकिन, पहले पंजाब, गोवा और अब दिल्ली नगर निगम के चुनाव में तगड़ी हार के बाद अरविन्द को पूरी तरह से राजनीति में बाहर होता देखा जाने लगा है। सवाल ये है कि क्या विश्लेषकों ने तब जल्दी की थी या अब जल्दी कर रहे हैं ? सवाल ये भी है कि 2011 से 2017, मात्र 6 साल में किसी व्यक्ति, पार्टी के इस तरह से सत्ता के शिखर पर पहुंचने और जनता का आकांक्षाओं पर इतनी बुरी तरह से खरा न उतर पाने का क्या ये अकेला उदाहरण है। जब इस सवाल का जवाब हम खोजने की कोशिश करते हैं, तो पाते हैं कि ये अकेला उदाहरण नहीं है। ठीक ऐसा ही एक उदाहरण भारत में ही देखने को मिला। लेकिन, वो उदाहरण देश के पूर्वोत्तर राज्य से आता है, इसलिए उस पर उतनी चर्चा देश में नहीं हुई।
अरविन्द की आम आदमी पार्टी को सत्ता मिलने में 2 साल से भी कम का समय लगा। हालांकि, 6 साल से भी कम समय में पराभव की भी बड़ी कहानी लिखी जा चुकी है। लेकिन, अरविन्द और उनकी आम आदमी पार्टी से भी 3 दशक से ज्यादा पहले असम में भी ऐसी ही चमकदार कहानी लिखी गई थी। छात्रसंघों से निकले नेताओं की पार्टी बनी थी, असम गण परिषद। छात्रों ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन बनाकर 1979 से आन्दोलन करना शुरू किया। आन्दोलन का मुद्दा था असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करना, उनका नाम मतदाता सूची से बाहर करना। इसी आन्दोलन के दौरान 1983 में असम में चुनाव हुए और कांग्रेस के हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन, ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने ऑल असम गण संग्राम परिषद के बैनर तले दूसरे संगठनों को एकजुट करके इसे मानने से इनकार कर दिया। लम्बे समय तक चले शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बाद 15 अगस्त 1985 को असम समझौता हुआ। ऑल असम गण संग्राम परिषद में असम साहित्य सभा, असम जातीयबादी दल, पूर्बान्चलिया लोक परिषद, असम कर्मचारी परिषद, युवा छात्र परिषद, असम युवक समाज और ऑल असम सेंट्रल- सेमी सेंट्रल एम्प्लॉई यूनियन के लोग शामिल हुए थे। राजीव गांधी के साथ आसू का समझौता हुआ और हितेश्वर सैकिया की सरकार को बर्खास्त किया गया। 14 अक्टूबर 1985 को गोलाघाट में हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति में बाकायदा असम गण परिषद का एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के तौर पर जन्म हुआ और आसू अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महन्त इसके अध्यक्ष बने। असम गण परिषद ने दिसम्बर 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में 126 में से 67 सीटें जीत लीं। साथ ही असम की 14 में से 7 लोकसभा सीटों से भी असम गण परिषद के प्रतिनिधि चुनकर पहुंचे। दिल्ली की 70 में से 67 के मुकाबले 126 में से 67 सीटें उतनी प्रभावी भले न दिखती हों लेकिन, उस समय इससे चमत्कारिक जीत लोकतंत्र में नहीं हुई थी। कुछ समय पहले बनी पार्टी ने सत्ता हासिल कर ली थी। मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महन्त सहित ज्यादातर मंत्री और विधायक छात्रसंघों के प्रतिनिधि से सीधे जनप्रतिनिधि बन गए थे। पूर्ण बहुमत की सरकार थी, इसलिए 5 साल चली। लेकिन, 5 साल बाद हुए चुनाव में असम गण परिषद सत्ता से बाहर हो गई। 1991 में भृगु कुमार फूकन के नेतृत्व में पूर्व केंद्रीय मंत्री दिनेश गोस्वामी, राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री बृंदाबन गोस्वामी, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष पुलकेश बरुआ ने मिलकर नई असम गण परिषद बनाकर चुनाव लड़ा। 1992 में ये लोग फिर पार्टी में आ गए। लेकिन, पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महन्त पर गम्भीर भ्रष्टाचार और राजनीतिक विरोधियों की हत्या तक के आरोप लगे। पूर्ण बहुमत से दिसम्बर 1985 में सत्ता में आई असम गण परिषद को 1991 में सिर्फ 19 सीटें मिलीं। खुद प्रफुल्ल महन्त 2 सीटों से लड़े लेकिन, एक ही सीट से जीत पाए थे। कांग्रेस 66 सीटों के साथ सत्ता में लौटी थी। बीजेपी के 10 विधायक चुनकर आए थे। एजीपी से टूटकर बनी एनजीएपी के भी 5 विधायक चुनकर पहुंचे थे। हालांकि, 1996 में फिर से संयुक्त असम गण परिषद में सत्ता में आ गई। असम गण परिषद के 59 और कांग्रेस के 34 विधायक जीते थे। 2001 से 2016 तक लगातार तीन बार कांग्रेस के तरुण गोगोई मुख्यमंत्री रहे। 2016 में बीजेपी पहली बार असम में सत्ता में आई और सर्बानन्द सोनोवाल मुख्यमंत्री बने। असम गण परिषद केवल 10 सीटें हासिल कर सकी।

दिल्ली नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद जब देश आम आदमी पार्टी की समीक्षा कर रहा है, तो मुझे असम गण परिषद की कहानी इसीलिए कहना ठीक लगा। आम आमी पार्टी नगर निगम चुनाव के बाद खत्म हो गई, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन, इतना तो जरूर है कि जिस ऊंचे भ्रष्टाचार विरोधी, ईमानदार नेता की छवि को लेकर अरविन्द भारतीय राजनीति में विकल्प के तौर पर दिख रहे थे, वो ध्वस्त हो गया है। ठीक वैसे ही जैसे अमस गण परिषद ने खुद को असम के हितों को एकमात्र चैम्पियन घोषित कर लिया था। असम गण परिषद में एक बार 5 साल की सरकार चलने के बाद टूट शुरू हुई थी। अरविन्द ज्यादा तेजी से सत्ता तक पहुंचे थे, इसलिए इसकी जरा सी भी मलाई वो दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं को नहीं दे सके। नतीजा योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार जैसे नेता शुरुआत में ही नमस्ते हो गए। स्वराज इंडिया नई पार्टी बन गई और निगम चुनाव भी लड़ गई। अब फिर से आम आदमी पार्टी बाहर गए नेताओं पर थोड़ी नरम दिख रही है। हो सकता है कल को दोनों कमजोर होकर एक भी हो जाएं। अरविन्द ने विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर लाभ दे दिया। 21 विधायक अयोग्य हो गए तो, दिल्ली विधानसभा की शकल बदल सकती है। अरविन्द पर नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के जमकर आरोप लगे हैं। आम आदमी पार्टी ठीक उसी रास्ते पर जाती दिख रही हैं, जिस पर चलकर असम गण परिषद आज 126 विधायकों वाली असम विधानसभा में 10 सीटों पर सिमट गई है। हां, अब ये जरूर देखने की बात होगी कि क्या अरविन्द को आम आदमी पार्टी से निकालने की ताकत किसी नेता ने बना ली है। ये थोड़ा मुश्किल इसलिए दिखता है क्योंकि, असम गण परिषद छात्र आन्दोलन से निकली पार्टी थी, जिसके नेता छात्रसंघों से संघर्ष करके आए थे, यहां आम आदमी पार्टी ढेर सारे एनजीओ को जोड़कर बनी है। इसीलिए एनजीओ एक्टिविस्टों से ऐसी उम्मीद मुझे थोड़ी मुश्किल दिखती है। कुल मिलाकर अरविन्द केजरीवाल अभी भी नहीं सुधरे तो, आम आदमी पार्टी दिल्ली में असम गण परिषद की राह पर जाती दिख रही है। और इतनी बुरी हार के बाद भी ईवीएम में गड़बड़ी चिल्लाकर अरविन्द मेरी कही बात को सच करते दिख रहे हैं।  

Friday, April 28, 2017

नेता बदले गांधी परिवार, लौटता दिख रहा कांग्रेस का आधार

पूर्ण बहुमत लोकतंत्र में स्थिरता के लिए जरूरी होता है। लेकिन, कई बार पूर्ण बहुमत की वजह से चुनावी विश्लेषण में कई जरूरी मुद्दों पर बात ही नहीं हो पाती है। कुछ ऐसा ही दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी हुआ है। चर्चा सिर्फ पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी और दूसरे स्थान पर रहने वाली आम आदमी पार्टी की हो रही है। कांग्रेस की कोई चर्चा करने को ही तैयार नहीं है। कांग्रेस की चर्चा हो भी रही है तो, सिर्फ इसलिए कि अजय माकन ने इस्तीफे की पेशकश की है। कांग्रेस की बात मैं क्यों कर रहा हूं, इसे समझने की जरूरत है। दिल्ली नगर निगम में अपने सारे उम्मीदवारों को निकम्मा मानकर उन्हें बदलने की रणनीति बीजेपी के लिए ब्रह्मास्त्र बन गई। 2012 से भी ज्यादा सीटें दिल्ली के तीनों निगमों में बीजेपी को मिल गए। ये साफ है कि दिल्ली नगर निगम का चुनाव नगर निगम के मुद्दों पर लड़ा ही नहीं गया। 270 में से 183 सीटें साफ बता रही हैं कि भारतीय जनता पार्टी के पास नरेंद्र मोदी जैसी एक पॉलिसी जो कम से कम 2019 तक तो बीजेपी को बाकायदा लाभांश देती रहेगी। लाभांश कम-ज्यादा हो सकता है लेकिन, मिलता रहेगा, इतना पक्का है। 5 साल की इस पक्की पॉलिसी को जनता अगले 5 साल के लिए फिर से लेती है या नहीं, ये देखने वाली बात होगी। फिलहाल तो बीजेपी विजय रथ पर सवार है। आंकड़ों के लिहाज से 270में से 183 सीटों वाली बीजेपी के बाद आम आदमी पार्टी को सिर्फ 47 सीटें मिल सकी हैं। कांग्रेस के हिस्से सिर्फ 29 सीटें आई हैं। 2012 के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस की आमने-सामने की टक्कर थी। बीजेपी को तीनों निगमों में मिलाकर 142 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 77। इस आधार पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा रहा। 77 से घटकर 29। इस आधार पर प्रथम दृष्टया अजय माकन का नैतिक आधार पर इस्तीफा देना बनता है।
ये सीधे-सीधे किया गया विश्लेषण है, जिसमें निगम चुनावों में तीसरे स्थान पर चले जाने और पिछले चुनाव से बहुत कम सीटें पाने की वजह से कांग्रेस की चर्चा नहीं की जानी चाहिए। और उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन का इस्तीफा पक्के तौर पर बनता है। लेकिन, ये विश्लेषण करते हम ये भूल जा रहे हैं कि 2012 और 2017 के बीच में 2013, 2014 और 2015 भी आया था। 2013 के विधानसभा चुनावों में पहली बार दिल्ली में चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी तेजी से उभरी और 40% मतों पर कब्जा जमा लिया। आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं थीं। बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। बीजेपी को 45.7% मत मिले और सीटें मिलीं 32। कांग्रेस एकदम से गायब हो गई। कांग्रेस को सिर्फ 11.4% मत मिले थे और सिर्फ 8 विधायक चुनकर पहुंचे। 8 विधायक चुनकर आए थे लेकिन, कांग्रेस के खात्मे की भविष्यवाणी राजनीतिक विद्वानों ने करना शुरू कर दिया था। उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव हुए और नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार बीजेपी ने 46.4% मत हासिल करके दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें जीत लीं। आम आदमी पार्टी को 32.9% मत मिले लेकिन, सीट एक भी नहीं मिल सकी। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत भी थोड़ा बढ़ा। कांग्रेस को 15.1% मत मिले। यहां एक बात समझने की थी कि मोदी की लहर और केजरीवाल के दिल्ली में तत्कालीन करिश्मे के बीच भी कांग्रेस का मत प्रतिशत विधानसभा चुनावों के मुकाबले बढ़ा। इसके बाद केजरीवाल की सरकार गिरने की वजह से हुए चुनाव में केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति लहर ऐसी चली कि सब साफ हो गए। 2015 विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी 54.3% मतों के साथ 67 विधानसभा सीट जीतने में कामयाब रही। बीजेपी को 32.2% मत मिले लेकिन, सीट मिली सिर्फ 3 और कांग्रेस को मत मिले 9.7% लेकिन, सीट के मामले में खाली हाथ रह गई।
अभी नगर निगम के चुनाव में जो मत प्रतिशत दिख रहा है। उस पर नजर डालिए। पूर्वी दिल्ली में बीजेपी को 38.61% मत मिले हैं। आम आदमी पार्टी को 23.4% और कांग्रेस को 22.84%। दक्षिणी दिल्ली में बीजेपी को 34.87% मत मिले हैं। आम आदमी पार्टी को 26.44% और कांग्रेस को 20.29% मत मिले हैं। उत्तरी दिल्ली में भी कमोबेस यही स्थिति है। बीजेपी को 35.63% मत मिले हैं। आम आदमी पार्टी को 27.86% और कांग्रेस को 20.73%। कुल मिलाकर अगर तीनों नगर निगमों के ताजा चुनाव की बात की जाए तो बीजेपी को 36.08% मत मिले हैं। आम आदमी पार्टी को 26.23% और कांग्रेस को 21.09% मिले हैं। दरअसल यही समझने की बात है। कांग्रेस पार्टी अपना खोया हुआ आधार वापस हासिल कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन के गुबार में खड़ी हुई आम आदमी पार्टी पर लोगों का भरोसा तेजी से घट रहा है। ये बात पंजाब और गोवा के चुनावी नतीजों से साफ हो गई थी। पंजाब में बड़ी आसानी से कांग्रेस ने सरकार बना ली। और गोवा में कांग्रेस के चुनाव प्रबंधकों की गलती और लापरवाही का फायदा बीजेपी ने उठा लिया। मणिपुर में भी लगभग यही रहा कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हताशा से उबर ही नहीं पा रहा है और भारतीय जनता पार्टी अपनी मजबूती का फायदा लगातार उठा रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की प्रचण्ड जीत के सामने कांग्रेस के अपने आधार मत को वापस पाने की चर्चा लगभग ना के बराबर हुई। और अब यही दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों पर भी हो रहा है। जिस पार्टी का पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ठीक चुनाव के बीच विरोधी पार्टी में चला जाए और बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़ने की कतार में लग जाएं, अगर उस पार्टी का मत प्रतिशत 2015 के विधानसभा चुनावों से करीब ढाई गुना बढ़ गया हो तो इसकी चर्चा होनी चाहिए। और इसका श्रेय भी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन को देना चाहिए। इसलिए अजय माकन को इस्तीफा देने की कतई जरूरत नहीं है। हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस राज्यों में अपना खोया आधार वापस पाने की लड़ाई मजबूती से लड़ रही है और दिल्ली जैसी जगह में तो एक बार अरविन्द की छवि कमजोर होने लगी तो बड़ी आसानी से कांग्रेस उसी जगह पर खड़ी हो जाएगी। लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को अपना नेता तलाशना होगा, वरना 2019 में ये सारी बढ़त फिर गायब हो जाएगी।
 (ये लेख QuintHindi पर छपा है)

Tuesday, April 25, 2017

मूत्रपीता भारतीय किसान नहीं हो सकता

जन्तर मन्तर पर प्रदर्शन करते तमिलनाडु के किसान
जन्तर मन्तर पर तमिलनाडु से आए किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। नरमुण्ड के बाद नंगे होकर प्रदर्शन में अब वो अपना मूत्र पीकर प्रदर्शन कर रहे हैं। किसान सुनते ही लगता है कि इसका कुछ भी कहना जायज़ है। सही मायने में होता भी है, भारत में किसानों की दुर्दशा देश की दुर्दशा की असली वजह भी रही। इस दुर्दशा को रोकने के लिए आसान रास्ता सरकारों ने, नेताओं ने निकाल लिया है कि कुछ-कुछ समय पर क़र्ज़ माफ़ी करते रहो। नेताओं की दुकान चलती रही, खेती ख़त्म होती रही। अब उसी की इन्तेहा है कि तमिलनाडु के किसान नंगई पर उतरने के बाद मूत्र पीकर प्रदर्शन कर रहे हैं। अब मुझे पक्का भरोसा हो गया है कि ये भारत का किसान नहीं हो सकता जो धरती माँ की सेवा करके सिर्फ बारिश के पानी के भरोसे अन्नदाता बन जाता है। ये राजनीतिक तौर पर प्रेरित आन्दोलन दिख रहा है। ये किसान अगर इस बात की माँग के लिए जन्तर मन्तर पर जुटे होते कि इस साल हमने इतना अनाज उगाया, हमारी लागत के बाद कम से कम इतना मुनाफ़ा ही हमें किसान बनाए रख सकेगा। मैं भी जन्तर मन्तर पर इनके साथ खड़ा होता लेकिन नरमुण्ड, नंगई के बाद मूत्र पीकर वितण्डा करने वाले किसानों को भड़काकर मैं सरोकारी नहीं बनना चाहता। मैं बहुत अच्छे से जानता/मानता हूँ कि अच्छी कमाई वाले किसान नहीं बचे तो कोई भी जीडीपी ग्रोथ देश को आगे ले जाने से रही। लेकिन ऐसे वाले किसान प्रतिष्ठित हुए तो देश गर्त में ही जाएगा। सरकार अन्नदाता किसान की प्रतिष्ठा बढ़ाओ, मूत्रपीता किसान को लानत भेजो।

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जन्तर मन्तर पर घृणित तरीक़े से प्रदर्शन करने वाले तमिलनाडु के किसानों पर मैंने सन्देह ज़ताया और ऊपर लिखी टिप्पणी की, तो मुझे संघी कहने से लेकर तमिलनाडु से क़रीब १५० साल में सबसे ख़राब सूखे की स्थिति तक की कहानी तथाकथित सरोकारी विद्वानों ने समझा दी। कई विद्वान जो जन्तर मन्तर से मीलों दूर बैठे हैं, उन्होंने मुझे बताने की कोशिश की कि कभी जन्तर मन्तर जाकर देखो, तब टिप्पणी करो। अब उन शिरोमणियों को कौन समझाए कि लगभग रोज़ जन्तर मन्तर से ही गुज़रना होता है। कई विद्वान शिरोमणि तो ऐसे हैं कि कुछ भी तमिलनाडु के किसानों जैसा प्रोयाजित आन्दोलन सन्देह के दायरे में आया तो वो तुरन्त जोर जोर से चिल्लाने लगते हैं। संघ, मोदी का विरोध करने वाला हर कोई देशद्रोही क़रार दे दिया जा रहा है। दुराग्रह बढ़ा तो उसमें गोली मरवा दो जैसी टिप्पणी भी जोड़ दी गई। अब सब ग़ायब (अवधी म कही तो बिलाय गएन) हो गए हैं कि क्यों मूत्र पीने, चूहा खाने जैसी घिनौनी हरकत करने वाले किसान दिल्ली के #एमसीडी का मतदान होते ही लौटने को तैयार हो गए। हे फ़र्ज़ी सरोकारियों, धर्मनिरपक्षों, संघ-मोदी विरोधियों थोड़ा तो सही आधार खोजकर टिप्पणी करो वरना बचे खुचे भी बस संग्रहालय भर के ही रह जाओगे। मेरी टिप्पणी, विश्लेषण ग़लत हुआ तो हाथ जोड़कर माफ़ी माँग लूँगा तुम्हारी तरह फर्जीवाड़े की दुकान नहीं चलाऊँगा। ख़ैर अब तो तमिलनाडु का किसान धरने से उठ गया है। तुम पर देश की जनता का भरोसा तो पहले ही उठ गया है। कुछ नया आधार, नई साज़िशें तैयार करो। 

Wednesday, April 19, 2017

21वीं सदी के सबसे बड़े नेता के तौर पर प्रतिष्ठित होते नरेंद्र मोदी

महात्मा गांधी भारत के ही नहीं दुनिया के महानतम नेता हैं। गांधी इतने बड़े हैं कि भारत में कोई भी नेता कितनी भी ऊंचाई तक पहुंच जाए, गांधी बनने की वो कल्पना तक नहीं कर सकता। गांधी ने भारत को आजाद कराया और साथ ही ऐसा जीवन दर्शन दिया, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। और हमेशा रहेगा। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी कई बार भारतीय जनमानस के बीच प्रतिष्ठित हुए। लेकिन, इनमें से कोई भी ऐसा नहीं रहा जो, लम्बे समय तक भारतीय जनमानस पर ऐसी तगड़ी छाप छोड़ पाता जो, किसी भी परिस्थिति में अमिट होता। दरअसल भारतीय जनमानस के लिए किसी को प्रतिष्ठित करने का आधार सत्ता या सरकार नहीं होती है। यही वजह रही कि महात्मा गांधी के बाद कौन वाला सवाल हमेशा अनुत्तरित रह जाता है। करीब 17 साल नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहे और करीब 16 साल इन्दिरा गांधी। लेकिन, इन्दिरा प्रधानमंत्री बनीं तो नेहरू की छाप मिटने सी लगी। इन्दिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग कराकर अमिट छाप छोड़ी। लेकिन, आपातकाल का कलंक उनकी सारी प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला गया। उसी आपातकाल के खिलाफ लड़कर जयप्रकाश नारायण गांधी के बाद सबसे बड़े नेता के तौर पर प्रतिष्ठित हुए। हालांकि, कई आलोचक ये कहते हैं कि जयप्रकाश नारायण का करिश्मा बहुतों के करिश्मे से मिलकर तैयार हुआ। और जयप्रकाश नारायण को आपातकाल के खिलाफ लड़ाई में एक सहमति वाले नेता के तौर पर ज्यादा जाना जाता है।
महात्मा गांधी जननेता के रूप में एक ऐसा आदर्श रहे हैं, जिसके नज़दीक पहुँचना भी उनके बाद के किसी नेता के लिए सम्भव न हो सका। अब नरेंद्र मोदी गांधी के बाद कौन वाले सवाल का जवाब बनने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर और फिर देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने अपना व्यक्तित्व नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। नरेंद्र मोदी आम लोगों के जीवन के उन मुद्दों को छूते, उस पर काम करते दिखते हैं, जिसे गांधी के बाद के किसी बड़े नेता ने अभियान की तरह लेना उचित नहीं समझा। गांधी के बाद अब नरेंद्र मोदी आज़ाद भारत के सबसे करिश्माई, सबसे बड़े जनाधार वाले नेता के तौर पर दिख रहे हैं। आलोचक जमात भले इसे अलग-अलग चश्मे से देखकर कुछ पुराने हो चुके पैमानों पर ख़ारिज करने की असफल कोशिश करती है, सच्चाई यही है नरेंद्र मोदी इतने लम्बे समय तक जनता के बीच प्रतिष्ठा बनाए रखने में कामयाब रहने वाले गांधी के बाद सबसे बड़े नेता हैं। 2017 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता के बीच भरोसे के मामले में उस ऊंचाई तक पहुंच गए हैं, जहां भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, कांग्रेस या दूसरी पार्टियों के भी नेता बहुत छोटे दिखने लगे हैं। और सबसे कमाल की बात ये है कि नरेंद्र मोदी ने जनता के मन में ये भरोसा सत्ता में रहते हुए जगाया है। सत्ता से नेता बड़ा होता है और प्रभावी होता है। लेकिन, भारतीय पारम्परिक पैमाने पर कोई भी नेता सत्ता में रहते हुए जनता की नजरों में उतना प्रतिष्ठित नहीं हो पाता है। शायद यही वजह रही कि गांधी के बाद कौन? इस सवाल के जवाब में गांधी के बाद के नेताओं की कतार लम्बी दिखती है और अलग-अलग वजहों से अलग-अलग नेताओं की प्रतिष्ठा है। नेहरू, इन्दिरा से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी तक गांधी के बाद वाली कतार में खड़े ही रहे गए। जयप्रकाश नारायण भी गांधी न बन सके। इसको आज सिरे से ख़ारिज किया जा सकता है लेकिन इतिहास में तो ये ऐसे ही याद किया जाएगा, जैसे मैं कह रहा हूँ। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के मुक़ाबले की कोई यात्रा हालिया राजनीति में नहीं मानी जाती। सोमनाथ से अयोध्या की अधूरी यात्रा ने आडवाणी को बहुत बड़ा नेता बना दिया था। वो प्रधानमंत्री भी नहीं बन सके लेकिन, इसी आधार पर लम्बे समय तक वो देश के सबसे जनाधार वाले नेता माने जाते रहे। देश के ज़्यादातर बड़े नेताओं को ऐसे ही याद किया जाता है कि कोई यात्रा, कोई अभियान उन्हें अपने दौर में सबसे बड़ा नेता स्थापित करने में मदद करता है। हालांकि, 21वीं सदी की अभी शुरुआत ही है। फिर भी जिस तरह से नरेंद्र मोदी भविष्य की योजना के साथ आगे बढ़ते दिख रहे हैं, उसमें 21वीं सदी के भारत के सबसे बड़े नेता के तौर पर मोदी स्थापित होते दिख रहे हैं। देश उन्हें ऐसे ही याद करेगा। 21वीं सदी के अनुकूल जरूरतों के लिहाज से नरेंद्र मोदी नए नारे गढ़ने और उस पर अमल करने में कामयाब होते दिख रहे हैं।
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Friday, April 07, 2017

“कांग्रेस मुक्त भारत” नारा अच्छा है!

भारतीय जनता पार्टी 37 साल की हो गई है। 6 अप्रैल 1980 को जन्मी पार्टी ने करीब-करीब 4 दशक में भारत जैसे देश में पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है। देश के 14 राज्यों में सरकार बना ली है। और दुनिया की सबसे ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी बन गई है। स्पष्ट तौर पर ये भारतीय जनता पार्टी के लिए जबर्दस्त चढ़ाव का वक्त है। और चढ़ाव के वक्त में थोड़ी मेहनत करके ज्यादा हासिल किया जा सकता है। और अगर ज्यादा मेहनत की जाए, तो उसके परिणाम बहुत अच्छे आते हैं। इस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी भारतीय जनता पार्टी को चला रही है, जो ज्यादा मेहनत के लिए ही जानी जाती है। इसीलिए आश्चर्य नहीं होता, जब इसी समय का इस्तेमाल करके नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बुलन्द किया जा रहा है। जिस तेजी से मई 2014 के बाद देश के अलग-अलग राज्यों से कांग्रेस पार्टी खत्म होती जा रही है, वो भारतीय जनता पार्टी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को साकार करता दिखाता है। लेकिन, क्या भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे उपयुक्त स्थिति है कांग्रेस मुक्त भारत का होना ? मुझे लगता है- इसका जवाब ना में है। दरअसल ये कांग्रेस का होना ही था, जिसकी वजह से देश में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ 37 साल में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर है।
कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हुए बीजेपी के बड़े नेताओं से लेकर छोटा कार्यकर्ता तक हमेशा इस बात की वकालत करता है कि महात्मा गांधी ने भी कांग्रेस को आजादी के बाद खत्म करने की बात की थी। लेकिन, कांग्रेस को खत्म करने का महात्मा गांधी का तर्क बड़ा साफ था। कांग्रेस दरअसल भारत की आजादी के आंदोलन में सर्वजन की एक पार्टी नहीं आंदोलन बढ़ाने का जरिया था। इसीलिए जब देश आजाद हुआ, तो जरूरी था कि देश की आजादी के आंदोलन वाली उच्च आदर्शों वाली पार्टी सत्ता हथियाने के लिए किसी परिवार, किसी एक विचार की पार्टी होकर न रह जाए। लेकिन, दुर्भाग्य कि ऐसा न हो सका। जवाहर लाल नेहरू और उसके बाद इंदिरा गांधी ने और मजबूती से उसे महात्मा गांधी का नाम लगाकर गांधी परिवार की पार्टी बना दिया। सिर्फ परिवार की पार्टी ही नहीं बनाया, उस परिवार के दायरे से बाहर जाने वालों को कांग्रेस में भी लोकतंत्र का दुश्मन बना दिया गया। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को लगा कि वैचारिक तौर पर संघ से निपटने में हो रही मुश्किल का सबसे आसन इलाज है कि वामपंथियों को वैचारिक लड़ाई का जिम्मा दे दिया जाए। वामपंथ की अपनी एक वैचारिक धारा है। जो सरोकार से लेकर समाज तक की बात तो करती है। लेकिन, दुर्भाग्य देखिए कि भारतीय वामपंथ के पास एक भी अपना नायक नहीं है। अभी भी भारतीय वामपंथ को नायक के तौर पर मार्क्स-लेनिन और चे ग्वेरा ही मिलते हैं। कांग्रेस हिन्दुस्तान की तटस्थ धारा वाली पार्टी के तौर पर बखूबी चल रही थी। इस काम को कांग्रेस ने सलीके से संघ को गांधी हत्यारा घोषित करके और मजबूती से कर लिया था। लेकिन, वामपंथ के साथ और फिर बाद में बीजेपी को किसी हाल में सत्ता के नजदीक न पहुंचने देने की गरज से कांग्रेस ने ही लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं का साथ लिया। इसने कांग्रेस की तटस्थ छवि पर चोट पहुंचानी शुरू की थी। कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता बनाए रखने के लिए हर तरह के तुष्टीकरण और तुष्टीकरण ही क्यों, इसे गम्भीरता से आंका जाए, तो साम्प्रदायिक राजनीति को संस्थागत तरीके से किया। वामपंथियों, लालू, मुलायम के साथ कांग्रेस का मेल ही था, जो मुसलमानों को उनका हक देने की राजनीति को इस हद तक ले गया कि हिन्दुओं को ये अहसास होने लगा कि उनका हक छीना जा रहा है। कांग्रेस ये काम बचाकर कर रही थी लेकिन, लालू, मुलायम जैसे क्षेत्रीय नेताओं को जातियों में बंटे हिन्दू वोटबैंक से बड़ा वोटबैंक मुसलमानों का दिखा और उन्होंने खुलकर मुस्लिमों के हक में दिखने वाली सांप्रदायिक राजनीति शुरू कर दी। जब लालू, मुलायम जैसे नेता कांग्रेस की ही जमीन में बड़ा हिस्सा काटकर मुस्लिम सांप्रदायीकरण की राजनीति कर रहे थे, कांग्रेस केंद्र में गठजोड़ के सहारे सत्ता सुख बचाए रखने की लड़ाई आगे बढ़ा रही थी। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार से कांग्रेस लगभग गायब सी हो गई। लेकिन, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ की अगुवा बनने के फेर में कांग्रेस देश के हिन्दुओं के मन में ये धारणा पक्की करती रही कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर कोई हिन्दू हित की बात नहीं कर रहा है।
2004 में जब इंडिया शाइनिंग का नारा ध्वस्त हुआ, तो भी भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस से सिर्फ 7 सीटें ही कम मिली थीं। कांग्रेस को 145 सीटें मिली थीं और बीजेपी को 138। जबकि, क्षेत्रीय दलों को 159 सीटें मिली थीं। इसमें बीएसपी और एनसीपी शामिल नहीं हैं। अगर बीएसपी और एनसीपी की 28 सीटें शामिल कर ली जाएं, तो क्षेत्रीय दलों को 2004 में 187 सीटें मिली थीं। इस लिहाज से सरकार कांग्रेस की नहीं बननी चाहिए थी। लेकिन, कांग्रेस ने यूपीए बनाया और सरकार बनाने में सफलता हासिल कर ली। और, मुस्लिम सांप्रदायिकता की राजनीति को नए स्तर पर ले जाते हुए 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कह दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इससे भी आगे जाते हुए राहुल गांधी ने मार्च 2007 में बयान दे दिया कि अगर कोई गांधी देश का प्रधानमंत्री होता, तो बाबरी मस्जिद नहीं गिरती। विश्लेषकों ने इसे बहुत तवज्जो भले नहीं लेकिन, सच यही है कि इसने मुस्लिमों को कांग्रेस के पक्ष में गुपचुप एक करने में मदद कर दी। 1990 के बाद से लगातार कांग्रेस से दूर जा रहे मुसलमान इस कदर कांग्रेस के करीब आ गए कि 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 543 में से 206 सीटें मिल गईं और सहयोगी दलों को मिलाकर बने यूपीए को 262 सीटें मिलीं। बची 10 सीटों के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन करके सरकार बनवा दी। उत्तर प्रदेश में यादव, दलितों ने एसपी, बीएसपी की इज्जत बनाए रखी, वरना ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस ने यूपीए के सहयोगी दलों का ही हिस्सा खाया था।

ज्यादातर विश्लेषक अभी की भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के उत्थान के पीछे सबसे बड़ी वजह 2002 के गुजरात दंगों में खोजते हैं। लेकिन, सच बात यही है कि 2002 के गुजरात दंगों से ज्यादा कांग्रेस की सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेता के तौर पर राहुल गांधी का बयान और इन सबसे बढ़कर कांग्रेस की सबसे लम्बे समय तक अध्यक्ष रहने वाली सोनिया गांधी का- मौत का सौदागर- बयान भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में हिन्दुओं को गोलबन्द करने की वजह बना। फिर रही सही कसर दिग्विजय सिंह जैसे ढेरों कांग्रेसी नेता समय-समय पर पूरी करते रहते हैं। ये कांग्रेस ही थी जिसने जामा मस्जिद के इमाम को शाही बना दिया और मुसलमान मतों को ठेकेदार भी। और ये भी कांग्रेस ही थी जिसके राज में 2004 के बाद भगवाधारी होना बुरी नजर से देखा जाने लगा। जवाहर लाल नेहरू से इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी से राहुल गांधी तक आते-आते कांग्रेस ने बड़े सलीके से खुद को आजादी की लड़ाई वाली कांग्रेस से बदलकर एक परिवार की पार्टी से भ्रष्टाचारियों की पार्टी और फिर मुस्लिम सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर खड़ा कर लिया। और इसी मुस्लिम सांप्रदायिकता की राजनीति की प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू मतदाता भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में एकजुट हुआ है। इसलिए कार्यकर्ताओं में जोश दिलाने के लिए राजनीतिक नारे के तौर पर तो कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अच्छा है। लेकिन, सही मायने में ये कांग्रेस युक्त भारत ही है, जिसने 37 साल की भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत वाली सरकार के साथ 13 राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। ये कांग्रेस ही है जिसकी वजह से कोई भी दूसरी विपक्षी गठजोड़ की जमीन तैयार नहीं हो पा रही है। अरविन्द केजरीवाल विपक्षी नेता के तौर पर तैयार हो जाते, अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई होती। लेकिन, वहां भी विपक्ष का नेता बनने का अरविन्द केजरीवाल का सपना कांग्रेस ने ही ध्वस्त किया। इसलिए जब तक ये वाली कांग्रेस और इसके नेता हैं, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी वाली भारतीय जनता पार्टी के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा। 

Thursday, April 06, 2017

सेंसेक्स 30000 पहुंचा, रफ्तार की वजहें भी जान लीजिए

बांबे स्टॉक एक्सचेंज की रामनवमी शुभकामना
शेयर बाजार में जश्न का माहौल है। माहौल कुछ वैसा ही है, जैसा नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदों से था। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने 3 साल होने जा रहे हैं। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि शेयर बाजार में अच्छी तेजी देखने को मिल रही है। Sensex सेंसेक्स बुधवार को कारोबार में 30000 के पार चला गया। 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे भी इसकी एक बड़ी वजह है। लेकिन, दूसरी कई वजहें हैं, जिस पर आपका ध्यान नहीं गया होगा।
1 जुलाई से लागू हो जाएगा जीएसटी
लम्बे समय से किन्तु-परन्तु के फेर में फंसा जीएसटी कानून अब 1 जुलाई से लागू होने जा रहा है। केंद्र सरकार ने इसे लागू कराने के लिए जरूरी चारों बिलों को लोकसभा से पास करा लिया है। राजस्व सचिव हंसमुख अधिया का साफ कहना है कि कारोबारियों को जीएसटी के लिए तैयार होने का बहुत वक्त दिया गया है। सरकार इसे जुलाई से लागू करने जा रही है। कानून तैयार है और नियम सबको बता दिया गया है। तकनीकी बुनियादी ढांचा भी तैयार है।
कारोबार करना आसान होने की उम्मीद
जीएसटी लागू होने के बाद देश में कारोबारियों के लिए राहत की उम्मीद की जा रही है। खासकर कारोबारियों को तमाम तरह के टैक्स की वजह से अलग-अलग विभागों के चक्कर काटने से मुक्ति मिल सकती है। माना जा रहा है कि इससे देश में कारोबार करना आसान होगा।
बजट प्रक्रिया का समय से पहले पूरा होना
इस साल नरेंद्र मोदी की सरकार ने बजट करीब एक महीने पहले पेश कर दिया। चुनाव के समय बजट पेश करने को लेकर सरकार की जमकर आलोचना भी हुई। लेकिन, अब उसके सार्थक परिणाम दिख रहे हैं। सरकार ने एक अप्रैल से पहले ही बजट प्रावधान की प्रक्रिया पूरी कर ली है। सभी विभागों और मंत्रालयों का बजट अलॉट कर दिया है। अब सभी विभागों के पास बजट खर्च करने के लिए पूरे एक साल का समय होगा। साथ ही राज्यों को भी अपना बजट बनाने में आसानी होगी।
5 महीने के ऊंचे स्तर पर मैन्युफैक्चरिंग
मार्च महीने में देश की फैक्ट्रियों में मैन्युफैक्चरिंग गतिविधि 5 महीने में सबसे ज्यादा रही है। मार्च महीने में नए ऑर्डर और बेहतर मांग की वजह से मैन्युफैक्चरिंग तेजी से बढ़ी है। उत्पादन तेजी से बढ़ने की उम्मीद दिख रही है। साल के तीनों शुरुआती महीनों जनवरी, फरवरी और मार्च में मैन्युफैक्चरिंग में लगातार तेजी देखने को मिली है।
सर्विस क्षेत्र में भी आई तेजी
लगातार दूसरे महीने सर्विस सेक्टर में तेजी देखने को मिली है। नए ऑर्डर जमकर मिले हैं। Pollyanna De Lima, economist कहते हैं कि भारत के निजी क्षेत्र के कारोबार में मार्च महीने में तेज उछाल देखने को मिल रही है। मांग और उत्पादन दोनों ही बढ़ा है। विमुद्रीकरण से आई कमजोरी से बहुत तेज वापसी हुई है। रोजगार के नए मौके बन रहे हैं।
सरकारी खजाने में बढ़ी रकम
इस साल सरकार ने जबर्दस्त कर वसूली की है। सरकार की कर वसूली 18% ज्यादा रही है। ये पिछले 6 सालों में सबसे ज्यादा है। सरकार के खजाने में टैक्स के जरिए 17.10 लाख करोड़ रुपये आए हैं। प्रत्यक्ष कर 14.2% और अप्रत्त्यक्ष कर 22% बढ़ा है। पिछले साल के मुकाबले इस साल इनकम टैक्स ग्रोथ 21% रही है।
रिकॉर्ड अनाज उत्पादन
इस साल रिकॉर्ड अनाज का उत्पादन होने का अनुमान है। गेहूं, दाल और चावल की पैदावार इस साल अब तक सबसे ज्यादा होती दिख रही है। 2016-17 में कुल 27.20 करोड़ टन अनाज उत्पादन का अनुमान लगाया जा रहा है। पिछले साल से ये 8% ज्यादा है। पिछले साल 25.16 करोड़ टन अनाज की पैदावार हुई थी। इससे पहले 2013-14 में रिकॉर्ड 26.50 करोड़ टन अनाज की पैदावार हुई थी।
5 में से 4 राज्य में बीजेपी की सरकार

हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जबर्दस्त सफलता मिली है। 5 में 4 राज्यों में बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब रही है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है लेकिन, लम्बे समय से उत्तर प्रदेश का देश की जीडीपी में योगदान बहुत कम रहा है। उम्मीद की जा रही है कि केंद्र और राज्य में बीजेपी की ही सरकार होने से उत्तर प्रदेश केंद्र की नीतियों को आगे बढ़ाने का काम करेगा। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...